प्रशंसा एवं निन्दा दो ऐसी क्रियायें है जिससे किसी बात का बोधन अथवा निरोधन होता है। प्रशंसा एवं सराहना पाकर हारता हुआ खिलाड़ी बाजी जीतने लगता है। निन्दा का संकेत पाते ही जीत की ओर बढ़ता कदम रुक जाता है।
मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों, वृद्धि अथवा न्यूनता में प्रशंसा एवं निन्दा का बहुत कुछ योग रहता है। कोई लड़का बुराई की ओर बढ़ता है, तभी कोई सज्जन व्यक्ति अथवा उसके अभिभावक उसकी निन्दा कर देते हैं। फल यह होता है कि उसका गिरता हुआ आचरण रुक जाता है। व्यसनों को अपनाने से पूर्व हर मनुष्य उससे डरता है और उसकी प्रवृत्ति उससे विमुख ही रहती है। किन्तु जब उसके साथी तथा आस-पास संपर्क में रहने वाले व्यक्ति किसी व्यसन की प्रशंसा करते और बार-बार प्रोत्साहित करते हैं तो वह व्यसन को अपना लेता है। बार-बार कहने से मनुष्य की प्रवृत्ति तदनुकूल हो उठती है। यह मानव मन की एक सहज दुर्बलता है।
प्रशंसा द्वारा प्रोत्साहन पाकर लोग हंसते-हंसते मृत्यु के गले लग जाते हैं। सराहना की प्रेरणा से लोग सर्वस्व त्याग कर देने को तैयार हो जाते हैं निरन्तर निन्दा से बड़े-बड़े सज्जन एवं सत्पुरुषों का लोकमत बिगड़ जाता है और प्रशंसा पाकर अनुपयुक्त, अयोग्य तथा अकर्मण्य व्यक्ति प्रतिष्ठा पा जाते हैं। निर्वाचन के समय में अधिकतर लोग प्रशंसा एवं निन्दा के आधार पर जीतते-हारते रहते हैं। दोनों बातों में किसी एक का अधिकाधिक प्रचार किसी को जनमत का अधिकारी अनधिकारी बना देता है, निन्दा एवं प्रशंसा में विनाश तथा सृजन की शक्ति होती है। अच्छाई बुराई को बढ़ाने गिराने की क्षमता होती है। सत्य तथा असत्य की स्थापना कर सकने की सामर्थ्य होती है। इसलिए किसी बात की प्रशंसा, निन्दा करने में बहुत सावधान रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि अन्याय हो जाये और उसके लिए पाप का भागी बनना पड़े।
एक बार की घटना है कि एक नौजवान को हत्या के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया गया। फाँसी पर लटकाये जाने से पूर्व उससे पूछा गया कि क्या वह किसी से मिलन चाहता है? अभियुक्त ने अपनी माँ से मिलने की इच्छा प्रकट की। निदान माँ बुलाई गई और वह रोती-बिलखती बेटे के सामने आई।
लोगों का यह समझना कि यह दोनों मिलते हुये माँ बेटे सदा-सर्वदा के लिये अलग होने के शोक से विह्वल होकर बड़ा ही कारुणिक दृश्य उत्पन्न करेंगे। इस भावना से ही वहाँ उपस्थित लोगों के हृदय करुणा से भर कर आर्द्र हो उठे। लेकिन तभी यह देख कर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि वह नवयुवक रोती बिलखती अपनी माँ की ओर देख कर अट्टहास कर उठा और व्यंग्य करता हुआ बोला-’आज जब मैं मौत के मुख में बैठा हूँ तब तू आँसू बहा रही है। यह तेरी ही कृपा है कि मैं हत्या का कलंक लेकर मृत्यु-दण्ड के माध्यम से इस संसार से जा रहा हूँ! यदि तूने पहले ही दिन, जिस दिन मैं पड़ोस के लड़के को पीट कर आया था मेरी भर्त्सना की होती, मेरे उस अनुचित कार्य की निन्दा की होती, बुरा बताया और दण्डित किया होता तो निश्चय ही मेरे कदम इस अपराध की दिशा में नहीं बढ़ते! तूने निन्दा करने के बदले मेरी प्रशंसा की थी! मेरे कर्म को उचित ठहराया था और मेरी पीठ ठोकर दुष्परिणामों के प्रति अभय किया था। यह तेरी उस गलत नीति, अनुचित प्रशंसा तथा अन्यायपूर्ण सराहना का ही नतीजा है कि मैं धीरे-धीरे अपराधी बनता हुआ इस सीमा पर पहुँच गया कि आज हत्या के अपराध में प्राणदण्ड पाकर संसार से जा रहा हूँ! मेरे लिये आँसू बहाने की अपेक्षा कहीं अच्छा है कि तू अपने किए पर पश्चाताप के आँसू बहा। मेरे बिछोह के रूप में तुझे अपनी करनी की पूरी सजा मिल गई इसका मुझे सुख एवं सन्तोष है! ऐसा कह कर नवयुवक ने माँ की ओर से घृणापूर्वक मुँह फेर कर उसे चले जाने को कह दिया!
न जाने कितने अभिभावक वात्सलिक दुर्बलता के कारण बच्चे का मन छोटा न हो जाये-वह कहीं दब्बू और डरपोक न बन जाए इस ख्याल से उसकी गलत बातों की प्रशंसा कर दिया करते हैं। वे नहीं समझ पाते कि उन्होंने बच्चे का मन रख कर जो तात्कालिक आश्वासन अथवा अभय दिया है उसका विषैला प्रभाव बच्चे के दूर भविष्य और निर्माण हो रहे आचरण कर पड़ेगा जिससे उसका बड़े से बड़ा अहित हो सकता है।
अनेक अबोध मित्र घनिष्ठता प्रदर्शित करने के लिए मित्रों की उन बातों की भी प्रशंसा करने लगते हैं जिनकी भरपूर निन्दा की जानी चाहिए। वे नहीं समझते कि वे जो अपने मित्रों की बुराइयों की, उसका मन रखने के लिए, मिथ्या प्रशंसा कर रहे हैं, वह उसे किसी समय भी सर्प बन कर डस सकती है। समाज में अपराधों की वृद्धि होती ही प्रशंसा, सराहना, समर्थन अथवा प्रोत्साहन के कारण यदि हर ओर से बुराई की निन्दा, भर्त्सना तथा आलोचना होती रहे तो कोई कारण नहीं कि उठती अथवा बढ़ती हुई बुराई जहाँ की तहाँ दबकर दफन हो जाये। समाज में कुछ इस प्रकार का उपेक्षा एवं निरक्षेता का भाव बढ़ गया है कि यदि कोई एक सत्पुरुष किसी बुराई की भर्त्सना करने का अपना कर्त्तव्य पूरा करता है तो उसके विपरीत सौ आवाजें उठ कर एक आवाज को दबा देती हैं।
अनेक लोग स्वार्थ एवं द्वेष के वशीभूत होकर लोगों की झूठी प्रशंसा व निन्दा किया करते हैं। ऐसा करते समय में यह नहीं सोच पाते हैं कि वे जो दोष को प्रोत्साहित और गुण को दबाने का प्रयत्न कर रहे हैं यह एक सामाजिक अपराध ही नहीं बल्कि नैतिक अपराध भी है जिसका अशिव प्रभाव उनकी निज की आत्मा पर पड़ेगा, जिसके प्रति फलन में वह बुराई बढ़ कर उन्हें भी आक्रान्त कर सकती है।
एक बार एक समाचार छपा था कि एक लड़की छज्जे से रात के समय धोती लटका कर नीचे उतरती हुई पकड़ी हुई। उससे जब उसकी इस अवाँछनीय तथा आशंकापूर्ण क्रिया का कारण पूछा गया तो उसने बताया कि वह बम्बई जाकर फिल्म ऐक्ट्रेस बनने की लालसा में घर से भाग जाने का प्रयत्न कर रही थी।
उस अबोध लड़की को फिल्म ऐक्ट्रेस बनने के प्रयत्न में आने वाली नैतिक बाधाओं का पता न था और न उसे उन ख्यातिनामा अभिनेत्रियों के गर्हित जीवन के विषय में ही कोई जानकारी थी, जिनको उसने चित्रपट पर देखा, जिनके चित्र बाजार में बिकते और घरों, दुकानों पर टंगे देखे और जन-जन से सुनी थी जिनकी प्रशंसा। अभिनय संसार का जीवन कितना नीरस, कटु, कलुषित, कृत्रिम, प्रदर्शन एवं पीड़ापूर्ण हो सकता है-इसकी उस बालिका को कोई जानकारी नहीं थी। उसके सामने तो अभिनेत्रियों का यह ही रंगीन तथा प्रशंसापूर्ण चित्र था जिसको वह देखा सुना करती थी।
निश्चय ही उसके इस ज्ञान अज्ञान का कारण लोगों द्वारा सिनेमातारिकाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा ही रहा है, जिसने कि उनके नकली चित्र का तो ज्ञान करा कर आकर्षित कराया किन्तु उनकी असली तस्वीर से वंचित रखा। सिनेमातारिकाओं का, चित्रपट पर अभिनीत औपन्यासिक अथवा आदर्श जीवन ही वास्तविक जीवन नहीं है, लोगों की प्रशंसा ने उसे इसका ज्ञान नहीं होने दिया! निदान वह प्रशंसा से प्रभावित होकर सिनेमातारिका बनने के आकर्षण से पागल होकर अनपेक्षित काम करने को उद्यत हो उठी। एक यही लड़की नहीं, न जाने ऐसी कितनी लड़कियाँ और लड़के प्रशंसा से प्रेरित होकर सिनेमातारक-तारिकायें बनने की लालसा से भागते और पथ-भ्राँत होते रहते हैं!
अश्लीलता, अनुशासनहीनता, कृत्रिमता, प्रदर्शन, फैशन एवं अमर्यादा के जो दृश्य आज समाज में विचारवानों के दिल-दिमाग जला रहे हैं उनका बहुत कुछ दायित्व अविद्या एवं अज्ञान पर है किन्तु बहके और भटके बहुमत द्वारा गलत नीति की प्रशंसा पर कुछ कम नहीं है। आज हम सब और हमारे बच्चे अपने चारों ओर सिनेमा संसार की प्रशंसा की ध्वनि सुन रहे हैं और देख रहे हैं कि उनकी नकल करने वाले एक सराहना तथा स्पर्धा की दृष्टि से देखे जाते हैं। स्वाभाविक है यह सब हमारे अपरिपक्व अथवा अनादर्श मन मस्तिष्क पर प्रभाव डालें और हमारी तथा हमारे बच्चों की प्रवृत्तियाँ उस ओर उन्मुख एवं प्रेरित हों। बुराई को अच्छाई सुनते-सुनते हम सब भी उसे अच्छा ही कहने लगे।
कुछ ऐसी हवा ही चल पड़ी है कि आज का जनसमुदाय जहाँ गलत बातों की प्रशंसा करने लगा है वहाँ उचित एवं उदात्त रीति-नीति की निन्दा करने लगा है। इसी विपरीत प्रवाह के प्रभाव में आकर लोगों ने धर्म-कर्म, संयम-नियम, पूजा-उपासना, आत्मा-परमात्मा, सरलता, सादगी, आदि उदात्त गुणों की निन्दा करनी शुरू कर दी है। उन्हें व्यर्थ की अलाभकारी बातें कह कर खिल्ली उड़ाना मानसिक तथा बौद्धिक मनोरंजन बना लिया है। जिसका फल यह हुआ है कि अबोध तथा अस्तित्व रहित जन-साधारण की आस्था इन कल्याण कर्मों पर उसे उठने लगी, जिसका परिणाम, दुराचार, भ्रष्टाचार तथा अनीति अन्याय के रूप में उनके सामने है जिससे वे पिसे तो जा रहे हैं किन्तु समझने तथा सुधार करने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं।
पैसे और पद की प्रशंसा करना तो लोगों ने अपना धर्म बना लिया है। इसी प्रशंसा से प्रेरित होकर लोग किसी भी उचित अनुचित उपायों द्वारा धन तथा पद पाने का प्रयत्न करने लगे, निदान व्यावसायिक तथा राजनीति के क्षेत्र में अवाँछनीय तत्वों की बाढ़ आ गई। शासन से लेकर अनुशासन तक में रिश्वत तथा घूँसखोरी का बोलबाला हो गया। पैसे एवं पद के प्रशंसक धन तथा पदधारियों की उस अनुचित रीति-नीति तथा गतिविधि की निन्दा नहीं करते जिसको वे लक्ष्य सिद्धि के लिए अपनाते चले जा रहे हैं। इस गलत प्रशंसा की प्रवृत्ति ने समाज के सारे नैतिक अस्तित्व को नष्ट-भ्रष्ट कर के रख दिया है। यह निश्चित है कि जब तक हम सब स्वस्थ प्रवृत्तियों की प्रशंसा तथा अनैतिक एवं अवाँछनीय तत्वों की निन्दा करने में न्याय नहीं करते वे समाज को पतन के गर्त से उठाने में सहायक न हो सकेंगे।
हम सबको चाहिए कि हम अपनी प्रशंसा तथा निन्दा का प्रयोग सही दिशा में करें और जिस प्रकार प्रशंसा एवं निन्दा से किसी को अनुचित रूप से प्रभावित करने से अपने को रोकें उसी प्रकार स्वयं भी प्रभावित होने से बचें। हमारी प्रशंसा तथा निन्दा में बहुत बड़ी प्रेरक शक्ति है उसके उपयोग में त्याग एवं सावधानी बरनता हम सबका नैतिक कर्त्तव्य है, जिसका ध्यान रखना आवश्यक एवं कल्याणकारी होगा।