इच्छा शक्ति के चमत्कार

February 1967

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मनुष्य की आँतरिक शक्तियों में इच्छा-शक्ति का बड़ा महत्व है। यही वह शक्ति है जो मनुष्य में नव-जीवन और नवीन स्फूर्ति का संचार करती है। जीवन की समग्र क्रियात्मकता इसी शक्ति पर निर्भर है। इच्छा-शक्ति की प्रेरणा से ही मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य में जुटा रहता है। इच्छा का लगाव जिस विषय से हो जाता है, मनुष्य की सारी शक्तियाँ उसी ओर को झुक जाती हैं। इच्छा की तीव्रता विपरीतता में भी अपना मार्ग निकाल लेती है।

जिस समय मनुष्य की इच्छायें मर चुकी हैं, समझना चाहिए कि वह मनुष्य मर चुका है। श्वाँस लेते हुए एक शव के समान ही वह सारे कार्य किया करता है। नष्ट मनुष्य की जिन्दगी में कोई आकर्षण शेष नहीं रहता, कोई रुचि नहीं रहती। अरुचिपूर्ण जीवन का अभिशाप नरक से भी अधिक कष्टदायक होता है। इच्छायें ही जीवन को गति देती हैं, संघर्ष की शक्ति और परिश्रम की प्रेरणा प्रदान करती हैं।

किसी वस्तु की प्राप्ति की लालसा को इच्छा कहते हैं। इस लालसा की तीव्रता को इच्छा-शक्ति कहते हैं। किसी वस्तु के अभाव में जो एक वेदनापूर्ण अनुभूति होती है वही इच्छा की तीव्रता है, जिसकी न्यूनाधिकता के अनुपात से ही इच्छा में शक्ति का सम्पादन होता है।

मनुष्यों की इच्छा अनेकों प्रकार की हो सकती हैं। वे अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती हैं। मनुष्य की इच्छायें उसकी आँतरिक अवस्था की द्योतक हैं। जिस मनुष्य की इच्छायें स्वार्थपूर्ण हैं, वह अच्छा आदमी नहीं। उसकी इच्छाओं में सात्विक शक्ति नहीं होती, जिसके बल पर बड़ी-से-बड़ी उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।

अन्याय एवं अनीतिपूर्ण इच्छायें रखने वाला भले ही किसी संयोग, युक्ति अथवा परिस्थितियों का लाभ उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर ले, तब भी यह न मानना चाहिए कि इसने इच्छा-शक्ति के बल पर अपनी वाँछा को पूर्ण कर लिया है या यों कहना चाहिए कि यह उसकी इच्छा शक्ति की तीव्रता है, जिससे यह अपने लक्ष्य में सफल हो सका है। सफल होने के लिए अनीतिपूर्ण योजनाएं भी सफल होती रहती हैं। इतिहास में ऐसे अनेकों अत्याचारियों, अन्यायियों एवं बर्बरों के उदाहरण पाये जाते हैं, जिन्होंने अपनी अन्यायपूर्ण इच्छाओं को पूरा कर लिया है, साम्राज्य स्थापित किये हैं, विजय प्राप्त की हैं।

कहा जा सकता है कि यह उन अत्याचारियों की इच्छा-शक्ति का परिणाम है कि वे ऐसी-ऐसी विकट विजयों को प्राप्त कर सके हैं। किन्तु यदि वास्तव में तात्विक दृष्टि से देखा जाये तो पता चलेगा कि वे विजयें अत्याचारियों की तीव्र शक्ति का फल नहीं था, बल्कि विजितों की निर्बल इच्छा-शक्ति का परिणाम था। जब किसी एक वर्ग की विजयेच्छा नष्ट हो जाती है तभी आक्रामक की, अनीतिपूर्ण होने पर भी विजय-वाँछा पूर्ण हो जाती है।

अन्यायी की इच्छाओं में स्वयं अपनी कोई इच्छा नहीं होती, वे वास्तव में अहंकार द्वारा ही प्रेरित है। यदि अन्यायी के अहंकार का हरण कर लिया जाये, उसे ध्वस्त कर दिया जाये तो वह विश्व का सबसे निर्बल और निरीह प्राणी हो जाता है। यही कारण है कि अहंकार का उन्माद उतरते ही उसकी सारी शक्तियाँ ठीक उसी प्रकार समाप्त हो जाती हैं, जिस प्रकार नशे की उत्तेजना उतरते ही कोई मद्यप मुर्दे की तरह निर्जीव हो जाता है। उसका सारा जोश-खरोश, वेग-आवेग आदि आन्दोलनपूर्ण क्रियायें खत्म हो जाती हैं और वह एक साधारण-से-साधारण व्यक्ति के हाथ कुत्ते की मौत मारा जाता है।

अनीतिपूर्ण इच्छाओं में कोई स्थायित्व नहीं होता। वे बरसाती नदी की भाँति उफनती हैं और शीघ्र ही ठण्डी पड़ जाती हैं। अन्यायी इच्छाओं से अभिभूत होता है। उनसे उत्तेजित होता है, उसे पूरी करने के लिए व्याकुल रहता है और उनके वेग में एक शक्ति भी अनुभव करता है। किन्तु फिर भी अहंकार का लाख आवरण डालने पर भी वह इस विचार से मुक्त नहीं हो पाता कि उसकी इच्छायें अनुचित हैं। वह स्वयं अपनी दृष्टि में अपराधी बना रहता है और बाहर अन्यों से भी भयभीत रहता है। यही कारण है कि उसकी इच्छाओं में न तो कोई शक्ति रहती और न वे जीवन-लक्ष्य बनकर स्थायित्व प्राप्त कर पाती हैं। प्रतिकूल परिस्थिति आने पर वह इच्छाओं को छोड़ देता है, उनमें परिवर्तन कर लेता है और कभी-कभी तो उनकी भयंकरता से वह जीवन के रणक्षेत्र से ही भाग खड़ा होता है। अत्याचारी अथवा अन्यायी की सफलता वस्तुतः उसकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती बल्कि उसके उस अहंकार की ही परितुष्टि होती है, जिसके आवेग से वह त्रस्त, दुःखी एवं विकल रहता है।

सदिच्छुक का कर्त्तव्य बुद्धि के तर्क विवेक की भर्त्सना अथवा आत्मा के धिक्कार से प्रभावित नहीं होता बल्कि उनका सहयोग पाकर उसकी इच्छायें और भी अधिक बलवती एवं सुनिश्चित हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त आत्म-कल्याण और परोपकार की भावना के कारण वह दिनोंदिन सदाचारी, सच्चरित्र एवं सत्य मूर्ति बनकर दूसरों की सद्भावना, सहयोग तथा सहायता प्राप्त करता हुआ अधिकाधिक शक्ति-सम्पन्न होता जाता है। सदिच्छायें स्वयं शक्तिमती होने के साथ-साथ दूसरों से भी शक्ति संचय करती रहती है।

विरोध करना लोगों का आज स्वभाव बन गया है। यहाँ पर क्या अच्छे कार्य और क्या बुरे, विरोध सबका ही किया जाता है, बल्कि वास्तव में यदि देखा जाये तो पता चलेगा कि बुराई से अधिक भलाई को विरोध का सामना करना पड़ता है। इसका कारण यह नहीं है कि भलाई भी बुराई की तरह ही विरोध की पात्र है,बल्कि समाज की दुष्प्रवृत्तियाँ अपने अस्तित्व के प्रति खतरा देखकर भड़क उठती हैं और विरोध के रूप में सामने आ जाती हैं। चूँकि सत्प्रवृत्तियाँ विरोध-भाव से शून्य होती हैं इसलिए वे बुराई का विरोध करने से पूर्व सुधार का प्रयत्न करती हैं। ध्वंसात्मक न होने के कारण वे बुराई के विरोध को भयंकरता के रूप में उपस्थित नहीं करती, जिससे ऐसा नहीं दीखता कि बुराई का विरोध हो रहा है। दुष्प्रवृत्तियों के उफान को, किसी ध्वंसात्मक संघर्ष को बचाने के लिए सुप्रवृत्तियां किसी सीमा तक उनकी उपेक्षा करती हुई यह प्रतीक्षा किया करती है, कदाचित यह स्वयं सुधर जाये। किन्तु जब ऐसा नहीं होता तो सत्प्रवृत्तियाँ अपने ढंग से आगे बढ़ती हैं और बुराई को दूर करने का प्रयत्न करती हैं। ध्वंसात्मक होने के कारण दुष्प्रवृत्तियाँ, सत्प्रवृत्तियों के विरोध में एक संघर्ष खड़ा कर देती हैं, जिससे सत्प्रवृत्तियों को अधिक विरोध दृष्टिगोचर होता है। इसके विपरीत सत्प्रवृत्तियों द्वारा संघर्ष के स्थान पर सुधार का प्रयत्न करने के कारण बुराई का विरोध होते नहीं दीखता, जबकि सत्प्रवृत्तियों का विरोध अधिक फलदायक तथा स्थायी होता है।

जहाँ तक इच्छाओं का संबंध है, सदिच्छायें ही इच्छाओं की सीमा में आती हैं, इसके विपरीत जो असद् इच्छायें हैं वे वास्तव में इच्छायें न होकर दुष्प्रवृत्तियों का आवेग ही हैं। सद्इच्छाओं की शक्ति अपरिमित है। कोई अच्छा कार्य करने अथवा उदात्त लक्ष्य प्राप्त करने की कामना रखने वाला लाख विरोधों एवं असुविधाओं के होने पर भी अपने ध्येय पर पहुँच ही जाता है।

सदाशयी में एक स्थायी लगन होती है, जिससे वह अपने ध्येय के प्रति निष्ठावान होकर अपनी समग्र शक्तियों को लगाकर प्रयत्न में लगा रहता है। इच्छा एवं प्रयत्न की एकता उसमें एक अलौकिक सहायता-स्रोत का उद्घाटन कर देती है, जिससे उसके प्रयत्नों में निरन्तरता, तीव्रता और अमोघता बढ़ती जाती है और वह क्षण-क्षण ध्येय की और उत्तरोत्तर अग्रसर होता जाता है।

सदिच्छावान् व्यक्ति में आशा, उत्साह, साहस और सक्रियता की कमी नहीं रहती और जिसमें इन सफलता वाहक गुणों का समावेश होगा, असफलता उसके पास आ ही नहीं सकती। असद् इच्छायें जहाँ अपने विषैले प्रभाव से मनुष्य की शक्ति का नाश करती हैं, वहाँ सद् इच्छायें उनमें नवीन स्फूर्ति, नया उत्साह और अभिनव आशा का संचार किया करती हैं।

एक इच्छा, एक निष्ठा और शक्तियों की एकता मनुष्य को उसके अभीष्ट लक्ष्य तक अवश्य पहुँचा देती हैं। इसमें किसी प्रकार के सन्देह की गुँजाइश नहीं।

अन्त भला सो भला

भलाई के कार्यों में यदि कुछ कमी है तो उतनी ही कि उसके फल के परिपाक में कुछ समय लगता है। शुभ कर्म का फल समय के गर्भ में जब तक पक नहीं जाता तब तक उसकी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कम स्वादिष्ट, कम उपयोगी फलों के वृक्ष एक वर्ष में ही काफी बड़े हो जाते हैं किन्तु स्वादिष्ट आम धीरे-धीरे बढ़ता है, काफी समय के बाद फूलता और फल देता है। शुभ कर्मों के फल भी विलम्ब से प्राप्त होते हैं किन्तु उनसे प्राप्त होने वाले आनन्द में आम के फल की तरह कोई संदेह नहीं होता।

भलाई की गति सदैव मन्द, स्थिर एवं शाँत होती है कि किन्तु बुराई का एक छोटा-सा अंकुर भी बड़ी तेजी और बड़े विस्तार के साथ फैलता है। भलाई उतनी तेजी से विकसित नहीं होती। बुराई में जल्दी प्रसारित होने के अवगुण के फलस्वरूप ही वह उत्तेजनापूर्ण होती है और वह बारा-बार, लौट-लौट कर मनुष्य को दुःख देती है। बुराई का फल कभी अच्छा नहीं होता। एक बार का दुष्कर्म अनेक तरह से साँसारिक परिस्थितियों से टकरा-टकरा कर वापस आता है और करने वाले को क्षुब्ध, दुःखी और असन्तुष्ट बनाता रहता है।

बुराई का परिणाम अन्ततः बुरा ही होता है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। जीवन साधकों, समाज सुधारकों एवं विचारकों ने इस गंभीर सत्य का प्रतिपादन सदैव किया है। मनुष्य की जीवनचर्या में भी इस सत्य को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बबूल के वृक्ष में काँटे ही लगते हैं, आम नहीं। बुराई का परिणाम शुभ हो और भलाई का अशुभ यह कभी नहीं हो सकता।

व्यभिचारी व्यक्ति संभव है तत्काल कुछ लाभ उठा लें पर उसे उनका सुख नहीं मानना चाहिए। यह निश्चित है कि वह सुख नहीं भोग रहा वरन् अपना स्वास्थ्य, यश और धन बरबाद कर रहा है। किसी दिन पकड़ा जायेगा तो समाज उसकी भर्त्सना करेगा, दण्ड देगा। ऐसी अवस्था में उसका जीवित रहना भी कठिन हो जायेगा। यह तो रहे दूसरों से मिलने वाले दण्ड। व्यभिचारी की इन्द्रिय-उच्छृंखलता उसे और भी दुःख देती हैं। स्वेच्छाचारी इन्द्रियों से मनुष्य पहले पाप बढ़ाता है बाद में वह इन्द्रियाँ ही उसे खाने लगती हैं। तब उसे घोर दुःख, अपार कष्ट और तीव्र मानसिक बेचैनी होती है।

बुराई का एक छोटा-सा अंकुर भी उपज कर जब बड़ा होता है तो उसमें जो फल लगते हैं वह सब बुराइयों के ही होते हैं। व्यभिचार के परिणाम-स्वास्थ्य की खराबी, अकाल मृत्यु, बीमारी, भय, आशंका, निन्दा, तिरस्कार और सामाजिक दण्ड। गाली देने के परिणाम लड़ाई-झगड़ा, जीवन भर का वैमनस्य, मुकदमेबाजी, क्रोध, उत्तेजना, प्रतिद्वन्दी को नीचा दिखाने की कोशिश में अपनी उन्नति का द्वार अवरुद्ध कर लेना।

चोरी करेगा वह जेल अवश्य जायेगा। पुलिस डण्डे लगायेगी और निगरानी में रखेगी। घर वाले परेशान होंगे हो वे भी अच्छी दृष्टि से नहीं देखेंगे। सार्वजनिक स्थानों में कोई सम्मान नहीं रहेगा। चोर से संबंध रख कर कोई भी प्रसन्न नहीं रहता।

यह नहीं देखना चाहिए कि बुराई से वैभव बढ़ता है। यदि ऐसा हुआ भी तो वह क्षणिक ही होगा। बुराई जल्दबाज होती है। जितनी जल्दी बढ़ती है उतनी ही जल्दी नष्ट हो जाती है साथ ही कर्त्ता को भी नष्ट कर डालती है। आकाश तक फैलती है और अन्त में सिकुड़ कर स्वयं बुराई करने वाले के ही सिर आकर पड़ती है। जिस प्रकार आपके द्वारा उच्चारा हुआ शब्द आगे भी दीवार से टकरा कर पुनः आपके कानों से टकराता है, बुराई बार-बार मनुष्य से टकराती और अन्ततः उसे हैरान करके, या नष्ट करके छोड़ती है। जो वैभव उत्पन्न हुआ था वह तो बिजली की सी कौंध थी, चमक थी और नष्ट हो गई। चोरी में या भ्रष्टाचार में धन मिला और नशेबाजी वेश्यावृत्ति में नष्ट हो गया। जैसे आया वैसे गया। कर्त्ता की सुख शाँति और बरबाद करता गया।

वसिष्ठ के पुत्र प्रचेता की कथा प्रसिद्ध है। एक बार यात्रा करते उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट हो गई जो उनसे विपरीत दिशा में जा रहा था। दोनों के रथ आमने-सामने आ गए। कोई भी अपने रथ को घुमाना नहीं चाहता था। इसमें कहा-सुनी हो गई। प्रचेता बड़े क्रोधी थे। गुस्से में आकर उस व्यक्ति को शाप दें दिया- ‘तू राक्षस हो जा।’ ऋषि-पुत्र के वशीभूत वह राक्षस हो गया और तरह-तरह से प्रजा का उत्पीड़न करने लगा। एक बार उसकी भेंट प्रचेता से हुई। उसे पुराना बैर याद आया। उसने प्रचेता को ही धर-पटका और मार कर ¹ गया।

बुराई कितनी ही छोटी क्यों न हो उसके परिणाम इसी तरह औंधे-सीधे होते हैं। उससे न व्यक्ति का भला होता है न समाज का। बुराई से बुराई ही बढ़ती है और समाज को अधोगामी बनाती है।

लोग अपनी कठिनाइयों का, असफलता का, दुःख, कष्ट और परेशानी का कारण औरों में ढूँढ़ते हैं। दूसरों के मत्थे अपराध मढ़ते हैं। कभी अपनी हार के लिए अपने मित्र को दोष देते हैं या परमात्मा को कोसते हैं पर सच यह है कि मनुष्य का प्रत्येक दुःख, उसकी प्रत्येक पीड़ा असफलता या यातना उसकी अपनी ही बुराई का फल होता है। अपने स्वास्थ्य की खराबी के लिए अपने घर वालों को दोष न दीजिए। असंयम किया है उसका परिणाम भुगत रहे हैं। नशेबाजी की है इसी से शरीर टूटा है, रोज-रोज सिनेमा न देखते तो आंखें यों खराब न होती। आप ढूँढ़िए, आपको अपने कष्ट का कारण आपमें ही मिल जायेगा।

बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं वरन् बुरे विचारों की देन होती है इसलिए वह एक बार में ही समाप्त नहीं हो जाती वरन् स्वभाव और संस्कार का अंग बन जाती है। इस स्थिति में बुराई ही भलाई जान पड़ने लगती है। इसलिए बुरे कामों से बचने के लिए सर्व प्रथम बुरे विचारों से बचना चाहिए। दुष्कर्म का फल तुरन्त भोग कर उसे शाँत किया जा सकता है पर संस्कार हुत काल तक नष्ट नहीं होते। यह जन्म-जन्मान्तरों तक साथ-साथ चलते और कष्ट देते हैं।

बुराई और उसके दुष्परिणामों का बहुत देर तक चिन्तन करना और उनसे बचना बहुत आवश्यक है। जीवन में यह क्रिया आवश्यक है। जिस तरह शरीर, वस्त्र, घर आदि की नित्य सफाई होती रहती है उसी तरह बुरे विचारों का भी परिमार्जन होता रहना चाहिए।

अच्छा तरीका है आप भलाई का स्वभाव बना डालें। भलाई अपने जीवन में घुला लें। भलाई ही आपके जीवन का उद्देश्य बन जाए। भलाई इतनी भली होती है कि वह अपने कर्त्ता को तुरन्त आत्म-संतोष प्रदान करती है। भलाई का आशीर्वाद मनुष्य जीवन में फलीभूत और अपार सुख सम्पदा से ओत-प्रोत कर देता है।

वह एक द्वारा से प्रस्फुटित होती है और अपने अनुदान समेट कर सैंकड़ों दरवाजों से अपने स्वामी की ओर गमन करती है। आप औरों से मीठा बोलिए सारा संसार आपको मित्र सरीखा लगेगा। सब आपकी सहायता को तत्पर रहेंगे। सब आपके पास बैठना चाहेंगे। आप तकलीफ में होंगे तो किसी को बुलाने की आवश्यकता नहीं, यदि आपके पास भलाई की शक्ति है तो वह अपने आप औरों को आपकी सहायता के लिए बुला लेगी। भलाई का अन्त-फल सदैव भला ही होता है।

बुराई व्यग्र करती हुई आम-असन्तोष के रूप में निरन्तर बेचैन रखती है। करने में भी बुरा और अन्त में भी बुरे का बुरा, शराब पीने में भी कड़ुवी और प्रभाव में भी बुरी। चोरी करने में भी भय और घबराहट और करने के बाद भी बेचैनी, परेशानी भय और तिरस्कार। बुरे का फल सदैव बुरा ही होता है ऐसा निश्चयपूर्वक जान लेना चाहिए।

मनुष्य शरीर में जीवात्मा अपने गुणों का रसास्वादन करने धरती पर आती है। वह बुराइयों में भटक जाती है उससे सुख समूल नष्ट हो जाते हैं। भलाई गुणों को सींचने वाला अमृत है। उससे आत्मा को तृप्ति मिलती है ऐसा विश्वासपूर्वक जान कर अच्छे कर्म ही करना चाहिए। बुराई तो सर्वथा त्याज्य है, उसे दूर से ही नमस्कार करना चाहिए।

गृहस्थ-जीवन की वासनात्मक मर्यादा

मनुष्य-जीवन का अर्थ केवल मात्र शरीर और श्वाँस का समागम ही तो नहीं है। यदि जीवन का यही अर्थ रहा होता तो बिना सिर-पैर के जमीन पर रेंगने वाले कीड़ों-मकोड़ों और मनुष्य में कोई अन्तर ही न रहता। जिस प्रकार वे जो कुछ मिलता खाते, पीते, प्रजनन करते और मर जाते। मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। उसे शक्ति, विवेक और सदाचार का अधिकार मिला है। कीटोपम जीवन मनुष्य के लिए न तो योग्य है और न श्रेयस्कर।

मनुष्य-जीवन का अर्थ है शक्तिमान्, व्रतवान् और कर्तृत्ववान बनकर दिनों-दिन उन्नति करना और सत्यं, शिवं, सुंदरम् के रूप में सम्पूर्ण आयु का उपभोग एवं उपयोग करना। जो व्यक्तिगत, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय दिशा में समुन्नत जीवन का प्रयत्न नहीं करता और यों ही बिना जाने जिये चला जा रहा है, वह न पृथ्वी पर भारस्वरूप है, वह न केवल स्वयं ही अपने लिये कष्टकर होता है बल्कि दूसरों के लिए भी अनेक प्रकार से कष्टदायक बनता है। मानव-जीवन का स्वरूप बतलाते हुए वेद भगवान ने कहा है-

समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषियों यानि सत्याः।

सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आवाहि प्रदशश्चतसु॥

-अथर्ववेद

-मनुष्यों को चाहिए कि श्रेष्ठ जनों से उत्तम शिक्षा प्राप्त कर संकल्पवान्, सत्यवान् और सत्कर्मशील बनें। इस प्रकार संसार में उन्नति और कीर्ति प्राप्त करते हुए सदैव प्रसन्नचित्त रहें।

‘सूर रसि वर्चोधा असि तन्पा नोऽसि।

आप्नुहि श्रेयाँसमति समं काम॥’

-अथर्ववेद

-मानव जीवन को सार्थक बनाने के लिए हे मनुष्यों! ज्ञान प्राप्त करो, तेजस्वी बनो और शारीरिक दृष्टि से बलवान बनो। अपनी वर्तमान स्थिति में ही न पड़े रहकर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहो।

मनुष्य को इस उन्नत अवस्था में पहुँचने के लिए साधन, सुविधा तथा अवसर की आवश्यकता होती है। क्योंकि बिना साधनों के आगे बढ़ सकना संभव नहीं और इन साधनों को भी उसे अपने आप अपनी बुद्धि एवं बल के आधार पर उपलब्ध करने होंगे। इस कर्म प्रधान सृष्टि में ऐसा कोई प्रबंध नहीं, ऐसा कोई कल्पवृक्ष नहीं है, जिसकी सहायता से साधनों को यों ही बना बनाया पा लिया जाये। उसके लिए तो उसे स्वयं ही प्रयत्न करना होगा।

उन्नति एवं प्रगति करने का तथा श्रेयस्कर जीवन पाने के लिए जिन साधनों की अनिवार्य अपेक्षा है उनमें भोजन, वस्त्र, व्यवस्था, शाँति एवं संयम प्राथमिक है। इनके अभाव में किसी प्रकार की उन्नति कर सकना तो दूर, साधारण जीवन भी ठीक से नहीं जिया जा सकता। जिस व्यक्ति, राष्ट्र अथवा समाज के पास भोजन वस्त्र की कमी होगी- क्या उससे यह आशा की जा सकती है कि वह बलवान एवं उन्नतिशील बनेगा। अव्यवस्था ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति होती है जो ऊपर उठने में ही बाधक नहीं होती बल्कि ऊपर से नीचे गिरा देती है। चिन्तन-मनन करने के लिये जिस बौद्धिक विकास और मानसिक सन्तुलन की आवश्यकता होती है, वह अशाँति की स्थिति में संभव नहीं। संयम का निर्वाह तभी हो सकता है, जब मनुष्य के विचार निर्विकार, वातावरण अनुकूल और व्यवहार-क्षेत्र के लोग सदाचारी एवं सद्भावी हों, नहीं तो अनुकरण वृत्ति, स्वाभाविक वातावरण और संसर्ग-दोष उसके रहन-सहन में बाधक बनेंगे एवं वाँछित पथ पर आगे बढ़ने से रोकेंगे।

जीवन को सुविकसित व्यवस्थित और सुख-शाँतिमय बनाने के लिए मनुष्य परिवार बसाता है, विवाह करता है और प्रजा-प्रणयन करता है। उसे आशा रहती है कि पत्नी उसकी सेवा-सहायता करेगी, बच्चे अपनी किलकारियों से दुःख-दर्द भुला देंगे और वह निश्चित रूप से कर्त्तव्य करता हुआ, जीवन को धीरे-धीरे विकसित करता हुआ मानव-ध्येय की ओर बढ़ता जायेगा। बच्चे बड़े होंगे, बुढ़ापे में सहायक होंगे जिससे उस अन्तिम चरण में और अधिक निश्चिन्तता और शाँति मिलेगी। इस प्रकार परलोक के लिए साधना करने के लिये पूरा-पूरा अवसर मिलेगा।

आज कितने ऐसे गृहस्थ देखने को मिल सकते हैं जो पारिवारिक जीवन का प्रयोजन पाते हुए शक्तिमान, व्रतवान् और कर्तृत्ववान् बनते हों?

इसका अर्थ यह नहीं कि आत्म-विकास के लिये मनुष्य को घर-बार नहीं बसाना चाहिए और एकाकी ही जीवन नौका को खेते हुए ध्येय तट की ओर ले जाना चाहिए। यदि सभी व्यक्ति यही सोच लें और करने लगें, तो संसार में उतनी व्यवस्था और अवसर भी न दिखाई दें जो आज थोड़ी बहुत, उल्टी-सीधी दिखाई दे रही है। एकाकी जीवन इस पारिवारिक जीवन से भी बुरा और असहनीय सिद्ध हो। मनुष्य एकाकी जीवन से त्रस्त होकर ही घर-बार के जीवन में आया है और जब तक वह परिवार के पावन प्रयोजन को समझता और पूरा करता रहा, उसका आशातीत विकास होता रहा। वह शाँतिपूर्ण वातावरण में व्रतमय जीवन के साथ शक्तिमान् और कर्तृत्ववान् बनता रहा। समाज, संसार और मानवता की सेवा करता हुआ खुद भी उठता रहा और उसको भी उठाता रहा। इस सर्वांगीण सुविधा के कारण ही गृहस्थाश्रम को परम पुनीत आश्रम और सद्गृहस्थ को योगी, यती और तपस्वी कहा जाता रहा। किन्तु खेद है कि आज ही असफल गृहस्थियाँ नरक बनती जा रही हैं और गृह हर दशा में दीन-हीन, निर्बल और दयनीय। मानव जीवन की वर्तमान दुर्दशा में गृहस्थाश्रम का दोष नहीं है। दोष है उन गृहस्थों का जो वैवाहिक जीवन तथा परिवार-व्यवस्था का प्रयोजन भटक कर भूल गये हैं। क्या आज हम सब गृहस्थ जीवन में इस उद्देश्य का पालन करते हैं-

‘इषे राये रमस्व सहसे द्मुम्नऊर्जे अपत्याय।

सम्राऽसि स्वराऽपि सारस्वतौ त्वौ त्सौ प्रावताम्॥’

-यजुर्वेद

-विवाह के बाद पति-पत्नी प्रीतिपूर्वक रहें। विद्यावान् बनें। श्रेष्ठ गुणों को धारण कर एक दूसरे की मंगल कामना करें। धर्मानुसार सुसंतति को जन्म दें। इस प्रकार वे सुखमय जीवन जीते रहें।

आज दुर्भाग्यवश विवाह संबंध को काम-क्रीड़ा का साधन मान लिया गया है। इस अनियमित काम-सेवन का जो दुष्परिणाम होना चाहिए, वह सबके सामने है। ब्रह्मचर्य का अनुचित अपव्यय मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। कुछ ही समय में शरीर जर्जर होकर खोखला हो जाता है। आलस्य, निर्बलता तथा अकर्मण्यता घेर लेती है। परिश्रम व काम से जी घबराता है। ऐसी दशा में मजबूरन काम करना पड़ता है तो हर समय खिन्नता, विपन्नता तथा विषण्णता घेरे रहती है, जिससे चिन्ता, भय, निराशा आदि की मानसिक व्याधियाँ घेर लेती हैं। आरोग्य चला जाता है और मनुष्य या तो शीघ्र मर जाता है या फिर मुर्दों जैसी जिन्दगी ढोया करता है। कमाई का अधिकाँश भाग दवा-दारु और डॉक्टर हकीमों के अर्थ लगाता रहता है।

अनियंत्रित काम-सेवन से पुरुष का ही नहीं नारी का भी स्वास्थ्य चौपट हो जाता है, शीघ्र ही सुन्दरता बुझ जाती है, शरीर ढल जाता है और वह अकाल ही में वृद्धा होकर बीमार रहने लगती है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। घर का काम अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे भोजन-व्यवस्था की जो एक सुविधा रहती है वह भी जाती रहती है। जो कुछ मजबूरन रो धोकर अनुत्साहपूर्वक करती भी है, वह भावना के अभाव में स्वाद एवं स्वास्थ्यहीन हो जाता है। प्रेम, स्नेह और रस रीति के स्थान पर कलह-क्लेश, लड़ाई-झगड़ा, कुढ़न और आवेश की वृद्धि हो जाती है। गृहस्थ-जीवन का पुनीत प्रयोजन भूलकर उसे काम-क्रीड़ा का आधार मानकर एक ब्रह्मचर्य के असंयम से गृहस्थों को यह दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। तब ऐसी दशा में किस अकार आशा की जा सकती है कि व्यक्ति शक्तिमान्, व्रतवान् और कर्तृत्ववान् बनकर ऊंचे उठेंगे और समाज व राष्ट्र को उठायेंगे।

अनियमित काम-सेवन का दूसरा दुष्परिणाम, जो इससे भी भयंकर है, वह है बहुसन्तानोत्पत्ति। मनुष्य का एक अपना ही विकास कर सकना कठिन होता है तब पैदा किए हुए दर्जनों बच्चों का विकास किस प्रकार कर सकता है? उस स्थूल सत्य को एक साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। ब्रह्मचर्य के असंयम से उत्पन्न दुर्बलता तथा अस्वास्थ्य के कारण परिश्रम होता नहीं, काम में जी नहीं लगता, कमाई का अभाव रहता है जिस पर चार-छः बच्चों के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, कार रोजगार का भार बेचारे अभिभावक को चकनाचूर करके रख देता है।

सन्तानों की कमी नहीं और उनको योग्य बनाने के लिए आवश्यक साधनों का दूर-दूर तक पता नहीं, तब भला उन पुत्रों को कुपुत्र बनने से कौन बचा सकता है? उन्हें आवारा होने और अशिक्षित रहने से कौन रोक सकता है? सुयोग्य सन्तान जितनी सुखदायक होती है, उससे सौगुनी दुःखदायी अयोग्य सन्तान होती है। नालायक बच्चों के पिता को कितना कष्ट, लाँछना और उलाहना व अपवाद सहना पड़ता है, यह किसी भी ऐसे व्यक्ति से पूछकर मालूम किया जा सकता है, जिसका एक भी पुत्र आवारा निकल गया हो। शास्त्रकारों ने ‘पुत्रःशत्रुःकुपडितः’ गलत नहीं कहा है। आवारा बच्चों के अभिभावक उसके लिए मौत ही माँगा करते हैं और जो वात्सल्य अथवा भद्रता के कारण उसकी नहीं तो अपनी मौत माँगते सुने जाते हैं।

बच्चों का भार यहीं तक तो सीमित नहीं रहता। आगे उनकी शादी भी करनी होती है। उसकी चिन्ता साँपिन की तरह घेरे रहती है। दिन में भूख नहीं लगती और रात में नींद नहीं आती और यदि कन्याओं की अधिकता हुई, जो कि अति काम-सेवन से सदा सम्भाव्य है, तब तो कष्ट, क्लेश, चिन्ता, विषण्णता का कहना ही क्या? और देशों की तो नहीं कहीं जा सकती, भारत में मनुष्यों की यह दशा होश संभालते ही होने लगती है। असमय आँखें खराब होने लग जाती हैं, दाँत गिर जाते हैं, शरीर सूखकर जर्जर हो जाता है केवल धुँआ-ही-धुँआ शेष रह जाता है। 40-45 तक पहुँचते-पहुँचते जरठ होकर लकड़ी टेकने योग्य हो जाती है। होश संभालने से प्रौढ़ता तक पहुँचते-पहुँचते जब यह दशा हो जाती है तब शक्तिमान्, बलवान् और कर्तृत्ववान् बनकर मानव-जीवन का उच्च ध्येय प्राप्त कर सकने की आशा करना उपहासास्पद ही मानी जायेगी। आज घर-घर में यही हाल है और यही कारण है कि समाज व राष्ट्र की यह दशा हो रही है।

अपने पारिवारिक जीवन में जो इस प्रकार की भूल कर चुके हैं, वे तो सावधानी एवं समयपूर्वक नौका पार लगायें ही, किन्तु अपने बच्चों को यथासंभव ऐसी शिक्षा दें जिससे कि वे ऐसी गलती कर भयानक भ्रम-जंजाल में न पढ़ें।

विवाह किया जाये और अवश्य किया जाये, घर परिवार बसाया जाये। यह मनुष्य का परम धर्म है, किन्तु इस धर्म के अनुसार ही जीवन-यापन किया जाये। दाम्पत्य जीवन के मूल प्रयोजन को समझा जाये। सन्तान उत्पन्न की जाये यह हर दृष्टि से आवश्यक है, किन्तु एक या दो जिससे उनका सर्वांगीण पालन किया जा सके, उन्हें शिक्षित बनाया जा सके जिससे कि शक्तिमान्, व्रतवान्, तथा कर्तृत्ववान् बनकर समाज को सुशोभित कर सके, सुख-सुविधा दे सकें और आत्म-कल्याण का मानवीय लक्ष्य प्राप्त कर सकें।


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