अपनों से अपनी बात

September 1974

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हममें से प्रत्येक के पास अखण्ड−ज्योति एवं युग−निर्माण पत्रिकाएँ पहुँचती हैं, उन्हें पढ़कर एक कोने में पटक नहीं देना चाहिए, वरन् ऐसी सुनिश्चित व्यवस्था बना लेनी चाहिए कि कम से कम दस व्यक्तियों को नियमित रूप से उन्हें अवश्य ही पढ़ा दिया करेंगे। अपने घर−परिवार के लोगों को पढ़ाना या सुनाना तो अनिवार्य ही समझा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त मित्रों, परिचितों एवं सम्बन्धी, निकटवर्ती लोगों को भी इसका लाभ मिलना चाहिए। दस की संख्या इन्हीं की होनी चाहिए।

मनुष्य में घिनौने हाड़−माँस के ऊपर उठकर यदि कोई क्षमता और विशेषता है तो वह उसकी चेतना की है। चेतना की दृष्टि से जिसका स्तर जितना उठा या गिरा हुआ है उसी अनुपात से उसे समुन्नत अथवा पतित गिना जाता है उसी अनुपात से वह सुखी या दुखी रहता है। उसी कसौटी पर जीवन की सफलता−असफलता का लेखा−जोखा लिया जाता है। शरीर की दृष्टि से कोई कितना ही सुन्दर या हृष्ट−पुष्ट क्यों न हो—धन की दृष्टि से कोई कितना ही अमीर क्यों न हो? यदि उसका चेतना स्तर अविकसित है तो उसे निम्नस्तरीय प्राणियों में ही गिना जायगा। भले ही लोग उसे आकर्षक या धनपति समझकर चापलूसी भरा बखान क्यों न करते रहें।

व्यक्ति का वास्तविक उत्कर्ष एवं वैभव उसके परिष्कृत दृष्टिकोण के साथ जुड़ा हुआ है। उसी आधार पर वह आत्म−तुष्ट और लोक−श्रद्धा का भाजन बनता है इसी आधार पर उसका व्यक्तित्व निखरता है—प्रगति के साधन जुटते हैं और ऐसे कर्म बन पड़ते हैं जिससे न केवल वह स्वयं को वरन् अपने समाज, देश, धर्म, युग एवं संस्कृति को भी धन्य बना सके। मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति एवं विभूति उसकी सुविकसित चेतना के साथ ही अविछिन्न रूप जुड़ी होती हैं। इस तथ्य को जितनी अच्छी तरह—जितनी गहराई से—समझा जा सके उतना ही उत्तम है।

अखण्ड−ज्योति का एक ही लक्ष्य है कि मानवी चेतना को परिष्कृत बनाने के लिए विविध स्तर की ऐसी प्रचण्ड प्रकाश किरणों को इतनी प्रखरता के साथ उत्पन्न करें जो पाठकों के अन्तःकरण को स्पर्श करके उसे ज्योतिर्मय बना उत्साहवर्धक सफलता मिली है। युग−निर्माण पत्रिकाएँ तथा प्रस्तुत साहित्य भी इसी उद्देश्य के लिए लिखा गया है। उसने भी अपना काम अत्यन्त सफलता के साथ संपन्न किया है। प्रतिफल सामने है। लाखों की संख्या से आगे बढ़कर अब करोड़ों व्यक्ति उस प्रकाश से आलोकित हो रहे हैं। असंख्य सामान्य व्यक्ति असामान्य बने हैं। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य अब उपहासास्पद स्वप्न नहीं समझा जाता वरन् विज्ञ वर्ग द्वारा यह गम्भीरतापूर्वक स्वीकार किया जाता है कि भावनात्मक नव−निर्माण का महान् प्रयोजन पूरा करते हुए नवयुग का आविर्भाव क्रिया−पद्धति के अनुसार जिस योजना के आधा पर किया जा रहा है उसकी सफलता असंदिग्ध है। कल नहीं तो परसों यह विचार प्रवाह युग की मलीनता को धो देगा। इस तूफान में वातावरण की गन्दगी अगले दिनों दूर होकर ही रहेगी।

आवश्यकता इस बात की है कि यह विचार प्रवाह द्रुतगति से जन−मानस में प्रवेश करने का अवसर प्राप्त करे। इसके लिए अभी तक एकांगी प्रयास ही होते रहे हैं। युगान्तरकारी—विचार क्रान्ति, साहित्य, तत्वदर्शी दृष्टिकोण के साथ लिखा जाता रहा है। स्वल्प साधनों के अनुरूप उसके प्रकाशन की लँगड़ी−लूली व्यवस्था भी बन ही गई है। यह एकांगी प्रयास हुआ। इसका दूसरा पक्ष था इस सृजन को अधिकाधिक प्रसार विस्तार का अवसर मिलना इस दिशा में जो कार्य हुआ है वह निश्चित रूप से असन्तोषजनक है। ऐसे पाठक बहुत कम है जिन्होंने यह अनुभव किया हो कि इस क्रान्तिकारी चिनगारी को दावानल स्तर तक पहुँचाने के लिए कुछ प्रयास करना युग की आवश्यकता पूरी करने की दृष्टि से हमारा परम पवित्र कर्त्तव्य है। जिनने ऐसा अनुभव किया है उनने थोड़ा प्रयास करके अपने क्षेत्र में युग साहित्य को पढ़ाने−सुनाने एवं फैलाने का प्रयत्न भी किया है। झोला पुस्तकालय एवं ज्ञान−रथ इसी आधार पर चल रहे हैं। बसन्त पर्व पर लोग टोली बनाकर पत्रिकाओं के ग्राहक बढ़ाने का भी अभियान करते हैं। उन्हें इकट्ठी मँगाकर पाठकों तक पहुँचाने और संपर्क साधने का भी प्रयत्न कर सकते हैं। यह सब चलता रहा है, पर मंथर गति से। ऐसे उत्साही भावनाशील व्यक्ति बहुत थोड़ी संख्या में हैं। उन्हीं के प्रयास से युग साहित्य को आगे बढ़ाने और प्रकाश का क्षेत्र विस्तार करने में यत्किंचित सफलता प्राप्त हुई है। इस सफलता पर प्रसन्नता तो व्यक्त की जा सकती है, पर सन्तोष नहीं हो सकता। इतने−बड़े परिवार में युग की आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य में कुछ सौ व्यक्ति ही क्रियानिष्ठ दिखाई पड़े तो स्थिति को खेदजनक ही कहा जा सकता है।

आवश्यकता यह अनुभव की जानी चाहिए कि हममें से प्रत्येक युग−निर्माण घटक अनुभव करें—साथ ही यह उत्तरदायित्व अनुभव करे कि जन−जीवन को उत्कृष्ट बनाकर धरती पर स्वर्ग अवतरण कर सकने में सर्वथा समर्थ इस महान मिशन को सींचते रहने के लिए नियमित श्रमदान मनोयोगपूर्वक किया जाना चाहिए। प्रेरक साहित्य के सृजन वाला पक्ष जितना महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा आवश्यक पक्ष दूसरा है जिसके अनुसार उस प्रकाश प्रेरणा को अधिकाधिक व्यापक बनने का अवसर मिल सके। इस पक्ष का निर्वाह अखण्ड−ज्योति के वे पाठक ही कर सकते हैं जिनने इन किरणों की उपयोगिता एवं सामर्थ्य भली प्रकार समझती है।

स्वयं अखण्ड−ज्योति मँगा लेना—पढ़ लेना और उसे अलमारी में बन्द कर देना—सर्वथा अपर्याप्त है। इस प्रकाश प्रेरणा से कम से कम दस व्यक्तियों को लाभान्वित किया जाना चाहिए। एक भी अखण्ड−ज्योति ऐसी न हो जो कम से कम दस अन्यों के द्वारा न पढ़ी गई हो परिवार के शिक्षित सदस्यों को इस दिशा में अभिरुचि उत्पन्न करनी चाहिए उन्हें पढ़ने की प्रेरणा करनी चाहिए सुनाना चाहिए ताकि जिस घर, परिवार में हम रहते हैं उस उत्कृष्टता के वातावरण का सृजन हो सके। इससे बाहर जहाँ भी अपनी मैत्री, घनिष्ठता अथवा जान−पहचान है उनमें से भी ऐसे लोग ढूँढ़ने चाहिए जिन्हें इस साहित्य को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित—सहमत किया जा सके। ऐसे लोगों तक अपनी पत्रिकाएँ—पुस्तिकाएँ पहुँचाने और वापस लाने का शक्तिभर प्रयत्न करना चाहिए और उस क्रम को नियमित रूप से निरंतर चलाना चाहिए।

यह कार्य आते सरल है—और कठिन भी। सरल इसलिए कि जिन्हें साहित्य पढ़ो के लिए कहा जाता है उन्हें जेब से कुछ खर्च करना नहीं है—कहीं जाना−आना भी नहीं है। घर बैठे एक महत्वपूर्ण लाभ ही मिलने वाला है इसके लिए उन्हें सहमत कर लिया जा सकता है और एक दिन एक ऐसे आदमी से संपर्क बनाकर क्रमशः उन्हें साहित्य देने और लेने का कार्य अपने लिए भी कोई समय साध्य या कष्टकारक नहीं है। अन्यान्य कार्यों के समय ही यह कार्य भी सहज सरल रीति से होता रह सकता है। प्रक्रिया नगण्य सी है, पर उसका लाभ ऐसा है जिसे संसार के सर्वोच्च परमार्थ में गिना जा सके।

यह सरलता की बात हुई। कठिनता इस दृष्टि से है कि लोगों की निकृष्ट स्थिति मात्र उनके निकृष्ट दृष्टिकोण के कारण होती है। उस स्थिति में न तो विचार शक्ति का महत्व विदित होता है और न प्रेरक साहित्य से संपर्क हो सकने वाली चेतनात्मक प्रगति का ही कोई लाभ समझ में आता है। ऐसी स्थिति में लोगों की अभिरुचि ही उस दिशा में नहीं होती। जिस संदर्भ में रुचि ही न हो उसके लिए न उत्साह होता है और न समय लगाते ही बनता है। इसलिए जिनसे कहा जाय—जिन तक साहित्य पहुँचाया जाय वे उसे पढ़ने के लिए तत्परता प्रदर्शित भी करेंगे या नहीं? यह बड़ा पेचीदा प्रश्न है हमें सबसे पहला काम विचारशील लोगों को तलाश करना—उनसे संपर्क साधकर युग साहित्य के प्रभाव परिणाम का महात्म्य विस्तारपूर्वक समझाना प्रथम कार्य है। अभिरुचि उत्पन्न करली जाय तो तीन चौथाई काम पूरा हो जाता है अन्यथा किसी के गले कोई पुस्तक या पत्रिका मढ़ भी दी जाय तो वे उसे इधर−उधर उपेक्षापूर्वक पटक देते हैं। लाभ उठाना तो दूर उस वस्तु को ही खराब कर देते हैं और गँवा देते हैं।

अभिरुचि उत्पन्न करने के प्रथम मोर्चे की लड़ाई में जो जितनी तत्परतापूर्वक लड़ेगा उसका ज्ञान−यज्ञ, विस्तार संकल्प उतना ही सरल हो जायगा। पहले प्रथम चरण उठायें फिर दूसरा। पहले रुचि उत्पन्न करने के लिए कई दिन वार्तालाप जारी रखें और जब थोड़ा उत्साह दिखाई पड़ने लगे तो उन तक साहित्य पहुँचाने का सिलसिला शुरू करें। जो शुरू किया गया है उसे अनवरत जारी रखें। नये व्यक्ति ढूँढ़े। पुरानों में से कुछ अनिच्छुक दीखें तो उनके स्थान पर नयों को ढूँढ़ लें। दस तो कम से कम हों। अधिक तो सौ भी हो सकते हैं। एक दिन में तीन से संपर्क बनाने का—नये व्यक्ति ढूँढ़ने का—सिलसिला जारी रखा जाय तो कोई भी उत्साही व्यक्ति सौ के साथ संपर्क सरलतापूर्वक बना सकता है। दस की बात तो अत्यन्त सरल है।

अखण्ड−ज्योति के प्रत्येक पाठक को जब यह कर्त्तव्य अपने कन्धों पर उठाना ही चाहिए कि उसे अपनी पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें पढ़ाते रहने के लिए दस व्यक्तियों का कार्य क्षेत्र तो अपने हाथ में रखना ही चाहिए। यह क्रम चल पड़े तो इन दिनों जितने ग्राहक अखण्ड−ज्योति के हैं उनसे दस गुने पाठक हो सकते हैं। एक लाख ग्राहक उस प्रकाश को दस लाख पाठकों तक पहुँचाते रह सकते हैं। इस प्रकार अपना प्रसार क्षेत्र—प्रभाव क्षेत्र—कार्य क्षेत्र अगले महीने से ही दस गुना हो सकता है। तद्नुसार मिशन की गतिविधियाँ भी उसी अनुपात से तीव्र हो सकती है।

वंश वृद्धि का यही तरीका सर्वोत्तम है। एक वर्ष तक जिनके साथ संपर्क बनाकर रखा गया है उनसे आशा की जानी चाहिए कि वे परावलम्बन की स्थिति से ऊँचे उठकर स्वावलम्बन के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। मुफ्त में साहित्य पढ़ते रहने की हीन स्थिति त्याग कर अपनी जेब से पैसा खर्च करना सीखें। स्वयं इस साहित्य को मँगाने लगेंगे और फिर वे भी अपने लिए दस व्यक्तियों का प्रसार क्षेत्र निर्धारण करेंगे। इस क्रम से (1)एक से दस (2)दस से सौ (3) सौ से हजार (4)हजार से दस हजार (5)दस हजार से एक लाख वाला क्रम आगे बढ़ता रहेगा। पाँच प्रसार पीढ़ी तक यह प्रक्रिया चलती रहे तो एक से एक लाख हो सकते हैं और वर्तमान एक लाख सदस्य लाख गुने होकर इस पृथ्वी या सुनाने की विधा अपनाकर नवयुग के अनुरूप चिन्तन कर सकने में समर्थ बना सकते हैं अनिश्चित रूप से प्रेरक विचार यदि अन्तःक्षेत्र में प्रवेश कर सकें तो वे क्रियारूप में परिणित हुए बिना रह नहीं सकते। विचार क्रांति ही क्रिया क्रान्ति बनकर सामने आती रही है और भविष्य में आती रहेगी।

अखण्ड−ज्योति परिजनों को इस वर्ष का उद्बोधन है—एक से दस! एक से दस!! एक से दस!!! हमें इस प्रक्रिया पर अपना पूरा ध्यान एकाग्र करना चाहिए और एक दो महीने में ही दस की संपर्क नियमितता का क्रम सुनियोजित बना लेना चाहिए। जब बन जाय तब उन दसों के नाम पते शान्ति−कुञ्ज, सप्त सरोवर हरिद्वार के पते पर सूचनार्थ भेज देने चाहिए ताकि यह जाना जा सके कि किन परिजनों ने इस दिशा में सक्रिय कदम उठा लिए और किन सदस्यों के साथ कितने नये पाठक जुड़ गये। इसका लेखा−जोखा बन सके तो हमें अपने परिवार की और उस परिवार के संपर्क क्षेत्र की एक सुनिश्चित जानकारी मिल जायगी। यह विवरण कितना उत्साह वर्धक और कितना सन्तोषजनक होगा, इसे कहा नहीं जा सकता अनुभव ही किया जा सकता है।

थोड़ा−सा उत्साह, थोड़ा−सा समय दान आदि यदि परिजन करने लगें तो निश्चित रूप से वह थोड़ा सा अनुदान नव−निर्माण अभियान को द्रुतगामी बना सकता है। इस कार्य में केवल शिथिलता एवं अनुत्साह की ही बाधा है। उसे जीता जा सकेगा और अखण्ड−ज्योति परिवार के सदस्य एक क्रान्तिकारी कदम उठा सकते हैं और उसके फलस्वरूप मिशन की लक्ष्य पूर्ति में भारी सहयोग मिल सकता है। यह पंक्तियाँ लिखते हुए इस आशा से हमारी आँखें चमक रही हैं कि जिनने अखण्ड−ज्योति परिवार की सदस्यता इतने समय से ग्रहण कर रखी है वे इतना सामान्य था—किन्तु अत्यन्त उपयोगी कदम उठाने में आना−काना नहीं करेंगे। इस अनुरोध को उपेक्षित नहीं किया जायगा।

उपरोक्त कार्य थोड़ा सा समय दान करने से हो सकता है। युग−निर्माण अभियान की नियमित सदस्यता दो शर्तों पर अवलम्बित है—(1)ज्ञान−यज्ञ के लिए कम से कम एक घण्टा समय प्रतिदिन देना (2)ज्ञान−घट की स्थापना करके उसमें दस पैसा प्रतिदिन ज्ञान यक्ष की सामग्री खरीदने के लिए जमा करना। नया युग−निर्माण साहित्य नियमित रूप से खरीदा जाता रहे तभी यह सम्भव होगा कि प्रसार परिवार के लोगों तक नई पुस्तकें या पत्रिकाएँ पहुँचाई जाती रह सकें। यदि अपने पास मात्र अखण्ड−ज्योति ही रहेगी अन्य कोई साहित्य न होगा तो महीने में एक दो दिन के लिए ही किन्हीं को कुछ पढ़ने दिया जा सकेगा। लगातार के शिक्षण संस्कार की व्यवस्था कैसे बनेगी? यह कार्य ज्ञान−घट अपने यहाँ स्थापित करके उससे दस पैसा प्रतिदिन डालने की बात नित्य कर्म में सम्मिलित करने से ही पूरी हो सकती है। यह दस पैसे प्रतिदिन वाली राशि किसी दान−पुण्य में खर्च नहीं की जानी है, उसका एकमात्र उपयोग अपने घर पर युग−निर्माण साहित्य मँगाते रहने के लिए ही किया जाना है। दस पैसा प्रतिदिन से महीने में तीन रुपये होते हैं। वर्ष में छत्तीस रुपया। इतने की पत्रिकाएँ तथा पुस्तिकाएँ मँगाते रहें तो एक अच्छा घरेलू पुस्तकालय—ज्ञान मन्दिर बनता और बढ़ता चला जायगा। उस सरोवर से कितनों को ही अपनी तपन तृषा बुझाने का अवसर मिलता रहेगा। दस पैसा रोज इन दिनों कुछ महत्व नहीं रखता। इस महंगाई और मुद्रास्फीति के जमाने में इतने पैसे नगण्य से हैं, पर उतने से भी अखण्ड−ज्योति पाठक अपने घर में एक ऐसा उपयोगी पुस्तकालय बनाने एवं बढ़ाने में समर्थ हो सकते हैं जिससे न केवल अपना निजी परिवार वरन् संपर्क क्षेत्र भी आशाजनक उपयोगी प्रेरणाएँ प्राप्त करते रहने में उस संपर्क से चेतनात्मक विकास का अनुपम लाभ उठाते रहने में समर्थ हो सके।

इस प्रकार ही युग−निर्माण योजना की दोनों शर्तें पूरी हो सकती हैं और उनका नाम परिवार के सक्रिय सदस्यों में पंजीकृत रह सकता है। इस प्रकार ही घरेलू ज्ञान−मन्दिर स्थापना करने की—एक से दस को प्रकाश विस्तार होने की—योजना सफल हो सकती है। ज्ञान−घट की स्थापना और दस से संपर्क बनाये रहने की योजना का परस्पर अविछिन्न सम्बन्ध है। ठीक तरह चलेंगी तो दोनों एक साथ ही। यों अकेली अखण्ड−ज्योति को दस को पढ़ाने का कार्य भी किया तो जा ही सकता है और उसका भी कुछ न कुछ लाभ तो हो ही सकता है। न करने से तो कुछ करना ही अच्छा। पर आनन्द उसी में है कि कोई कार्य करना हो तो उसे पूरी शक्ति और पूरी तत्परता के साथ समान रूप से ही किया जाय। ज्ञान−घटों की स्थापना और संपर्क साधना की नियमित व्यवस्था बनाकर ही एक से दस वाला अभियान उत्साह वर्धक एवं प्रभावशाली रीति से चलाया जा सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही युग−निर्माण परिवार की सदस्यता की यह दो अनिवार्य शर्तें रखी गई थीं। जिनने अब तक उस दिशा में समुचित ध्यान न दिया हो, उनके लिए यही समय है कि उस प्रक्रिया का शुभारम्भ तत्काल कर दिया जाय।

सरकारी अल्प बचत योजना के द्वारा बचाये गये पैसा जमा करने की गुल्लकों की तरह ही युग−निर्माण योजना मथुरा द्वारा अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक ताला चाबी सहित ज्ञान−घट बनाये गये हैं। उनका मूल्य भी सरकारी गुल्लकों जितना अत्यन्त सस्ता दो रुपया ही है। उन्हें गायत्री तपोभूमि मथुरा से प्राप्त किया जा सकता है। यों सामान्य डिब्बों में भी दस पैसे जमा करते रहने की बात चलती रह सकती है, पर विधिवत स्थापना अधिक आकर्षक उपयोगी और नियमितता के लिए बाध्य करने वाली सिद्ध होती है। इसलिए प्रयत्न ज्ञान−घटों की स्थापना का ही करना चाहिए। इसमें एक बड़ी कठिनाई यह है कि इनके मँगाने में डाकखर्च भी उतना ही लग जाता है जितना कि उनका मूल्य है। 2)मूल्य और 2)डाकखर्च मिलाकर 4)पड़ते हैं। इसलिए उपयुक्त यही है कि किसी आते−जाते के हाथों मथुरा से इकट्ठे ही उन्हें मँगा लिया जाय। अथवा रेलवे पार्सल से बड़ी संख्या में मँगाया जाय। खर्च तो उसमें भी काफी पड़ता है, पर डाकखर्च जितना नहीं। प्रभावशाली एवं अधिक उत्साही कार्यकर्ता अपने क्षेत्र के सदस्यों के यहाँ ज्ञान−घटों की स्थापना के लिए भी वैसा ही प्रयत्न टोली बनाकर संपर्क स्थापित करने—पूछने और माँग के अनुसार ज्ञान−घट मँगाकर उन तक पहुँचाने का कार्य भी कर सकते हैं। जहाँ जो सुविधाजनक हो वहाँ वैसा किया जाय यह व्यवस्था बुद्धि पर निर्भर है। मूल प्रयोजन पूरा होना ही चाहिए। एक से दस वाले अभियान को गति मिलनी ही चाहिए। युग−निर्माण परिवार की हमारी सदस्यता अधूरी नहीं सर्वांगपूर्ण होनी चाहिए। उसकी दोनों शर्तों का विधिवत् पालन होना चाहिए।

एक से दस अभियान को अग्रगामी बनाकर ही मिशन को अधिक व्यापक एवं अधिक सफल बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में हममें से प्रत्येक को श्रद्धा और साहस भरे कदम बढ़ाने चाहिए। प्रस्तुत अनुरोध इसी आशा और विश्वास के साथ किया गया है कि उसे भावनाशील परिजनों द्वारा निश्चित रूप से कार्यान्वित किया जायगा।


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