प्रकृति को सफाई पसन्द है। उसे गन्दगी सहन नहीं। जहाँ भी जब भी गन्दगी उत्पन्न होती है वहाँ तुरन्त उसके निवारण−निराकरण के लिए अपने स्वच्छता कर्मचारी भेजती है; जिससे उस उत्पन्न हुई गन्दगी को तत्काल समाप्त किया जा सके।
कोई पशु मर जाय तो उसका शरीर थोड़े समय में सड़ने और बदबू फैलाने लग जायगा। पर प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है कि वह अवाँछनीय स्थिति आने से पूर्व ही सफाई की समुचित व्यवस्था बन जाय। आकाश में मंडराते हुए—गिद्ध, चील, कौए और जमीन पर भ्रमण करते हुए सियार, कुत्ते उस मृत शरीर की गन्ध पाते ही दौड़ पड़ते हैं और सभी उसे खाकर साफ कर देते हैं। सड़ने का समय आने से पूर्व ही सब कुछ साफ कर दिया जाता है। यदि ऐसा न भी हो सके तो उस मृत माँस में कीड़े पड़ जाते हैं और वे उसे खा−पीकर कुछ ही समय में समाप्त कर देते हैं।
हवा चलने का एक प्रयोजन यह भी है कि सड़न कहीं भी जमा न होने पावे। बदबू को उड़ाकर अन्यत्र ले जाया जाय और उस विकृति उत्पन्न करने वाले स्थान को भी शुद्ध प्राण वायु की आवश्यक मात्रा मिल जाय।
भूमि पर रहने वाले अपने मल−मूत्र से गन्दगी उत्पन्न करते रहते हैं। इसे धोना बहाया जाना आवश्यक है। इस प्रयोजन के लिए प्रकृति ने पर्याप्त मात्रा में जल उत्पन्न किया है। धरती पर एक तिहाई जल, दो तिहाई वर्षा बार−बार होती रहती है। जिसका एक प्रयोजन गंदगी को धोकर साफ करते रहना भी है। अग्नि भी यही करती है। सूर्य पिण्ड से अजस्र ऊष्मा का वर्षण अपनी पृथ्वी पर उत्पन्न रहने वाले विकृत कीटाणुओं का शमन करता रहता है। अग्नि की गर्मी से सीलन और सड़न के वातावरण का किस प्रकार परिशोधन होता रहता है यह सर्वविदित है।
पीने का पानी हमें छना हुआ शुद्ध मिले। इसलिए जमीन की छलनी में छनकर हमें कुँओं से शुद्ध जल मिलता है। नदियों का प्रवाह उसमें सम्मिलित गन्दगी को मिटा देता है। भाप बनकर बादलों में शुद्ध जल पहुँचता है और उससे जल−शोधन का अति महत्वपूर्ण कार्य अनायास ही होता रहता है। वृक्ष और वनस्पतियों के अनेकानेक प्रयोजनों में एक अति महत्वपूर्ण कार्य यह भी है कि वे प्राणियों द्वारा छोड़ी गई गन्दी कार्बन गैस को अपने में सोखें, और बदले में स्वच्छ ऑक्सीजन प्रदान करे।
शरीर का निर्माण इस ढंग है कि उसमें प्रतिक्षण उत्पन्न होती रहने वाली गन्दगी का यथासमय तत्काल निवारण होता रहे। फेफड़े श्वाँस छोड़ते हैं—गुदा मार्ग से मल विसर्जन होता है। गुर्दे मूत्राशय मिलकर गन्दे जल को निकालते हैं, त्वचा मार्ग के अगणित छिद्र पसीने द्वारा अपना सफाई कार्य निरन्तर करते रहते हैं। इस खर्च होने वाले जल की पूर्ति पिये हुए जल तथा भोजन में रहने वाले जलाँश के द्वारा होती रहती है। स्नान भी बढ़ी हुई शरीर की ऊष्मा को शान्त करने में बहुत सहायक होता है।
हमारे शरीर में प्रतिदिन प्रायः 2600 ग्राम पानी खर्च होता है। इसका विभाजन इस प्रकार है। गुर्दों से 1500 ग्राम, त्वचा से 650 ग्राम, फेफड़ों से 320 ग्राम और मल मार्ग से 130 ग्राम। इसका सन्तुलन बनाये रखने के लिए कम से कम ढाई किलो पानी पिया ही जाना चाहिए।
बच्चों के शरीर इसलिए कोमल और सुन्दर प्रतीत होते हैं कि उनमें 82.2 प्रतिशत जल रहता है। कोमलता, लचीलापन, फुर्ती, सजीवता, सुन्दरता को इस बढ़े हुए जलाँश के साथ जोड़ा जा सकता है। किशोर अवस्था पार करके जब प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था आती है तो यह जलाँश घटने लगता है अस्तु कठोरता एवं रूखापन भी उसी क्रम में बढ़ने लगता है।
पानी में दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग ऑक्सीजन का सम्मिश्रण होता है। यह दोनों ही गैसें मानव−जीवन को अतीव आवश्यक है। ऑक्सीजन की प्राणप्रद शक्ति सर्वविदित है उसके बिना हमारी थोड़ी ही देर में दम घुट कर मृत्यु हो सकती है। ऐसे बहुमूल्य जीवन तत्व को हम न केवल साँस से वरन् जल के माध्यम से भी प्रचुर परिमाण में ग्रहण करते हैं।
हम प्रायः ऐसा भोजन करते हैं जिसे पचाने के लिए अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। प्रोटीन एवं चिकनाई प्रधान भोजन की तुलना में श्वेतसार एवं शर्करा प्रधान भोजन के लिए अधिक पानी चाहिए, 1 ओंस श्वेत सार को ग्लाइकोजन में बदलने के लिए ओंस पानी चाहिए। नमक एक ओंस खाया जाय तो वह आठ पौंड पानी से पचेगा। मिर्च मसाले एवं शक्कर तो और भी अधिक पानी चाहते हैं।
पानी शरीर में पहुँचकर अपनी विशिष्ट रासायनिक संरचना के अनुरूप पोषण प्रदान करता है। मलों की धुलाई करता है और देह की नमी का आवश्यक सन्तुलन रखता है; ताजगी देता है और विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती रहने वाली गर्मी को ठंडा करता है।
सुबह उठते ही एक गिलास पानी पीना चाहिए जिससे मल विसर्जन तथा खुलकर पेशाब उतरने की सुविधा हो। भोजन करने से आधा या एक घण्टे पूर्व एक गिलास जल पी लेना चाहिए इससे भूख अच्छी तरह लगती है।
भोजन यदि रसीला होगा और अच्छी तरह चबाकर खाया जायगा तो बीच में पानी पीने की जरूरत नहीं पड़ेगी। पर यदि खाद्य−पदार्थ सूखे हैं और उन्हें पूरी तरह चबाया नहीं गया है तो गले से नीचे उतारने के लिए पानी की जरूरत पड़ेगी। ऐसी दशा में एक−एक दो−दो घूँट चार−पाँच बार तक पानी पिया जा सकता है। साधारणतया भोजन के बीच में कम से कम ही पीना चाहिए। खाने के एक घण्टे बाद एक गिलास पानी पीना चाहिए। इसके बाद आवश्यकता के अनुरूप पीते रहना चाहिए। साधारणतया ढाई सेर तो पानी पीना ही चाहिए। रात्रि को सोते समय दूध, छाछ अथवा पानी एक गिलास पीकर ही सोना चाहिए।
कुछ विशेष परिस्थितियों में अधिक पानी पीना चाहिए। बुखार में—लू लगने पर—सुजाक जैसी पेशाब सम्बन्धी बीमारियाँ होने पर—रक्त चाप, हृदय की धड़कन, कब्ज, पेट में जलन जैसी शिकायतें होने पर सामान्य स्थिति की अपेक्षा अधिक जल पीना उचित है।
पानी एकदम पेट में नहीं उड़ेल देना चाहिए वरन् उसे घूँट−घूँटकर इस तरह पीना चाहिए कि मुँह में वह कुछ क्षण रुका रहे उसका तापमान मुँह जितना बन जाय और जीभ आदि की ग्रन्थियों से निकलने वाले स्रावों का उसमें समावेश हो जाय। शरीर के भीतरी तापमान से अधिक गर्म या ठण्डा पानी होगा तो भीतर जाकर गड़बड़ी उत्पन्न करेगा। मुँह में कुछ समय रहने पर जल का तापमान सह्य हो जाता है, इसी प्रकार मुख के स्रावी का समावेश हो जाने से उसकी उपयोगिता कहीं अधिक बढ़ जाती है। एकदम गटक कर बहुत सा पानी एक ही बार में पी जाने की अपेक्षा यह कहीं अधिक उत्तम है कि उसे धीरे−धीरे घूँट−घूँटकर पिया जाय। इस प्रकार पीना अपेक्षाकृत कहीं अधिक लाभदायक है।
पानी की अपनी निज की विशेषताएँ हैं जिसकी पूर्ति चाय, काफी, शरबत, कोकाकोला, सोड़ावाटर, दूध, फलों के रस आदि से नहीं हो सकती। उपयोगी पेय पदार्थ लिए जाँय यह ठीक है पर उन्हें पानी का स्थानापन्न नहीं बना लेना चाहिए। दूध, एवं फलों का रस पीते रहने की बात लाभदायक है, पर इनका प्रयोग करने के कारण जल को सर्वथा नहीं छोड़ देना चाहिए, निस्संदेह पानी में अपने किस्म के रसायन और गुण हैं। शरीर पोषण की दृष्टि से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता है।