शक्ति और ज्ञान का समन्वय आवश्यक है।

February 1967

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शक्ति ही सारी समृद्धियों का आधार है। भूमि से अन्न उपजाने से लेकर वैज्ञानिक अन्वेषणों तक की सारी सफलता शक्ति पर ही निर्भर है। किसी भी सफलता का अर्जन करने के लिए शक्ति की आवश्यकता है। फिर वह चाहे शारीरिक शक्ति हो अथवा मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक।

शक्ति का अभाव एक प्रकार की निर्जीवता है। निर्बल व्यक्ति जीवन में कोई सफलता पा सकना तो दूर, सामान्य जीवन भी शाँति एवं सन्तोषपूर्वक यापन नहीं कर सकता है। निर्बल व्यक्ति भले ही उसे किसी की ओर से कोई खतरा न हो, अपनी स्वयं की न्यूनता के कारण सबसे डरा-डरा रहता है। दैत्य एवं दरिद्रता निर्बलता के निश्चित फल हैं। इस दयनीय स्थिति में कोई सुख-शाँतिपूर्वक रह सकता है- ऐसा नहीं माना जा सकता। परिश्रम एवं पुरुषार्थ के आधार पर मिलने वाले मीठे फलों का अधिकारी वही है, जो शक्तिमान है।

जहाँ एक ओर शक्तिमान व्यक्ति एक के बाद दूसरा कदम बढ़ाता जाता है, एक लक्ष्य के बाद दूसरा लक्ष्य प्राप्त करता जाता है, वहाँ निर्बल व्यक्ति दिन-प्रतिदिन अपनी स्थिति से नीचे गिरता जाता है। शक्तिमान व्यक्ति जिन-जिन समृद्धियों तथा परिणामों को अपने बल पर अर्जित कर विश्व में श्रेय एवं श्रेष्ठता के भागी बनते हैं, उनको पाना तो दूर निर्बल व्यक्ति उनकी कल्पना तक भी नहीं कर सकता। आपत्तियों का आगमन जहाँ शक्तिशाली व्यक्ति के लिए चेतना एवं प्रयत्न की एक चुनौती होती है व हर्ष, उल्लास एवं विजयश्री का एक अवसर होता है, वहाँ वहीं परिस्थिति निर्बल व्यक्ति के लिए भय, पलायन, पराजय, आँसू और कराह का कारण होती है। निर्बलता जहाँ मनुष्यता को अभिशाप की तरह अधोगति की ओर ले जाती है- शक्ति वरदान की भाँति उसे ऊर्ध्वगामी बनाती है।

समृद्धि एवं सुख-संतोष का आधार होने से शक्ति मनुष्य से लेकर कीट-पतंग तक प्रत्येक प्राणी को स्पृहणीय है। शक्ति के प्रति अनुराग कोई आरोपित भावना नहीं है। वह स्वाभाविक है, जन्मजात है। किसी में शक्तिमान बनने की इच्छा जगानी नहीं पड़ती। चेतना पाते ही प्राणी शक्ति का सुख और निर्बलता के कष्टों को आप-से-आप अनुभव करने लगता है। मनुष्य ज्यों-ज्यों विकास की ओर अग्रसर होता है, शक्ति के प्रति उसका अनुराग बढ़ता जाता है। वह आज जितना शक्तिशाली है, कल उससे अधिक बनना चाहता है, जिस प्रकार शक्ति के प्रति मनुष्य के अनुराग की इति नहीं है, उसी प्रकार शक्ति की भी सीमा नहीं है। दो हाथ, दो पैरों वाला यह छोटा सा मानव कितना शक्तिशाली हो सकता है? इसके साक्षी उसके कर्त्तव्य हैं, जिनको देख-सुनकर चकित रह जाना पड़ता है। जिस प्रकार शक्ति अपार है, उसी प्रकार मनुष्य की पात्रता भी। किन्तु यह पात्रता यों ही प्राप्त नहीं हो जाती उसके लिए प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करना पड़ता है, साधना एवं तपस्या करनी पड़ती है। कोई भी मनुष्य जो कि अपने त्याग, तपस्या तथा प्रयत्न द्वारा शक्ति का जिस मात्रा में मूल्य चुका सकता है, कितना ही निर्बल होने पर भी वह उसी अनुपात से शक्तिशाली बन सकता है।

शक्ति स्पृहणीय है। अपनी, अपनी बुद्धि एवं परिस्थिति के अनुसार उसे संग्रह करने का प्रयत्न भी करते हैं। कोई एक बड़ी सीमा तक हृष्ट-पुष्ट होकर शारीरिक शक्ति जमा करना चाहते हैं। कोई अथक अनुभव तथा चिन्तन-मनन द्वारा बौद्धिक शक्ति का संचय करना चाहते हैं। किन्हीं लोगों का प्रयत्न रहता है कि वे अधिक धन जमा करके अपनी शक्ति का सिक्का जमा सकें। कुछ लोग पद और कुछ लोकप्रियता के द्वारा शक्तिमान बनने के लिए अभ्यास किया करते हैं। अनेक विवेकशील व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो इन सब शक्तियों की शिरमौर चारित्रिक, नैतिक अथवा आध्यात्मिक शक्ति का संग्रह करने के लिये प्रयत्न किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में शक्ति पाना और शक्तिशाली बनना चाहते हैं।

जिस प्रकार शक्ति सारी समृद्धियों का आधार है, उसी प्रकार शक्ति का मूल स्रोत ज्ञान है। ज्ञान के अभाव में शक्ति एवं अशक्तता में कोई अन्तर नहीं रह जाता। जो अशक्त है और शक्ति चाहता है- उसे शक्ति की प्राप्ति केवल चाह के आधार पर ही तो नहीं हो सकती। उसके लिए प्रयत्न करना होगा। प्रयत्न के लिये उसकी दिशा, उसका प्रकार और शक्ति का स्वरूप जानना बहुत आवश्यक है। जब तक मनुष्य को यह ज्ञान न होगा कि वह निर्बल है, उसकी निर्बलता का कारण क्या है, उनके निराकरण के क्या उपाय हैं? उनकी साधना की क्या दिशा है, उसे किस प्रकार की शक्ति श्रेयस्कर है और उसकी पात्रता तथा परिस्थितियाँ शक्ति के किस रूप के योग्य, अनुकूल अथवा अनुरूप हैं, तब तक वह किस प्रकार की शक्ति को लक्ष्य बनाकर उसे प्राप्त करने के लिए उद्योगवान हो सकता है? इस प्रकार अपनी निर्बलता को दूर करने और शक्तिसंचय करने के लिये ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है।

शक्ति, निश्चय ही सुख-शाँति का कारण है, समृद्धि का हेतु है। किन्तु कब? जब उसका सदुपयोग हो। निरुपयोगी शक्ति किसी प्रकार की समृद्धि का सम्पादन नहीं कर सकती। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार निष्कृषित धरती की उर्वरा शक्ति कोई उपज प्रदान नहीं कर सकती। सदुपयोग के अभाव में मनुष्य की सारी शक्तियाँ मूर्छित पड़ी रहती हैं। उसके आधार पर सुख-सम्पत्ति पाने के लिए उनका उपयुक्त होना निताँत आवश्यक है। शक्ति का उपयोग करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान के अभाव में शक्ति का उपयोग किसी प्रकार भी नहीं किया जा सकता। शरीर में शक्ति भरी है, सामने क्षेत्र और साधन उपस्थित हैं, किन्तु जब तक उनके प्रयोग का ज्ञान न होगा शक्ति का उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? इस प्रकार की वह शक्ति अशक्ति ही मानी जायेगी। उपयोग अथवा प्रयोग के अभाव में शक्ति का होना, न होना एक बराबर है।

शक्ति के समुचित प्रयोग का ज्ञान न रखने वाले बड़े-बड़े शक्तिशाली बात-की-बात में असफल एवं अपदस्थ होते देखे जाते हैं। बड़े-बड़े अतिकाय पहलवान जिनके शरीर में प्रचुर शक्ति होती है, प्रयोग ज्ञान के अभाव में अपेक्षाकृत दक्ष प्रतियोगी द्वारा बात-की-बात में चित्त कर दिये जाते हैं। बड़े-बड़े प्रतिभाशाली और प्रभाववान व्यक्ति साधारणजनों से पीछे पड़ जाते हैं। प्रचण्ड शक्ति के स्वामी होने पर अदक्ष सेनापति छोटे-छोटे मोर्चों पर मात खा जाते हैं। असफलता एवं पराजय निर्बलता की द्योतक है। शक्ति होते हुए भी उसके उपयोग के ज्ञान के रहित होने के कारण शक्तिवानों को अशक्तता का कलंक ओढ़ना पड़ता है।

शेर, चीते, हाथी, घोड़े, बैल, भालू आदि मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक बलवान होते हैं किन्तु मूढ़ता के कारण उनकी शक्ति मनुष्य के सम्मुख निष्क्रिय हो जाती है। अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होने पर भी मनुष्य उन्हें अपने वश में कर लेता है और अपने ज्ञान के बल पर उनकी शक्ति का उपयोग कर बड़े-बड़े काम बना लेता है जबकि अज्ञान के कारण वे जानवर अपनी शक्ति का कोई लाभ नहीं उठा पाते। ज्ञान न होने से एक छोटी-सी आपत्ति अथवा आशंका आ जाने से यह प्राणी व्यग्र एवं भयभीत होकर धीरज खो देते और भागने की कोशिश करते हैं। आग, पानी, आँधी, तूफान के अवसर पर इन्हें चीखने और चिल्लाने के सिवाय कुछ नहीं सूझता। उनकी शक्ति, ज्ञान के अभाव में उनके किसी काम नहीं आती। ज्ञान के अभाव में शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं। हवा, पानी आग आदि तत्व विशुद्ध शक्तिरूप ही हैं किन्तु जड़ होने से उनकी अपनी कोई महत्ता नहीं है। उनकी महत्ता तभी स्थापित होती है जबकि उनके साथ मनुष्य के ज्ञान का संयोग होता हो।

ज्ञान शक्ति का सारथी ही नहीं, स्वयं ही शक्ति है। प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य का ज्ञान नगण्य था, जिससे वह प्रकृति की छोटी-मोटी शक्तियों तथा पदार्थों से भय खाता था। उसकी किसी भी अबूझ प्रक्रिया को अलौकिक घटना समझकर उसके प्रति अवनत होकर पूजा करने लगता है। अंधकार, बातूल, आँधी, पेड़-पौधे, पत्थर, पहाड़, धूप-छाँह, गर्त, गह्वर, नदी, नालों आदि न जाने कितनी चीजों के प्रति वह उनकी उपयोगिता अथवा अपनी आध्यात्मिकता के कारण भयजन्य श्रद्धा समर्पित कर पूजा एवं प्रतिष्ठा प्रदान किया करता था। पशु-पक्षियों से ही नहीं अपने जैसे मानवों से भीत रहकर भागा करता था। अज्ञान के कारण सब प्रकार शक्तिमान तथा स्वाधीन होने पर भी उपयोग न कर पाता था और हर प्रकार से अशक्त बना हुआ भयभीत बना रहता था।

पर ज्यों-ज्यों उसने अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति की, उसका भय दूर होता चला गया और उसमें आत्मशक्ति, आत्म-विश्वास एवं आत्माधार की भावना दृढ़ होती चली गई। पहले जिस प्रकृति की साधारण प्रक्रियाओं से उसे भय लगता था, आज उसी प्रकृति पर विजय स्थापित करता चला जा रहा है। ज्ञान-शक्ति के बल पर उसने न केवल प्रकृति के रहस्यों को जाना बल्कि उसकी शक्तियों पर अधिकार स्थापित कर लिया है। जो मनुष्य पहले जल की एक लहर के प्रति भय से अवनत हो जाता था, वह आज ईति भीति जैसी आपत्तियों को ज्ञान-बल के बंधन लगाने में समर्थ हो गया। स्थल, जल तथा वायु पर अधिकार करने के बाद अब वह बाह्य अन्तरिक्ष में अपनी विजय-पताका फहराने का प्रयत्न कर रहा है। जरा-जरा सी बातों से भयभीत होने वाला वही दो हाथ-पैरों वाला मानव अपनी उन्हीं शक्तियों के आधार पर, जो सदा ही उसमें निहित रही हैं, आज जो चमत्कार कर रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। ज्ञान का उदय होते ही उसकी सारी निर्बलता, दीनता, दयनीयता तथा निरुपायता बन्द हो गई है और वह इस सृष्टि का सर्व शक्ति-सम्पन्न प्राणी बन गया है।

कला, विज्ञान, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य आदि क्षेत्रों में ही उसने प्रगति नहीं की बल्कि मानव-मस्तिष्क से लेकर आत्मा तक की खोज कर उस दिशा में आश्चर्यजनक प्रगति की है। उसकी इस चमत्कारी शक्ति का आधार ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मनुष्य को जीवन के विकास, सुख, समृद्धि तथा आत्मोन्नति के लिए शक्ति और शक्ति के लिए ज्ञान का सम्पादन करना चाहिए।

किन्तु सच्चा ज्ञान और वास्तविक शक्ति वही है जो मानव-कल्याण की सम्पादिका हो। ध्वंस की परिस्थितियाँ पैदा करने वाली शक्ति एक पैशाचिक प्रवृत्ति है, उसी प्रकार अकल्याण अथवा आतंक की रचना करने वाला ज्ञान आसुरी है। जिस प्रकार संसार में हर वस्तु के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार ज्ञान अथवा शक्ति अपने उपयोग के अनुसार लाभ-हानि से समन्वित है। जिन ज्ञान-शक्ति को सृजन की दिशा में प्रयुक्त किया जा सकता है, उसे ही विनाश का हेतु बनाया जा सकता है। शक्ति का सम्पादन करते समय यह ध्यान रहने की आवश्यकता है कि उसका उत्पादन दैवी हो, आसुरी नहीं क्योंकि किसी विद्वान ने ठीक ही लि¹ है-’ज्ञान से होने वाले ¹तरों की तुलना अविद्या से होने वाले ¹तरों से नहीं की जा सकती।’


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