केवल औचित्य का मार्ग ही अपनावें

September 1974

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महत्ता इस बात की नहीं कि सफलता कितनी बड़ी पाई गई। गरिमा इस बात की है कि उसे किस प्रकार पाया गया। अनीति का मार्ग अपनाकर कोई सफलता अधिक बड़ी मात्रा में और अधिक जल्दी पाई जा सकती है, जबकि नीति का मार्ग अपनाकर चलने से उसमें देर भी लगेगी और मात्रा भी सीमित रहेगी।

अधीर व्यक्ति जल्दी और अधिक पाने की बात सोचते हैं और इसी के लिए किसी भी रास्ते कुछ भी कर गुजरने के लिए आतुर रहते हैं। सम्भव है तात्कालिक लाभ की दृष्टि से वे सफल भी रहें और बुद्धिमान भी समझे जाये, पर अन्ततः यह सौदा बहुत महंगा पड़ता है। ऐसी उपलब्धियाँ स्वयं ही पानी के बबूले की तरह नष्ट हो जाती हैं और उस उपार्जनकर्त्ता को भी साथ ले डूबती है।

इतिहास के पृष्ठों पर ऐसे अनेक नाम हैं जो आँधी तूफान की तरह उभरे और झाग की तरह तली में बैठ गये। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, चंगेजखाँ, नादिरशाह, सिकन्दर, हिटलर आदि के कितने ही नाम ऐसे हैं जिन्हें अपने समय का सफल मनुष्य कहा जा सकता है। उनकी सफलताएँ अपेक्षाकृत अधिक भी थीं और बड़ी भी। किन्तु उनसे क्या बना? सफलताएँ उन्हें महंगी पड़ीं। जो कमाया था वह चला गया, अपना भी दुखद अन्त हुआ—आतंकवाद के आधार पर उपार्जित किया गया, बड़प्पन देर तक न टिका, उसका स्थान चिरस्थायी अपयश ने ले लिया। उत्पीड़ितों और शोषितों का करुण–क्रन्दन अनन्त काल तक उनकी आत्मा को नोंचता−कोंचता रहेगा। तस्कर डाकू और छली बात की बात में प्रचुर धन प्राप्त कर लेते हैं, पर वह धन उनकी सुख−शान्ति में तनिक भी सहायता कर सका हो ऐसा कहीं नहीं देखा गया।

सफलताएँ अपने आप में कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। एक से एक बड़ी सफलताएँ पाने वाले लीग इस संसार में हो चुके हैं और होंगे—उनकी तुलना में हमारी सफलता का मूल्य तुच्छ है। ऐसी छुटपुट सफलताएँ और असफलताएँ तो कोई भी कभी भी पाता रहता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सफलता किस रास्ते—किस उपाय से प्राप्त की गई। वस्तुतः वह उपाय या मार्ग ही प्रशंसा अथवा निन्दा का केन्द्रबिन्दु होता है। इसी के आधार पर व्यक्तित्व और कर्तव्य की परख होता है। निन्दा प्रशंसा की आधारभूत पृष्ठभूमि वह प्रक्रिया ही है जिसे सफलता की मंजिल पर चलते हुए अपनाया गया।

न्याय का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयास करने वाले में से कितने ही ऐसे भी होते हैं जिन्हें घोर कष्ट सहने पड़ें और असफलता ही पल्ले पड़ी। ऐसे लोगों का उपहास नहीं उड़ाया जाता—उनकी भर्त्सना भी नहीं की जाती वरन् त्यागी, बलिदानी, शहीद, आत्मदानी आदि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। चिरकाल तक उनकी स्मृतियाँ मनाई जाती हैं और चरणों पर श्रद्धाँजलियाँ चढ़ाई जाती हैं। यदि सफलता ही प्रशंसा का आधार रहा होता तो इन असफल व्यक्तियों को यह चिरस्थायी प्रतिष्ठा क्यों मिलती? तब ऐसे कार्यों में लोग हाथ क्यों डालते जिसमें स्पष्टतः विपत्ति को आमन्त्रण देने की बात सामने होती है।

सफलता की ही प्रशंसा होती हो अथवा उसी से अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध होता हो ऐसी बात नहीं। विकट परिस्थिति से जूझते हुए यदि असफलता भी हाथ लगे तो वह साहसिक संघर्षशीलता और उसके पीछे छिपी हुई चरित्र निष्ठा उस मनुष्य का व्यक्तित्व निखारती है और प्रामाणिकता सिद्ध करती है।

महत्वपूर्ण बात एक ही है कि हम जिस भी दिशा में चलें रास्ता न्यायोचित और मानवी मर्यादाओं के अनुरूप होना चाहिए। औचित्य को अपनाये रहकर असफल रहना उससे कहीं अच्छा है जिसमें अनीति अपनाकर सफलता प्राप्त की जाती है।


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