इस व्यापक बेईमानी को हटाया और मिटाया जाये।

February 1967

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जिन गुणों के कारण किसी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र का वास्तविक सम्मान एवं उत्कर्ष होता है उनमें ईमानदारी का विशेष स्थान है। अंग्रेजी की एक कहावत है- ‘आनिस्टी इज द बेस्ट पालिसी’- (ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है)। इस कहावत से स्पष्टतः ध्वनि आती है कि जो व्यक्ति सत्य, न्याय तथा ईमानदारी का व्यवहार करता है, किसी काम अथवा क्षेत्र में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। जो नीतिमान है और जिसकी नीति उत्तम होगी, असफलता उसके भाग में कम-से-कम ही आती है।

मनुष्य की सफलता एवं प्रगति अधिकाँश में समाज की सहायता, सहयोग पर ही निर्भर रहती है। कोई कितना ही गुणवान, बुद्धिमान, विद्वान एवं कार्यकुशल क्यों न हो यदि समाज सहयोग करना छोड़ दें, तो उसके गुण किसी काम न आयेंगे। असहयोग के कारण जब समाज उसके गुणों का मूल्याँकन ही न करेगा तब उसकी उन्नति होना किस प्रकार संभव है?

सचाई और ईमानदारी का आचरण करने वाला विश्वसनीय व्यक्ति होता है। सारा समाज उस पर न केवल विश्वास ही करता है, बल्कि किसी-न-किसी अंश तक श्रद्धा भी करता है। ईमानदार दुकानदार के पास ग्राहक खुद दौड़-दौड़कर जाते हैं। ईमानदार कम्पनियों का माल लोग ढूंढ़-खोजकर खरीदते हैं। ईमानदार मालिक को किसी समय भी मजदूरों की कमी नहीं रहती। ईमानदार मजदूरों को घर पर बुलाकर काम पर लगाया जाता है। ईमानदार नौकर घर का अभिभावक बन जाता है और ईमानदार विद्यार्थी कक्षा की शोभा कहा जाता है। ईमानदारी का आदर होना सहज स्वाभाविक है। यह इतना आकर्षक गुण है कि लोगों को अनायास ही अपनी ओर खींच लेता है। ईमानदारी से सच बोलकर अपना दोष बतला और स्वीकार कर लेने पर अपराधी को क्षमा तक कर दिया जाता है। पिता पुत्र पर कितना ही रुष्ट क्यों न हो, गुरु शिष्य पर कितना ही कुपित क्यों न हो और मालिक नौकर को दण्ड देने के लिये तैयार क्यों न बैठा हो किन्तु यदि वह खेदपूर्वक सच बोलकर अपना अपराध स्वीकार कर लेता है तो कुपित पक्ष तत्काल शाँत हो जाता है और रुष्टता प्रसन्नता में बदल जाती है। सत्याचरण अथवा सत्यवादन पर भी यदि कोई क्रोध अथवा किसी अन्य कारणवश दण्ड दें भी बैठता है तो उसकी अन्तरात्मा दुःखी होती है और कहती है कि दण्ड देकर इस सच बोलने वाले के साथ अन्याय किया है। यह होता है सत्य का प्रभाव एवं आदर। ऐसे दिव्य गुण को त्याग कर जो असत्य अथवा बेईमानी का दोष अपनाता है तो वह एक प्रकार से अभाग्यवान ही कहा जायेगा।

समाज में मिथ्याचारी तथा बेईमान व्यक्ति भी सफल एवं समृद्ध होते देखे जाते हैं। किन्तु उनकी समृद्धि का आधार वह बेईमानी नहीं होती जो उनके हृदय में सर्प की तरह बैठी रहती है, किन्तु वह सचाई और ईमानदारी का आडम्बर होता है, जो वे अपने ऊपर डाले रहते हैं। कपट भी ऊपर से सत्य का आवरण ओढ़कर ही सफल होता है। संसार में कोई ऐसा साहसी बेईमान नहीं है और न हुआ ही है, जो सत्य का आवरण ओढ़े बिना अपने को बेईमान घोषित करके सफलता प्राप्त कर रहा हो। यदि कुछ भावुक अथवा भोले लोग घोषित बेईमान के प्रति सहानुभूति रखेंगे तो केवल उसकी इस ईमानदारी के कारण कि उसने अपने सत्य स्वरूप को सचाई के साथ प्रकट कर दिया है।

सत्य सम्मानित होता है और वह असत्य भी जो ईमानदारी का आवरण धारण किये रहता है। किन्तु अन्तर यह है कि सत्य शाश्वत है और सदा सम्मानित रहता है, असत्य अचिरजीवी है। आवरण हटते ही, जिसे कि शीघ्र हटना ही होता है, अपनी अधम स्थिति में पहुँच जाता है और फिर ‘उघरे अन्त न होइ निवाहू’। कालनेमि जिमि रावण राहू॥’ का सिद्धान्त चरितार्थ होता है। छल-कपट का भेद खलने पर समाज के तिरस्कार, अपवाद, अवहेलना, लाँछना, अपमान, घृणा तथा असहयोग आदि का इतनी दूर तक लक्ष्य बनता है कि आखिर नष्ट होकर ही रहता है। नियमों की परिधि में आ जाने पर तो उसे कारागार तक ही यातना सहनी पड़ती है। इस प्रकार मिथ्याचारी को ऐसी कौन सी दुर्गति है, जो उठानी न पड़ती हो।

बेईमान व्यक्ति की समाज से साख उठ जाती है। उसे पग-पग पर सहयोग के लाले पड़ जाते हैं। जहाँ किसी ईमानदार की हानि पर लोग सहानुभूति से आर्द्र हो उठते हैं और अयाचित ही सहायता-सहयोग का हाथ बढ़ाने लगते हैं वहाँ किसी बेईमान के पतन पर लोग हंसते और मनोरंजन करते हैं। सहायता, सहानुभूति अथवा सहयोग के नाम पर दो लातें लगाना चाहते हैं। निस्संदेह बेईमान इसी व्यवहार के ही योग्य होता है, उसे ऐसा व्यवहार मिलना ही चाहिए।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसकी उन्नति एवं प्रगति परस्पर सहयोग पर ही निर्भर है। इस सहयोग की प्रवृत्ति को चिरस्थायी एवं सक्रिय बनाये रहने के लिये ही धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, शासन तथा कानून की व्यवस्था की गई है। अब जो आदमी इनके प्रति ईमानदार रहता है, वह समाज को सुदृढ़ बनाने और उसमें सुख, शाँति एवं सुविधा की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है। इसके विपरीत जो इनके प्रति बेईमानी बर्तता है, निश्चय ही वह समाज को अव्यवस्थित करने और उसके प्रसन्न प्रवाह में कलह-क्लेश एवं कष्ट-कुत्सा का विष घोलने का अपराध करता है। बेईमान व्यक्ति अपनी दुष्प्रवृत्ति से समाज में अविश्वास का वातावरण उत्पन्न करता है। एक की देखा-देखी दूसरा भी बेईमानी करने पर उतारू होने की सोचता है। कोई एक से धोखा पाकर दूसरे पर अविश्वास करने लगता है। इस प्रकार यह अविश्वास एवं विश्वासघात का विष शीघ्र ही सारे समाज में फैल जाता है और समाज का अधःपतन हो जाता है। विश्वास के अभाव में सहयोग, सहायता एवं सहानुभूति का प्रश्न ही नहीं उठता। तब ऐसी विषम स्थिति में क्या व्यक्तिगत और क्या सामूहिक, किसी प्रकार की उन्नति एवं प्रगति नहीं होती है। प्रगति के अवरुद्ध होते ही समाज में उसी प्रकार की असंख्यों विकृतियाँ जन्म लेने लगती हैं, जिस प्रकार की विकृतियाँ रुके हुए पानी में पैदा होने लगती हैं। आज का भारतीय समाज अप्रगतिशीलता से उत्पन्न न जाने कितनी विकृतियों एवं विकारों का रोगी बना मरणान्तक पीड़ा से तड़प रहा है।

एक समय था जब भारतवर्ष की सचाई और ईमानदारी सारे संसार में विख्यात थी। यह कोई प्राग्ऐतिहासिक काल की बात नहीं है, सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय की ही बात है कि लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते थे। लेन-देन में किसी प्रकार की लिख-पढ़ी नहीं की जाती थी। रास्तों में चोर-डाकुओं के भय से चौकी-पहरे की आवश्यकता न होती थी। यह वर्णन इतिहास का सत्य है सो भी उस इतिहास का जो भारतीयों ने स्वयं नहीं लि¹ बल्कि ‘फाहियान’ और ह्वेनसाँग‘ जैसे विदेशी यात्रियों ने अपनी आंख से देखकर लिखी है, जो कि उस काल में भारत का भ्रमण और यहाँ के दर्शन, धर्म और सभ्यता संस्कृ़ति का अध्ययन करने के लिये आये थे। न केवल जनता ही बल्कि शासक सम्राट तक हराम का पैसा ¹ने से घृ़णा किया करते थे। अश्वपति, जनक आदि पौराणिक तथा समुद्रगुप्त विक्रमादित्य, भोज और यहाँ तक कि औरंगजेब व बहादुरशाह जैसे सम्राट परिश्रम पूर्वक पुस्तकें लि¹कर, पं¹ और चटाइयाँ बुनकर तथा टोपी आदि सीकर जन-सामान्य की तरह जो उपार्जित करते थे, उसी से अपने राज परिवार के साथ गुजर-बसर किया करते थे। अनेक राजा तो किसान की तरह अपने हाथ से ¹ती करके जीविका कमाते थे। अपने या अपनों पर जन-कोष की एक पाई ¹र्च करने को वे बेईमानी मानते थे। धरोहर के धन को लोग धर्म की तरह पवित्र मानते थे और अमानत में ¹यानत करना जघन्यतम पाप समझते थे।

भारतवर्ष की सचाई और ईमानदारी इस सीमा तक पहुँची हुई थी। अभी कुछ समय तक ही उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों की ईमानदारी, आदर्श का विषय बनी रही। उन क्षेत्रों में मूल्यवान् से मूल्यवान् वस्तु छूट जाने पर महीनों उसी स्थान पर पड़ी रहती थी उठाना तो दूर, कोई उसे देखता तक न था और यदि कोई ऐसा करता था तो न केवल राजदण्ड ही पाता था बल्कि सामाजिक तिरस्कार का भी भाजन बनता था। अपने सत्य और ईमान के कारण तिब्बत को त्रिविष्टिप (स्वर्ग) का महत्व प्राप्त रहा है। किन्तु अभागे बेईमानों ने वहाँ जा-जाकर अपने पापों का अभिशाप फैला दिया है।

जब तक भारत की सचाई और ईमानदारी सुरक्षित रही राजा-प्रजा दोनों उसका आचरण करते रहे, देश में सुख-समृद्धि की वर्षा होती रही। अकाल, भुखमरी और गरीबी देखने में न आती थी। सभी सुखी और सन्तुष्ट रहा करते थे और यही वह स्थिति थी जिसमें विद्वानों, महात्माओं, शूर-वीरों और आदर्श-पुरुषों का आविर्भाव संभव था, जिन्होंने भारत को जगद्गुरु की पदवी से विभूषित कराया।

किन्तु आज खेद है कि आज वही जगद्गुरु की पदवी से विभूषित भारत भिखारी बन गया है। अन्न एवं आश्रय के लिये परावलंबी होकर संदिग्ध जीवन व्यतीत कर रहा है। यह सब इसी असत्य, आडम्बर, बेईमानी का विषफल है, जो भारतीयों के आचरण में जन-सामान्य से लेकर शासन तक और व्यवसायी से लेकर मजदूर तक में प्रवेश हो गई है।

स्वराज्य-प्राप्ति से पूर्व समझा जाता था कि भारतीयों में यह दुर्गुण विदेशी पराधीनता के कारण उत्पन्न हो गया है। स्वतंत्र होते ही वे पुनः अपने पूर्वकालीन सत्याचरण पर आ जायेंगे। किंतु सत्य यह है कि आज स्वाधीनता की स्थिति में यह दोष पराधीनता काल की तुलना में सैकड़ों गुना बढ़ गया है। आज स्थिति यहाँ तक सोचनीय हो गई है कि चोर बाजारी, भ्रष्टाचार, रिश्वत, मिलावट, घट तोल, मुनाफाखोरी, मक्कारी, प्रवश्चना, ठगी आदि को दोष नहीं व्यावसायिक चतुरता एवं कुशलता समझा जाने लगा है। भारतीयों के अल्प पतन ने तो उन्हें हजारों साल गुलाम रखा है, तब यह व्यापक, भयानक एवं सर्वक्षेत्रीय पतन उन्हें किस दुर्दशा में पहुँचा देगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। यह प्रश्न किसी भी देशभक्त एवं विचारशील व्यक्ति की नींद हरे बिना नहीं रहता। आज व्यावसायिक, धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, शासकीय, प्रशंसनीय जिधर भी दृष्टि जाती है भ्रष्टाचार एवं बेईमानी दिखाई देती है। कुछ समझ में नहीं आता कि इस पतन के लिये उत्तरदायी किसे बनाया जाये?

आज हम सबको अपने अन्दर टटोलकर देखना चाहिए कि हम स्वयं अपने आचार-विचार में कहाँ तक ईमानदार हैं। हमें अपने अन्दर की सारी बुराई स्वयं ही निकालनी होगी और तब ही हम सब सामूहिक रूप से इस पापपूर्ण अभिशाप से मुक्त होकर सुख-शाँतिपूर्ण वह जीवन बिता सकने के योग्य होंगे, जिसको मानवीय जीवन कहा जा सकता है अन्यथा आज का अमानवीय जीवन किसी भी दिन पैशाचिक जीवन में बदलकर हम सबको आदमी से बदलकर न जाने क्या बना देगा?


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