मृत्यु और जीवन का अन्तर पुनर्जीवन का प्रश्न

September 1974

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अध्यात्म क्षेत्र में यह असमंजस बहुत पहले से ही छाया हुआ था कि मृतक किसे कहा जाय और जीवित किसे? जिसकी आशा मर गई, जिसका लक्ष्य छूट गया, जिसका प्रकाश बुझ गया वह मृतक है, भले ही वह साँस ले रहा हो—यह प्रतिपादन दर्शन क्षेत्र में सदा ही किया जाता रहा है भले ही वह मृत्यु अलंकारिक रही हो पर कहा यही गया है कि आदर्श विहीन—निरुद्देश्य, भारभूत जिन्दगी से वे मृतक अच्छे हैं जिनने धरती का अन्न−जल नहीं बिगाड़ा और मल−मूत्र से वायुमंडल को गन्दा करना बन्द कर दिया।

यह अलंकारिक प्रतिपादन अब नये ढंग से वैज्ञानिक असमंजस के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। जिन्हें मृतक समझ कर गाढ़ा या जलाया या बहाया जाता रहा है वे जीवित अवस्था में ही कर दी गई थी या मरने के बाद? इस प्रश्न पर नये सिरे से विचार किया जा रहा है। आमतौर से जिन्हें मृतक मान लिया जाता है क्या वे सचमुच ही मर चुके होते हैं? अथवा अधमरे होते ही उनके मूर्छित शरीर से पिण्ड छुड़ाने की तैयारी कर ली जाती है। मृत्यु की व्याख्या क्या होनी चाहिए? जीवित और मृतक का अन्तर किस आधार पर किया जाना चाहिए, यह एक विचित्र किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न शरीर विज्ञानियों के सामने उभर कर आया है।

मृत्यु की जो व्याख्याएँ अब तक की जाती रही हैं वे सभी अपूर्ण हैं। कौन मर चुका, कौन मर रहा है—कौन मरने जा रहा है इसका गम्भीर पर्यवेक्षण होना चाहिए अन्यथा जीवितों के साथ मृतकों जैसा व्यवहार करने की भयंकर भूले चलती ही रहेगी। इस संदर्भ में फ्राँस के प्रसिद्ध क्लिनीशियन प्रो. मोलोरेट ने राष्ट्र संघ के स्वास्थ्य संगठन को एक गम्भीर चेतावनी दी गई कि मृत्यु की व्याख्या के आधार पर नये सिरे से विचार किया जाना चाहिए और मृत्यु को, परम्परागत ढर्रे के आधार पर नहीं वरन् तथ्य आधार पर घोषित किया जाना चाहिए। एक का हृदय दूसरे के लगाते समय यह धर्म संकट उत्पन्न होता है कि जिस व्यक्ति को मृत घोषित करके उसका हृदय निकाला गया था क्या वह वस्तुतः मर ही गया था अथवा जीवित रहते हुए भी मृतक मानकर उसका वह महत्वपूर्ण अंग काट लिया गया था। यदि वह मृतक नहीं था तो उसकी या उसके घर वालों की, वसीयत के विरुद्ध निश्चय ही यह विश्वासघात का अथवा हत्या कर डालने का मामला बन जाता है। भले ही वह हत्या डाक्टरों द्वारा—सदुद्देश्य के लिए ही क्यों न की गई हो।

अब मृत्यु की सुनिश्चित घोषणा सम्बन्धी व्याख्या का प्रश्न पहले की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल और विवादास्पद हो गया है। शास्त्रीय मृत्यु—’क्लिनिकल डेथ’ पहले होती है और जीवन का अन्त—’बायोलॉजिकल डेथ’ की स्थिति उसके बाद में आती है। दोनों के बीच कितने समय का अन्तर रहता है इसका कोई निश्चित नियम नहीं है। वह अन्तर छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी।

प्रख्यात मृत्यु संशोधनकर्ता प्रो. नेगोवस्की ने मृत्यु को चार चरणों में विभाजित किया है। पहला चरण वह है जिसमें श्वाँस की गति और हृदय की धड़कन मंद होती जाती है और अन्ततः बन्द हो जाती है। फिर भी मस्तिष्कीय चेतना किसी रूप में जीवित रहती है। इलेक्ट्रो एन्सेफलोग्राप (ई.ई.जी.) यन्त्र से पता लगाया जा सकता है कि मस्तिष्क पूर्णतया मरा नहीं है वह मंद गति से कई देह−घटकों को संदेश भेज रहा है।

मृत्यु का दूसरा चरण वह है जिसे सेरिब्रल डेथ कहते हैं। इसमें मस्तिष्क शरीरगत अवयवों को अपने संदेश देना बन्द कर देता है। इसलिए शरीर की हलचलें रुक जाती है, फिर भी चेतना का पूर्ण अन्त नहीं होता। मस्तिष्क अपनी सत्ता में केन्द्रित रहता है और शरीर के जीवाणु मस्तिष्क के साथ सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर भी अत्यन्त मंदगति से अपनी हरकतें करते रहते हैं। शरीर का कोई अंग कट जाने पर वह कुछ समय तक उछलता रहता है। यह स्थानीय जीवाणुओं का वैसी ही हरकत है जैसे धक्का मार देने पर पहिया कुछ समय तक अपने आप लुढ़कता चला जाता है। सेरिब्रल डेथ हो जाने के उपरान्त भी शरीर में कई घण्टों तक जीवन के चिह्न पाये गये हैं।

तीसरा चरण है—क्लिनिकल डेथ—शास्त्रीय मृत्यु। इसमें नाड़ी की गति, हृदय की धड़कन, श्वाँस क्रिया रुक जाती है और मस्तिष्क गहरी अचेतना में डूब जाता है। इस स्थिति में भी शरीर विश्लेषण करने पर पता चलता है कि किन्हीं अवयवों में मंदगति से स्थानीय हलचलें चल रही हैं। इस स्थिति में उच्चस्तरीय उपचार से पुनः जीवन को लौटाया जाना सम्भव हो सकता है।

चौथा चरण वह है जिसमें जीवन की समस्त संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। पूर्ण मृत्यु का साम्राज्य छा जाता है और जीवाणुओं का सड़ना, विगठित होना आरम्भ हो जाता है।

मूर्छा शास्त्र (अनेस्थेटिक्स) का नवीनतम शोध मान्यताओं के अनुसार केन्द्रीय मज्जा—तन्त−व्यवस्था (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) से कार्यान्वित होने वाले सभी जीवन सिद्ध करने वाली क्रियाएँ बन्द हो जाने पर भी पूर्ण मृत्यु घोषित नहीं की जा सकती। इन अन्वेषणों के अनुसार हृदय की धड़कन का रुकना, रक्त −संचार बन्द होना, श्वाँस रुकना, नाड़ी चलना बन्द होना, चमड़ी सफेद पड़ जाना, पुतली पथरा जाना, जैसे मृत्यु के प्रख्यात लक्षण वस्तुतः जीवाणुओं की पारस्परिक संघटन का क्षय मात्र है। उसे क्षय चिकित्सा के आधार पर तत्काल रोका जा सकता है। मृतकों को पुनर्जीवित करने में मिली सफलताओं का कीर्तिमान यह है कि मस्तिष्क की क्रियाशक्ति समाप्त हो जाने के तीन दिन उपरान्त तक, श्वसन क्रिया बन्द होने के चौबीस घण्टे बाद तक रोगियों में जीवन के चिन्ह पाये गये और उन्हें फिर सजीव किया जा सका। जर्मनी के जिन दो वैज्ञानिकों ने ऐसे मृतकों को पुनर्जीवित करने में ख्याति प्राप्त की है उनके नाम है—डा. बुशर्ट और डा. रिट्मेअर। इनने यह घोषणा की है कि—सेरिब्रल डेथ—मस्तिष्कीय मृत्यु हो जाने पर भी केन्द्रीय मज्जा—तन्तु संस्थान बहुत समय तक अपना काम करता पाया गया है।

निष्कर्ष यह निकला है कि हृदय प्रभृति महत्वपूर्ण अंगों का निष्क्रिय हो जाना—श्वाँस−प्रश्वाँस, आकुँचन−प्रकुँचन, रक्त भिषरण क्रियाओं का बन्द हो जाना पूर्ण−मृत्यु नहीं है। असल में शरीर पर पूरा कब्जा मस्तिष्क का है। यदि यहाँ के किन्हीं कोशों में तनिक भी जीवन चिन्ह मौजूद है तो उसे कहा जा सकता है और यह आशा की जा सकती है कि चेतना का पुनः प्रस्फुरण करके निष्क्रिय हुए अंग अवयवों को तब तक पुनर्जीवित होने की आशा की जा सकती है, जब तक कि वे सड़ने नहीं लगे हों।

जीवन का अन्त चेतना के अन्त के साथ होता है। सोचने−विचारने या अनुभव करने की चेतना तो क्लोरोफार्म जैसी औषधियों से ही उत्पन्न की जा सकती है। उस स्थिति को मृत्यु तो नहीं कहा जाता। ठीक इसी प्रकार मृत्यु समय में गहरी मूर्छा होने के कारण यदि अवयवों ने काम करना बंद कर दिया है तो इस कारखानों की तालाबंदी के समय मजदूरों की छुट्टी मर कहा जायगा—मृत्यु नहीं। मृत्यु की परख तो चेतना के सभी लक्षण समाप्त हो जाने से ही की जा सकती है क्योंकि जीवन और चेतन वस्तुतः एक ही बात है।

रूस के एक मूर्धन्य वैज्ञानिक ये प्रो. लेव्हलैडो। अणु विघटन के शोध कार्य पर उन्हें 1962 में नोबेल पुरस्कार मिला था। उसी वर्ष वे मोटर दुर्घटना में बुरी तरह घायल हुए शरीर का प्रायः हर अवयव क्षत−विक्षत हो गया। उन्हें बचाने के लिए संसार भर के चिकित्सा शास्त्रियों ने प्राण−प्रण से प्रयत्न किये। तीन महीने वे बेहोश रहे। इस अवधि में चार बार उनके हृदय की गति बन्द रही और कई−कई घण्टों बन्द रही। चारों बार शास्त्रीय मृत्यु घोषित कर दी गई। इतने पर भी यह अनुभव किया जाता रहा कि जीवन कि फिर वापिस लौटाया जा सकता है।

दिमाग में खून की गाँठ बन गई है इसलिए यह बेहोशी रहती है इस निष्कर्ष के उपरान्त कनाडा के न्यूरो सर्जन पेनफील्ड ने दिमाग के आपरेशन की तैयारी की। अन्तिम दर्शन की इच्छा से उनकी पत्नी भेंट के लिए पहुँची। उसने शिर पर हाथ फिराते हुए कहा—”प्रियतम—क्या तुम मुझे पहचानते नहीं हो? तुम सुन तो सकते हो पर इस अवस्था में बोल नहीं पा रहे हो। यदि तुम सुन सकते हो तो चार बार पलक पीट दो मैं समझ लूँगी तुम मुझे पहचानते हो और होश में हो।” मूर्छित पड़े हुए रोगी ने चार बार पलक पीटे। डाक्टरों की टीम ने एक स्वर से माना कि वे होश में हैं और आपरेशन की व्यवस्था रद्द कर दी गई। उनके अन्य उपचार उत्साहपूर्वक किये जाते रहे। वे अच्छे हो गये और छै वर्ष तक भली प्रकार जीवित रहे।

मृत्यु का आक्रमण अकस्मात बिजली टूट पड़ने की तरह नहीं होता उसकी प्रक्रिया धीरे−धीरे सम्पन्न होती है। वृद्धावस्था और रुग्णता वस्तुतः मृत्यु के मंदगति से प्राणी की ओर बढ़ते हुए चरण ही हैं। शस्त्र आघात, विषपान, हत्या−आत्महत्या दुर्घटना जैसे प्रसंगों में अपेक्षाकृत जल्दी मौत होती है तो भी वह अकस्मात नहीं होती है, उसमें भी क्रमिक गति ही काम करती है। भले ही वह तीव्रता के साथ अपना काम जल्दी ही पूरा कर लेती हो।

सुकरात का जहर का प्याला पीना पड़ा। मरते समय के अनुभव वे इस प्रकार बताते रहे कि पैरों और हाथों की ओर से उनकी जान निकल रही है और मृत्यु क्रमशः मस्तिष्क की ओर बढ़ती आ रही है। वे अपने शिष्यों के साथ तब तक वार्तालाप करते रहे जब तक कि अन्य अंग शिथिल होते−होते मस्तिष्क के शिथिल होने की बारी नहीं आ गई।

अपनी मृत्यु की पूर्व घोषणा करने वालों की अनुभूतियाँ भी इसी प्रकार की होती है वे अनुभव करते है कि उनके अंग विलक्षण प्रकार से निर्जीव हो रहे है। उनकी स्वाभाविक और सम्मिलित शक्ति का विचित्र रीति से क्षरण हो रहा है। अन्तःचेतना इस मृत्यु सन्देश को यदि ठीक तरह अनुभव कर सके तो क्रमिक मृत्यु की स्थिति में आवेश रहित व्यक्ति सहज ही मृत्यु का पूर्वाभास पा सकता है और कई बार तो मृत्यु−समय की अवधि तक घोषित कर सकता। ऐसी भविष्यवाणियाँ कइयों ने की भी हैं और वे सत्य भी निकली हैं। यह कोई जादू नहीं है, वरन् अपनी आन्तरिक स्थिति का सही विश्लेषण या निदान मात्र है। ऐसा कर सकना आवेश रहित सन्तुलित व्यक्ति के लिए ही सम्भव होता है। हड़बड़ाने वालों को तो अनेक तरह के आवेश ही बुरी तरह आ घेरते हैं और वे डरने, घबराने, रोने, पीटने के अतिरिक्त और कुछ कर, समझ नहीं पाते।

इन तथ्यों पर दार्शनिक दृष्टि से विचार करने से यह प्रतीत होता है कि जिसकी चेतना जितनी मंद पड़ रही होगी वह उतने ही अंशों में मृतक हो चूका होगा। स्फूर्ति, उत्साह, परिश्रम जैसे शारीरिक और जागरूकता, व्यवस्था, सूक्ष्मदर्शिता जैसी बौद्धिक प्रखरताएँ जिनमें सही ढंग से सही मात्रा में काम कर रही हों उन्हीं को पूर्ण जीवित माना जायगा। आलसी, प्रमाद, निराश, अकर्मण्य, अस्त−व्यस्त और अव्यवस्थित लोग एक विशेष प्रकार के मृतक ही हैं अस्तु उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में असफल ही रहना पड़ता है।

शिथिल मृत्यु जो क्रमशः पके हुए फल की तरह होती है, कठिनाई से ही टलती है। सक्रियता खोते−खोते जीवाणु पहले ही से दम तोड़ते चले आते हैं उन्हें कुछ समय गरम रखा जा सके तो भी सशक्त ता का वापिस लौट सकना सम्भव नहीं होता। किन्तु दुर्घटनाओं से ग्रसित मरणासन्न व्यक्तियों के बारे में ऐसी बात नहीं है। उनके जीवकोष सक्षम थे। दुर्घटना तो अकस्मात ही हुई। ऐसी दशा में यदि आघात के कारण उत्पन्न हुई क्षति को उपचार द्वारा पूरा किया जा सके तो सक्षम कोशिकाएँ पुनर्जीवन धारण करने के लिए आसानी से तत्पर हो जाती है। पानी में डूबने वाले, ठण्ड लगने, बिजली का झटका खाने वाले, सर्प के काटे, दुर्घटनाग्रसित, हार्टफेल होने वाले लोगों की मृत्यु को पुनर्जीवन में वापिस लौट सकना इसी आधार पर अधिक सम्भव रहता है।

सामान्यतया मरण का क्रम इस प्रकार चलता है कि मनुष्य का तापमान गिरता है। 98.4॰ फारन हाइट से गिरते−गिरते वह 1.5 ॰ पर उतर आता है। त्वचा में खून जमने लगता है। स्नायु पहले तो ढीले पड़ते हैं, पर फिर अकड़ने शुरू हो जाते हैं। इसके बाद वे फिर ढीले होने लगते हैं। इन सब परिवर्तनों में प्रायः दो दिन लग जाते हैं। मृत्यु निकट आती चली जा रही है इसका आभास सामान्य स्थिति में, दो दिन पूर्व ही प्राप्त किया जा सकता है; किन्तु विशेष घटनाओं में यह सब बहुत तेजी से भी होता है और कुछ ही घण्टों में सारी प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।

यह तथ्य हमें इस निर्णय पर पहुँचाते हैं कि किसी की दीर्घ सूत्रता, अकर्मण्यता और मनस्विता कितनी ही शिथिल क्यों न हो गई हो—उसके पुनर्जागरण की आशा की जा सकती है। परिस्थितियों की प्रखरता के संपर्क में आकर, तेजस्वी साधनों को अपनाकर निष्क्रिय लोगों को सक्रिय और तथाकथित मृतकों को जीवित किया जा सकता है। जब एक छोटी सी चिनगारी दावानल के रूप में प्रचंड हो सकती है तो कोई कारण नहीं कि मंद चेतना को समग्र जागरूकता के रूप में विकसित परिणत न किया जा सके।

मृत्यु को भारी थकान और गहरी मूर्छा का परिणाम माना जाता है। शरीर की थकान स्थिर नहीं, निद्रा के उपरान्त उसकी क्षति पूर्ति हो जाती है। आत्म−चिन्तन और प्रखर प्रोत्साहन से अन्तःचेतना पर चढ़ी हुई मंदता का भी निराकरण निवारण हो सकता है।

मृतक कौन? जीवित कौन? किस स्तर तक मूर्छित हुए व्यक्ति के पुनर्जीवन की आशा की जा सकती है यह प्रश्न शरीर विज्ञानियों के सामने एक गुत्थी के रूप में प्रस्तुत है। पर अध्यात्म विज्ञान का दृष्टिकोण बिलकुल साफ है जो स्वयं जीवन प्राप्त करने के लिए आतुर है और जिसने प्राणप्रद प्रेरणाओं के साथ संपर्क बना लिया उसे मंदता की मूर्छना से उबरने का अवसर निश्चित रूप से मिलेगा वह अर्ध मृतक की स्थिति त्याग कर, अवश्य ही पूर्ण जीवितों की पंक्ति में खड़ा होगा।


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