धर्मयुद्ध में लड़ने वाले सच्चे शूरवीर

September 1974

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सच्चा शूरवीर वह है जो आत्म−बलिदान की भावना लेकर आगे बढ़ा है। हत्या की कला तो कसाई भी जानता है। बगुला छल−कपट से आये दिन—ढेरों मछली मारता है और भेड़िया कितने ही जीवों का नित्य प्राण हरण करता है। दीमक खाने में तीतर की कुशलता देखते ही बनती है। सर्प तो इनसे भी आगे है। वह अपना आहार न मिलने पर भी दूसरों को मृत्यु के घाट उतार देता है। बिच्छू के कौशल से कौन अपरिचित है। प्राण हरण में किसने कितनी सफलता प्राप्त की इस आधार पर किसी को शूरवीर ठहराने की बात सर्वथा अनुपयुक्त है।

शूरवीर वह है जो अनीति से लड़ता है और उसके लिए दूसरों का प्राण−हरण करने को नहीं; आत्म−बलिदान को प्रधानता देता है। उसे अवाँछनीयता से घृणा होती है। अनीति के आधारों को वह नष्ट करना चाहता है। इसके लिए उसे प्रबल और परिपुष्ट अन्याय के विरुद्ध जूझना पड़ता है। स्पष्ट है कि सदाशयता का पक्ष सदा असंगठित रहा है और दुरभि संधियाँ अपने समर्थकों को संगठित रखती है। इस प्रकार अनीति पक्ष की प्रबलता और नीति पक्ष की दुर्बलता ही बहुत करके देखने आती है। शान्ति की रट लगाने, वाले मैत्री, करुणा के समर्थक अनीति से जूझने में प्रायः हिचकते हैं। फलतः संगठित अनीति क्रमशः अधिक परिपुष्ट और अधिक सफल होती चली जाती है। देव पक्ष की दुर्बलता और असुर पक्ष की प्रबलता एक तथ्य है जो आये दिन आँखों के सामने ही खड़ा रहता है।

इस स्थिति को बदलने के लिए उन साहसी शूरवीरों को आगे आना पड़ता है जो साथी सहायकों की प्रतीक्षा किये बिना—शक्ति सन्तुलन का लेखा−जोखा लिए बिना—अकेले ही आगे बढ़ चलते हैं और अनीति को अपने ही आत्मबल के बलबूते पर ललकारने का दुस्साहस भरा कदम उठाते हैं। प्रत्यक्ष ही इसमें हानि दिखाई पड़ती है। अनीति पक्ष के साधन और सहायक बहुत होते हैं। वे अपने विरोधी को सहज ही भारी क्षति पहुँचा सकते हैं। बहुत करके अनीति का प्रतिरोध करने वालों को बहुत आघात सहने पड़ते हैं और बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं। कई बार तो अनीति मिटाने के स्थान पर वह योद्धा स्वयं ही मिट जाता है।

शूरवीर वह है जो इस वस्तुस्थिति को समझते हुए अपने आपको संकट में फँसाने की पूरी तैयारी, के साथ सोच−विचार कर आगे बढ़ता है। वह जानता है कि अनीति का विरोध किया जा सकता है, पर उसे तुर्त−फुर्त उखाड़ फेंकना उतना सरल नहीं है। संगठित और समर्थ प्रति पक्षी अपने बचाव के लिए और प्रति पक्षी को कुचलने के लिए बुरे से बुरे कदम उठा सकता है। आवश्यक नहीं कि विरोध सफल हो जाय और जिस अनीति का उन्मूलन करने चले थे उसका अन्त हो ही जाय। किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि होना चाहिए कि अन्याय को चुनौती देने के लिए कोई इसलिए आगे बढ़े ही नहीं कि उसमें जोखिम भरा हुआ है। इस जोखिम से जूझने और उस प्रयास में आने वाले कष्टों की पूरी तरह कल्पना कर लेने के बाद भी जिसने बलिदानी वीर की भावना अपनाई, वस्तुतः सच्चा शूरवीर उसी को कहना चाहिए।

अनीति के पैर उखाड़ने में आत्म−बलिदान से बढ़कर दूसरा शस्त्र हो ही नहीं सकता। इससे असुरता की हिम्मत आधी टूट जाती है। निर्बाध और निर्विरोध रीति से कुकृत्य करते चलने वालों का बढ़ता हुआ मनोबल टूटता है और उन्हें सोच−समझकर ही कुकृत्य करने की अकल आती है। विरोध खड़ा हो गया तो जिनके मन में रोष तो था, पर कुछ कर नहीं पा रहे थे—आगे चलने की हिम्मत न होने से चुपचाप बैठे सहन करते थे उनका भी साहस बढ़ता है और आत्म−बलिदानी के समर्थकों की पिछली पंक्ति में वे भी खड़े दिखाई पड़ते हैं, इस प्रकार देव पक्ष क्रमशः समर्थ होता जाता है। अनीति का दम तोड़ने के लिए उसके पक्ष में विरोधी वातावरण का बनना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। आग की छोटी−सी चिनगारी घास के बड़े ढेर को जला कर भस्म कर देती है। अनीति भी घास के ढेर की तरह है जब विरोध और प्रतिरोध की चिनगारियाँ उस पर पड़ने लगे तो समझना चाहिए कि इसकी बढ़ी−चढ़ी विभीषिका का अन्त आ गया।

दीपक स्वयं जलता है उसका जलने का संकल्प और साहस ही सुविस्तृत क्षेत्र में फैले हुए अन्धकार को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है। वस्तुतः शक्ति अन्धकार में नहीं होती समर्थ तो प्रकाश होता है। पाप कितना ही बढ़ा−चढ़ा क्यों न हों उसमें देर तक टिक सकने की—प्रतिरोध का सामना करने की क्षमता नहीं होती। वह तभी तक टिकता है जब तक निर्विरोध और निर्बाध रीति से गुजर होती रहे। असुरता इसलिए नहीं मिलती कि वह वस्तुतः समर्थ होती है। गुण्डा वस्तुतः परले सिरे का कायर होता है। पकड़े जाने पर उसका गिड़गिड़ाना और कातर पुकार करना देखते ही बनता है। उसकी सारी सामर्थ्य इस केन्द्र पर टिकी रहती है कि भले आदमी कहलाने वाले शान्ति के नाम पर कायर बने बैठे रहते हैं और आततायी के विरुद्ध आवाज उठाने से डरते हैं।

इस दयनीय स्थिति को चीरने के लिए जिसने एकाकी साहस सँजोया, उसे सच्चे अर्थों में शूरवीर कहना चाहिए। साथियों की प्रतीक्षा न करके जो अपने आत्मबल को ही पर्याप्त मानता है उसे योद्धा कहना चाहिए। शत्रु को कमजोर और अपने को समर्थ मानकर चलने वाले और प्रतिद्वंद्वी का बात की बात में ढेर करके आने का विश्वास कितने ही लोगों को बहादुर बना देता है। विजय प्राप्त करने का आवेश उन पर छाया रहता है और सफलता सामने खड़ी दीखती है। ऐसी मनःस्थिति में किसी की भी लड़ाकू प्रवृत्ति उभर सकती है और तलवार घुमाता हुआ आगे बढ़ सकता है। यह साधारण सैनिक की बात हुई। सच्चे शूरवीर की आन्तरिक स्थिति इससे कहीं ऊँची होती है वह विजय और पराजय को समान मानकर चलता है। अन्याय के विरुद्ध वह अकेला ही खड़ा हो सका—स्वल्प साधनों के रहते हुए भी समर्थ प्रति पक्षियों के विरुद्ध सीना तानकर खड़ा हो सका; यह दुस्साहस जिसने सँजोया वह वस्तुतः शूरवीर है। विजय माल तो उसके पहले चरण में ही उसके गले में डाल दी गई। उसने अपने शौर्य, साहस और प्रखर आदर्शवाद को प्रामाणित करके मनस्वी महामानवों की पंक्ति में अपने को बिठा दिया।

बढ़ी−चढ़ी अनीति को समूल मिटाने में देर लगती है। उसके लिए बलिदानों की लम्बी शृंखला प्रस्तुत करनी पड़ती है। धैर्य और साहस के साथ लम्बी लड़ाई लड़ने की तैयारी करनी पड़ती है। अनीति को उखाड़ने में वीर बलिदानियों को देर तक जूझना पड़ता है। प्रथम चरण में प्रथम प्रयास में ही इतना बड़ा प्रयोजन सहज ही पूरा नहीं हो जाता है। अन्याय से जूझने वालों में से कितनों को ही स्वयं मिटना पड़ा है ऐसे बलिदानी वीरों को आत्मबल के धनी शहीदों के चरणों पर लोक−श्रद्धा के सुमन सदा ही चढ़ाये जाते रहेंगे। प्रत्यक्षतः वे पराजित और असफल ही रहे, पर परोक्ष रूप से अपनी साहसिकता को इतना सम्मिलित और सफल बना दिया जितना कदाचित वे शत्रु का विनाश करने के उपरान्त भी न हो पाते।

अनीति से जूझने में आवश्यक नहीं कि आततायियों को एक ही झटके में उखाड़ फेंकना सम्भव हो जाय। आवश्यक नहीं कि प्रतिरोध की मशाल जलाने वाले को विजयी कहलाने का श्रेय मिल जाय। यह सब समझते हुए भी—पराजय और विपत्ति की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए भी जो कर्त्तव्य बुद्धि से आदर्शों का पालन करने के लिए समरभूमि में उतरा वह सच्चा शूरवीर है।

शत्रु पक्ष के कितने लोगों को किसने मारा। कितना बड़ा प्रयोजन किसने किस प्रकार पूरा किया यह उतने महत्व की बात नहीं। महत्व इस बात का है कि उस संघर्ष में कितने लोग उच्च आदर्श के लिए आत्म−बलिदान की भावना से आगे आये। ऐसे धर्म युद्ध ही धन्य हैं और धन्य हैं उनमें लड़ने वाले सच्चे शूरवीर।


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