मानसिक शक्ति नष्ट न होने दीजिये।

February 1967

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‘विपर्यय’ संसार का स्वाभाविक नियम है। दो विपरीत भावों को लेकर इसकी रचना की गई है। रात-दिन, आलोक-अंधकार, धूप-छाँह, उदय-अस्त, जीवन-मरण, परिश्रम-विश्राम, निद्रा और जागरण एक अनादि, अविच्छिन्न क्रम का दूसरा नाम ही संसार है। जिस प्रकार संसार इस प्रतिभावात्मक क्रम के अंतर्गत गतिशील है, उसी प्रकार इसका परिणाम भी प्रतिभावात्मक ही है। सुख और दुःख संसार के केवल मात्र दो फल हैं। विविध रूपों और प्रकारों से प्रत्येक प्राणी इन फलों का स्वाद लेता हुआ जीवन यापन कर रहा है।

यद्यपि सुख और दुःख संसार के दो फल है तथापि देखने में यही आता है कि अधिकतर लोग दुःखपूर्ण जीवन ही व्यतीत कर रहे हैं। हजारों में कदाचित हो कोई एक व्यक्ति ऐसा मिले, जो वास्तविक रूप में सुखी कहा जा सके। संसार में सुख होते हुए भी मनुष्य जो उससे वंचित दीखता है, उसका प्रमुख कारण उसकी अपनी मानसिक कमजोरी है। बाह्य परिस्थितियाँ मनुष्य को उतना परेशान नहीं करती जितना कि वह अपनी आन्तरिक दुर्बलता से दुःखी और व्यग्र होता है।

सुख-दुःख का अपना कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। इनका उदय एक-दूसरे के अभाव में ही होता है और इन दोनों का उदय-स्थल मनुष्य का मन है। जिस समय मन प्रसन्न और प्रफुल्ल होता है, संसार में चारों ओर सुख-ही-सुख दिखाई देता है। इसके विपरीत जब मन विषाद और निराशा से घिरा होता है तो हर दिशा में दुःख के ही दर्शन होते हैं।

अस्तु, दुःख से बचने के लिये मन को सदा प्रसन्न, प्रफुल्ल, उत्साह और आशापूर्ण बनाये रखना आवश्यक है। प्रत्येक अनुभूति का मूल केन्द्र ‘मन’ जितना ही अधिक सबल सशक्त होगा मनुष्य उतना ही सुखी और सन्तुष्ट रहेगा।

यदि अनुपात लगाकर देखा जाये तो ज्ञात होगा कि सुख की अपेक्षा मनुष्य दुःख ही अधिक भोग रहा है। इसका कारण यह नहीं है कि संसार में सुख की अपेक्षा दुःख अधिक है, बल्कि इसका कारण यह है कि मनुष्य ने अपनी दशा को दुःख के अनुकूल बना लिया है।

साँसारिक क्रम के अनुसार मनुष्य पर परेशानियों, कठिनाइयों और मुसीबतों का आना कोई अचम्भे की बात नहीं है। परेशान करने वाली परिस्थितियाँ सबके सम्मुख आती हैं और सभी को उनसे निपटना पड़ता है। अब यह एक भिन्न बात है कि कोई आई हुई विपत्ति पर विजय पा लेता है और कोई उनसे दबकर कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करता रहता है।

आई हुई विपत्तियों को अपने पर हावी न होने देकर जो शाँत चित्त और स्थिर बुद्धि से उनके निराकरण का प्रयत्न करता है, वह शीघ्र ही उन्हें दूर भगा देता है। किन्तु जो व्यक्ति किसी विपत्ति की संभावना अथवा उसके आने पर घबराकर अशाँत और उद्विग्न हो उठता है तो उसका सारा जीवन ही कटुतापूर्ण हो जाता है।

अशाँत और उद्विग्न रहने वाले व्यक्ति के भाग्य से जीवन के सारे सुख उठ जाते हैं। उसके विकास और उन्नति की सारी संभावनायें नष्ट हो जाती हैं। निराशा और विषाद उसे रोग की तरह घेर लेते हैं। न उसे भोजन भाता है और न नींद आती है। जरा-जरा सी बात पर कुढ़ता, चिढ़ता और खीजता है। बड़ी-बड़ी अप्रिय एवं अस्वास्थ्यकर कुँठाओं से उसका हृदय भरा रहता है।

अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि मानसिक अशाँति मनुष्य के स्नायु संस्थान पर अनुचित बोझ डालकर उसे निर्बल बना देती है, जिससे विश्राम करने की अवस्था में भी उसे आराम नहीं मिलता। चिन्तित एवं उद्विग्नचित व्यक्ति गहरी नींद न आने के कारण जब सोकर उठता है, तो ताजगी और स्फूर्ति के स्थान पर भारी थकान अनुभव करता है। घण्टों तक उसका शरीर उसके कब्जे में ही नहीं आता। आलस्य, शैथिल्य एवं निर्बलता आदि उसको बुरी तरह से दबाये रहते हैं। इस प्रकार कष्टपूर्ण दिन बिताने के कारण उसका स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है और आयु घट जाती है। मानसिक अशाँति को मानव-जीवन का जीता-जागता नरक ही कहना चाहिए।

जिस प्रकार शरीर में ताप की अधिकता हो जाने से ‘ज्वर’ नामक रोग हो जाता है उसी प्रकार अधिक चिंतित और उद्विग्न रहने वाले व्यक्ति को अशाँति और एवं चिन्ता का मानसिक रोग उत्पन्न हो जाता है। मानसिक अशाँति एक ऐसा आँतरिक आँदोलन है, जिसके उठने से मनुष्य के सारे विवेक, विचार एवं ज्ञान नष्ट हो जाते हैं। उसकी बुद्धि असन्तुलित हो जाती है, जिसके फलस्वरूप वह अशाँति के कारणों का निराकरण कर सकने में सर्वथा असमर्थ रहता है और यदि उद्विग्न अवस्था में कोई उल्टे-सीधे प्रयत्न करता भी है तो उसके परिणाम उल्टे ही निकलते हैं। एक आपत्ति से छूटकर दूसरी में पड़ जाना, विषाद से छूटकर निराश हो उठना, क्रोध से छूटकर शोक और शोक से छूटकर भय के वशीभूत हो जाने का एक क्रम-सा बन जाता है। मानसिक असन्तुलन एक प्रकार की विक्षिप्तता हो होती है, जिसमें फंसकर मनुष्य किसी योग्य नहीं रहता। हर समय दुःखी, चिन्तित और परेशान रहना उसके जीवन क्रम का एक विशिष्ट अंग बन जाता है।

कोई कठिनाई अथवा आपत्ति अपने में उतनी भयंकर नहीं होती जितना कि उसे उसकी मानसिक अशाँति जटिल और दुरूह बना देती है। आपत्तियों से छूटने का उपाय चिन्ता, भय, निराशा, आशंका आदि की प्रतिगामी भावना नहीं है बल्कि साहस, धैर्य और उत्साह की वृत्तियाँ ही होती है।

मानसिक अशाँति मनुष्य के शरीर में एक भयंकर उत्तेजना में रहने वाले व्यक्ति के रक्त में विषय का प्रभाव हो जाता है, जो रक्त के क्षार को नष्ट करके गठिया, यक्ष्मा आदि भयंकर रोगों में प्रकट होता है।

मानसिक अशाँति एक भयंकर आपत्ति है। मनुष्य को हर संभव उपाय से इससे बचते रहने का प्रयत्न करना चाहिए। विपत्तियों से घबराने, भयभीत होने, उनसे भागने अथवा उन्हें लेकर चिन्तित होने से आज तक कोई व्यक्ति छुटकारा न पा सका है। बहुधा देखा जाता है कि जो जितना अधिक चिन्तित और अशाँत रहता है, वह और अधिक विपत्ति में फंसता है। इसके विपरीत जो शाँतचित्त, सन्तुलित मन और स्थिर बुद्धि से उनका सामना करता है, परेशानी उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं पाती। विपत्ति आने पर मनुष्य अपनी जितनी शक्ति को उद्विग्न और अशाँत रहकर नष्ट कर देता है, उसका एक अंश भी यदि वह शाँत चित्त रहकर कष्टों को दूर करने में व्यय करे तो शीघ्र ही मुक्त हो सकता है।

आपत्तियों के आने पर घबराना नहीं चाहिए बल्कि धैर्यपूर्वक उनको हटाने का उपाय करना चाहिए। अधिकतर लोग कठिनाइयों को पार करने का मार्ग निकालने के बजाय अपनी सारी क्षमताओं का व्यग्र और विकल होकर नष्ट कर देते हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर ‘क्या करें’, ‘कहाँ जायें’, ‘कैसे बचें’ आदि विर्तकना करते हुए बैठे रहते हैं, जिससे आई हुई विपत्ति भी सौगुनी होकर उन्हें दबा लेती है।

जीवन में जो भी दुःख-सुख आए उसे धैर्यपूर्वक तटस्थ भाव से सहन करना चाहिए। क्या सुख और क्या दुःख दोनों को अपने ऊपर से ऐसे गुजर जाने देना चाहिए जैसे वे कोई राहगीर हैं, जिनसे अपना कोई संबंध नहीं।

मनुष्य की मानसिक शाँति और बौद्धिक सन्तुलन दो अमोघ शक्तियाँ है, जिनके बल पर विकट-से-विकट परिस्थिति का भी सामना किया जा सकता है। विपत्तियाँ आती हैं और चली जाती हैं, परिस्थितियाँ बदल जाती हैं। किन्तु जो व्यक्ति इनका प्रभाव ग्रहण कर लेता है वह मानसिक अशाँति के रूप में आजीवन बनाये रहता है और ऐसे मनुष्य के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल फल ही उत्पन्न करती हैं। इस तरह न केवल दुःख अपितु सुख की अवस्था में भी वह दुःखी रहता है।

जीवन को सुखी और सन्तुष्ट बनाये रखने के लिए मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक अवस्था में अपनी मानसिक शाँति को भंग न होने दें, इसकी उपस्थिति में सुख और अभाव में दुःख की वृद्धि होती है।

विकास की पृष्ठ भूमिका-जिज्ञासा

पाश्चात्य देश पिछली शताब्दी से विज्ञान में तेजी से प्रगति करते जा रहे हैं। हजारों प्रकार के ऐसे उपकरणों का तत्वों का, उन्होंने अन्वेषण किया है जो आज लोगों को बड़े आश्चर्य के रूप में दिखाई दें रहे हैं। विज्ञान की उन्नति ने ही इन देशों को धन और साधन सम्पन्न बना दिया है। इसका श्रेय किसी देवी शक्ति को न देकर उन लोगों की सूझ-बूझ को देना ही उचित लगता है।

उन्होंने इतनी उन्नति कर ली और हम अभी निम्न श्रेणी में ही पड़े हैं यह एक प्रश्न है जो हमें बार-बार कारण की खोज करने को विवश करता है। हमारे देश में प्राकृतिक साधनों की कोई कमी नहीं, मनुष्यों का अभाव भी नहीं है। लोग चाहें तो अपनी वर्तमान स्थिति से ऊंचे उठ कर स्वयं भी उस वैज्ञानिक प्रगति और धन सम्पन्नता की श्रेणी में पहुँच सकते हैं जो पाश्चात्य देशों को उपलब्ध है। किन्तु कुछ कमी है जो हमारी प्रगति में बाधक है और हमें वर्तमान स्थिति से ऊंचे नहीं उठने देती है।

वैज्ञानिक प्रगति पाश्चात्य देशों की विरासत नहीं है। भारतवर्ष किसी समय उसकी पराकाष्ठा तक पहुँचा था, इससे यह स्पष्ट है कि कोई भी देश इस क्षेत्र में ऊंचे न उठ पाने के लिए प्रतिबंधित नहीं है। ज्ञान हो तो एक से एक बढ़कर आविष्कार और अन्वेषण यहाँ भी किए जा सकते हैं और हर तरह की भौतिक समृद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी चेष्टा करना धर्म की दृष्टि से भी कुछ बुरा नहीं है। भौतिक समुन्नति भी अध्यात्म का ही एक अंग है। हमारा आर्ष इतिहास यह बताता है कि जिन दिनों यहाँ धर्म-तत्व का जागरण पूर्णता की स्थिति में था उन दिनों भौतिक दृष्टि से भी यह देश आज के अमेरिका, ब्रिटेन आदि से भी बढ़-चढ़ कर था। परिष्कृत अध्यात्म का लक्षण है भौतिक समृद्धि। धर्म और उसके बिना अधूरा है। साधनों के अभाव में अध्यात्म फल-फूल भी तो नहीं सकता।

जब कोई देश नया आविष्कार करता है तो उस पर हमें भी कम कौतूहल नहीं होता। रेडियो, टेलीविजन, परमाणु शक्ति, ऊर्जा-शक्ति, चन्द्रमा की ओर प्रयाण आदि अनेकों बातें जब हमारे सामने आती हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है, कौतुहल पैदा होता है। किन्तु हमारा कौतूहल बाह्य मात्र है। हम केवल कहने-सुनने तक सीमित है। किसी वस्तु के प्रति आश्चर्य प्रकट कर देने मात्र से वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता पूरी नहीं होती, हमारा कौतुहल दरअसल आन्तरिक होना चाहिए तभी सच्चे ज्ञान, आविष्कार और भौतिक समृद्धि की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। कोरी शाब्दिक अभ्यर्थना किसी काम की नहीं होती। किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आन्तरिक कौतुहल आवश्यक है। उस वस्तु की तह तक पहुँच कर सारी जानकारी प्राप्त कर लेना अधिक महत्वपूर्ण होता है।

वैज्ञानिक विकास का पूर्व इतिहास यह है कि लोगों के मन में यथार्थ के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई। इससे वस्तुविश्लेषण की प्रक्रिया चल पड़ी। इस प्रकार का एनालिसिस जितना बढ़ा उतना ही यथार्थ की शक्ति और दक्षता का ज्ञान होता गया और उस बढ़े हुए ज्ञान के कारण तरह-तरह के आविष्कार हुए। आविष्कार परिणाम है, जिज्ञासा या आन्तरिक कौतूहल इसका जन्मदाता। वस्तु के प्रति आश्चर्य का भाव पैदा न होता तो परमाणु शक्ति का पता भी नहीं चला होता और आज के बढ़ते हुए वैज्ञानिक आविष्कारों का कहीं नाम-निशान भी न होता।

ताप, चुम्बक, विद्युत, शब्द और पदार्थ के अनेक सूक्ष्मतम रहस्यों का ज्ञान और उन सिद्धान्तों के आधार पर वैज्ञानिक यंत्रों का निर्माण तभी संभव हुआ जब लोगों ने वस्तु के रहस्य को जानने का प्रयत्न किया और तभी वे इतनी उन्नति कर सके।

पाश्चात्य देशों के लिए यह कोई नई बात नहीं है। ऋषियों का जीवन इन ¹ोजों में इतना रत्त रहता है कि उन्हें सुखी और सुविधाओं में भी कटौती कर समय निकालना पड़ता था। ¹ने की चिन्ता से मुक्ति होने के लिए ऋषि पीपल के फलों पर, ¹तों पर गिरे हुए अन्न के दानों पर ही अवलम्बित रह जाते थे और तत्परतापूर्वक ज्ञान की शोध में लगे रहते थे। ‘वेद’ का प्रादुर्भाव कोई सामान्य घटना नहीं है। उनमें विश्व का गूढ़तम दर्शन और विज्ञान भरा रहता है उन्हें कोई व्यक्ति एक अंश में भी जान जाए तो अतुलित शक्ति, शौर्य और साधनों का स्वामी बन जाए। इतनी बड़ी ¹ोज यों ही नहीं हो गई। ऋषियों ने जीवन दर्शन और प्रकृति को बहुत बड़े आश्चर्य के रूप में दें इसी से प्रेरित होकर वे ‘वेद’ की शोध कर सके।

मानव-जीवन चूँकि बहुत अधिक मात्रा में इस पृथ्वी पर बिखरा पड़ा है इसलिए उसके प्रति लोगों में आश्चर्य का भाव नहीं है। शारीरिक तृष्णायें, लालसायें, ऐषणायें भी इस मार्ग में बाधक हैं। मानव जीवन की विपुलता और इच्छाओं, लालसाओं में व्यस्त रहने के कारण मनुष्य आत्म-रहस्य जानने को भी तत्पर नहीं होता इसलिए वह अपने आप में भी एक पहेली बना हुआ है। उसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में भ्रम है, भूल है, अनात्मिकता है। यह सब इसीलिए ही है कि लोगों में अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति कौतूहल का भाव नहीं है। भौतिक पदार्थों के प्रति कौतूहल से जो विज्ञान बना उससे भौतिक समृद्धि हुई। जो आत्म-ज्ञान से शक्तियों का प्रकाश होता है उसे आध्यात्मिक बल समुत्पन्न होता है। इस स्थिति में पहुँच कर ही मानव जीवन का लक्ष्य पूरा होना बताया जाता है। पर इन दोनों ही स्थितियों के लिए जन-मानस में जिज्ञासा का प्रवेश होना आवश्यक है। मनुष्य की भावनाओं में ज्ञान और विकास की भूख मिटती है तो वह बिलकुल आलसी, आशक्त, दीन-हीन एवं क्लेशपूर्ण परिस्थिति में गिर जाता है। उन्नति के द्वार बन्द हो जाते हैं और वह मनुष्य जीवन के उद्देश्य से च्युत हो जाता है। उनकी प्रवृत्तियाँ अधोगामी हो जाती हैं और वे सब प्रकार के विकास से वंचित रह जाते हैं।

आज इस देश की स्थिति ठीक ऐसी ही है। भौतिक पदार्थों के प्रति उनकी जिज्ञासा का प्रभाव यह है कि हमारी भौतिक समृद्धि अवरुद्ध है और स्थूल देह में परामष्ट प्राण के प्रति कौतूहल नहीं है इसलिए अध्यात्म ज्ञान का एक महत्वपूर्ण अध्याय अन्धकार में पड़ा है। लोग जिस स्थिति में हैं उससे तनिक भी आगे बढ़ने की इच्छा नहीं करते। ज्ञान के क्षेत्र में जो कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, शोध के लिए जो साँसारिक वासनाओं को मारना पड़ता है उससे लोग डरते से रहते हैं। इसलिए हमारी विकास की प्रक्रिया अधमुँदी पड़ी। राष्ट्र का आविष्कृत ज्ञान भी इसीलिए प्रभावशील होते हुए भी निष्क्रिय-सा अनुपयोगी-सा पड़ा हुआ है।

अब जब हम विकास के लिए अग्रसर हो रहे हैं तो आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों क्षेत्रों में हमारी जिज्ञासायें समान रूप से जागृत होनी चाहिए। जब तक किसी वस्तु के प्रति सच्चे हृदय से आकर्षित नहीं होते तब तक उसका संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता पर जिस वस्तु में रुचि होती है उसके उन पहलुओं पर हमारा मन, हमारी कल्पनायें दौड़ती हैं और उससे संबंधित सारी जानकारी हमें उपलब्ध करा देती हैं। बढ़े हुए ज्ञान का उपयोग किसी भी दिशा में किया जा सकता है। आत्मिक ज्ञान की अधिकता से सद्गुणों का और आन्तरिक सुख का अभाव दूर होता है उसी तरह भौतिक ज्ञान की अधिकता से साधनों का लाभ प्राप्त होता है और साँसारिक सुविधायें उपलब्ध होती हैं। यह निश्चित है कि ज्ञान ही मनुष्य के विकास का मूल तत्व है और जागरण के लिए जिज्ञासा आवश्यक है।

यह बात हमें पाश्चात्य वैज्ञानिकों और अपने ऋषियों के दर्शन-समन्वय से पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि किसी भी क्षेत्र में समुन्नति के लिए उसका सम्यक्-ज्ञान होना आवश्यक है।

हम उस भौतिक और अध्यात्मिक समृद्धि की ओर अग्रसर होने की इच्छा रखते हों तो हमें भी प्रत्येक वस्तु को पूर्ण मनोभावना के साथ देखना और विवेचन करना होगा। उसके लिए जो तल्लीनता और तत्परता अपेक्षित है वह जुटानी पड़ेगी तभी हम उस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जिसके कारण भारतवर्ष ने सर्वांगीण उन्नति की थी।


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