सच्चे सुख की प्राप्ति पुण्य कर्मों द्वारा ही सम्भव है।

February 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य सुख चाहता और दुःख से बचाना चाहता है। उसकी एकमात्र इच्छा रहती है कि उसे सुख मिले-ऐसा सुख जिसमें दुःख का लवलेश भी न हो और जो सदा सर्वदा एक समान स्थित रहे। न उसमें कमी आवे और न किसी काल में उसका नाश हो। ऐसा शाश्वत सुख मोक्ष के सिवाय और क्या हो सकता है।

मनुष्य की शाश्वत सुख की कामना समर्थनीय है, यही उसका लक्ष्य है और यही उसका श्रेय। उसे यह कामना होनी ही चाहिए और इस लक्ष्य को पाने के लिए हर प्रयत्न एवं पुरुषार्थ को करने में तत्पर रहना चाहिए। मानव देह तथा मनुष्य जीवन की प्राप्ति हुई भी इसी कर्त्तव्य के लिए ही।

शाश्वत सुख की यह कामना मनुष्य में यों ही उद्भूत नहीं हो गई है। इसका वास्तविक स्वरूप ही आनन्द रूप है जिसे वह बहुत समय से भूल गया है। शाश्वत सुख की कामना उसी विस्मृत अथवा वियुक्त स्वरूप को पाने के लिए एक कसक है, जिससे प्रेरित होकर वह उसकी खोज में भटक रहा है किन्तु ठीक मार्ग का अनुसरण न कर सकने से कृतकृत्य नहीं हो पा रहा है, और जो भाग्यवान पुरुषार्थी सत्य मार्ग का अनुसरण कर लेते हैं वे अपने सत्यस्वरूप शाश्वत सुख अथवा मोक्ष पद को प्राप्त भी कर लेते हैं।

संसार के समस्त प्राणियों में केवल मनुष्य ही शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष का अधिकारी है, क्योंकि उसका कर्मों में अधिकार है। उसकी ही बुद्धि इस योग्य है, जिसके द्वारा वह ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता है, अन्य प्राणियों को यह योग्य बुद्धि प्राप्त नहीं हुई है और न उनको कर्म में अधिकार ही प्राप्त है। वे प्रकृत प्रेरणाओं से यों ही यंत्रवत जीवन जीते हुए, भोग भार को वहन करते हुए मरते और जन्म ग्रहण करते रहते हैं। केवल मानव जीवन ही ऐसा अवसर है जिसमें मोक्ष के ध्येय का श्रेय प्राप्त किया जा सकता है। जो प्रमोद वश इस दुर्लभ अवसर को चूक जाता है और लक्ष्य प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ न कर केवल विषय-भोगों में लिप्त रह इस कर्म-काल को भोग-काल में हठपूर्वक बदल लेते हैं ये पुनः जीवनान्त में अधोयोनियों में गिर कर एक अविज्ञात काल के लिए दुःख-रूप जन्म-मरण चक्र में फंस जाते हैं। इसलिए सावधानीपूर्वक इस मानव जन्म का पूरा एवं परम लाभ उठा लेना ही बुद्धिमानी है।

मनुष्य आनन्द-रूप ही है, किन्तु वह अपने इस वास्तविक स्वरूप से विमुक्त हो गया है। उसका यह रूप उसके युग-युगीन संस्कारों की आड़ में पड़ गया है जिसके कारण वह न तो उसे देख ही पा रहा है और न प्राप्त ही कर पा रहा है। अनन्त जन्मों के कुसंस्कारों के फलस्वरूप मनुष्य के मन में अगणित पाप वृत्तियाँ निवास किए रहती हैं जो मनुष्य को बलपूर्वक श्रेय पथ से खींच कर विपरीत दिशा में लगाती रहती हैं जिससे मनुष्य अपने सच्चे-स्वरूप अर्थात् शाश्वत सुख से वंचित रह जाता है। यह पाप वृत्तियाँ नष्ट हों, कुसंस्कार मिटें, अज्ञान का आवरण हटे तब कहीं मनुष्य अपने आनन्द-स्वरूप का साक्षात्कार कर सके।

बार-बार अकरणीय कर्म करने से मनुष्य की उसमें प्रवृत्ति बढ़ती रहती है, जिससे आगे चल कर उनका अभ्यास दृढ़ होकर संस्कारों का रूप धारण कर लेता है। मनुष्य के यह स्वकृत संस्कार बड़े भयानक होते हैं। इनसे छूट सकना एक दुस्तर कार्य हो जाता है। इस परेशानी को व्यक्त करते हुए एक बार दुर्योधन ने कहा था-

‘जानामि धर्मं न च में प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च में निवृत्तिः।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि॥’

-धर्म क्या है यह मैं जानता हूँ तथापि उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। अधर्म क्या है यह भी मैं जानता हूँ किन्तु उससे निवृत्त नहीं हो रहा हूँ। ऐसा जान होता है जैसे कोई देव मेरे हृदय में बैठा है और वह मुझे जिस प्रकार प्रेरित करता है वैसा ही मैं करता हूँ।

दुर्योधन ने हृदय में जिस देव का भ्रम किया था वह और कुछ नहीं पाप कर्मों का वह अभ्यास मात्र था जो कुसंस्कार बन कर प्रवृत्तियों का प्रेरक बन बैठा था और जो धर्माधर्म का ज्ञान होने पर दुर्योधन को बलात् ही पाप कर्म में लगाए रहता था।

अनन्त काल से दृढ़ हुई पाप वृत्तियाँ शीघ्र ही नष्ट हो जातीं। इन पर धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक पुण्याचरण द्वारा ही विजय प्राप्त की जा सकती है। शाश्वत सुख के शुभेच्छु शिव संकल्पों का अवलम्बन लेकर सदाचरण द्वारा हृदय में संचित पाप प्रवृत्तियों पर बार-बार आघात करता हुआ अन्ततः उन पर विजय ही प्राप्त कर लेता है।

पाप कर्मों का परिणाम अकल्याणकारी होता है और पुण्य कर्मों का परिणाम कल्याणकारी इस सत्य को सभी जानते हैं, तथापि पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं इसका कारण मनुष्य का अज्ञान ही है! मनुष्य के सारे व्यवहार ज्ञानाधीन ही रहा करते हैं। जिस विषय में जिस प्रकार का ज्ञान होगा, स्वभावतः व्यवहार भी वैसा! यदि मनुष्य को पाप-पुण्य का यथार्थ ज्ञान हो जाए तो निश्चय ही मनुष्य पापाचरण को छोड़कर पुण्याचरण में प्रवृत्त होने लगे। जब तक बाल्मीक को अपने कर्मों का यथार्थ ज्ञान नहीं था तब तक वे एक दस्यु बने रहे। हत्या तथा लूटपाट के कुकर्म में लगे रहे और वैसा करने में कोई दोष भी न समझते थे। किन्तु जब देवर्षि नारद की कृपा से उनका ज्ञान बदला और पाप-पुण्य का भेद समझ में आया, उनके कर्मों की धारा मुड़ गई जिसके परिणामस्वरूप वे पुण्य श्लोक महर्षि बन गए।

मनुष्य सुख चाहता है। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ तथा कर्म उसी की प्राप्ति में लगे भी रहते हैं तब भी वह अपने वाँछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। इसका कारण यही माना जा सकता है कि या तो वह अपने लक्ष्य को ठीक नहीं पहचानता है अथवा उसकी गतिविधि अनुकूल दिशा में नहीं चलती। बहुधा लोग विष योग भोग में होने वाली सुखानुभूति को ही वह सुख मान लेते हैं जिसकी उसे खोज है। जबकि वह सुख मिथ्या तथा परिणाम में दुःख कारक होते हैं। सुखों की श्रेणी तथा उनका परिणाम फल बतलाते हुए भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है-

“सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु में भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।

तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥

विषयेन्द्रिय संभोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।

निद्रालस्य प्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥

हे भरत-श्रेष्ठ अर्जुन! अब तुम मुझसे सुख के तीन प्रकारों को सुनो- जिस सुख में साधक ध्यान और सेवा आदि के अभ्यास से रमण करता है और सुखों के अन्त को प्राप्त करता है, जो सुख पहले साधनाभ्यास के समय में विष समान अप्रिय विदित होता है, किन्तु परिणाम में अमृत तुल्य प्रिय तथा हितकारी होता है वह भगवत्-विषयक बुद्धि के प्रसाद उत्पन्न हुआ सुख सात्विक सुख है। जो सुख विष और इन्द्रियों के संभोग से उत्पन्न होता है, और जो पहले भोग-काल में अमृत के समान प्रिय लगता है, किन्तु जो परिणाम में विष-फल के समान दुःखदाई होता है-वह सुख राजस सुख है! किन्तु जो सुख आदि अन्त अर्थात् भोग काल और परिणाम दोनों में आत्मा में मोह उत्पन्न करने वाला होता है, वह निद्रा, आलस्य एवं प्रमाद से उत्पन्न होने वाला सुख तामस सुख है।

स्पष्ट है कि मनुष्य को जिस सुख की खोज है वह सुख सात्विक सुख ही है जो अक्षय तथा स्थायी है। जैसा कि भगवान ने अपने उपर्युक्त कथन में कहा है कि-सात्विक सुख की प्राप्ति साधना सेवा आदि से ही संभव है, तब उसको विषय भोग में खोजना निश्चय ही विपरीत दिशा में दौड़ने के समान ही है। किन्तु खेद का विषय है कि मनुष्य जो चाहता है उसकी ओर तो ध्यान देता नहीं किन्तु जिस दुःख को वह नहीं चाहता उसके लिए तत्परता से प्रयत्न किया करता है। निम्नांकित श्लोक में शास्त्रकार ने मनुष्य की इसी विपरीत बुद्धि का चित्रण किया है-

‘पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः।

न पाप फलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः॥’

-मनुष्य पुण्य के फल (सुख) की तो कामना करते हैं किन्तु पुण्य कर्म करने की इच्छा नहीं करते। जिस पाप के फल दुःख को चाहते नहीं पर पाप कर्म प्रयत्नपूर्वक किया करते हैं।

सुख-दुःख के विषय में निःसंदेह मनुष्यों की यही स्थिति है। सुख पुण्य कर्मों का फल है उसकी प्राप्ति सुकृत के बिना संभव नहीं। सुख, शाश्वत सुख, जो भगवत्-विषयक तथा अहैतुकं हो, पुण्य कर्म करने से ही प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसा कोई उपाय नहीं जिसके द्वारा वाँछित सुख पाया जा सके।

वास्तविक सुख की वाँछा रखने वालों को पाप कर्मों से विमुख होकर पुण्य कर्मों में ही प्रवृत्त होना चाहिए। अनेक लोग भजन-पूजन आदि को ही पुण्य कर्म मान लेते हैं। उनका विचार होता है कि दिन में कुछ देर भगवान का नाम जप लेने अथवा पूजा-उपहार कर देने मात्र से ही पुण्य लाभ हो जायेगा जिसके फलस्वरूप वे स्वर्ग आदि अथवा वैभव-विभूति के रूप में अक्षय सुख के अधिकारी बन जायेंगे। किन्तु उनका यह विचार मिथ्या है, भ्रमपूर्ण है। जप-तप, पूजा-पाठ के साथ जब तक मनुष्य सत्कर्मों तथा सदाचरण में निरत नहीं होगा उसका भगवत् विषयक कोई भी उपक्रम पुण्य रूप में फलीभूत नहीं हो सकता। पूजा-उपचार के बल पर जो अपने पापाचार का भोग दुःख दूर कर लेना चाहते हैं, भगवान की पूजा कर देने मात्र से उनका वह कर्म व्यर्थ हो जायेगा, उन्हें किसी प्रकार भी विचारवान नहीं कहा जा सकता। कितना ही पूजा-पाठ क्यों न किया जाए। पापाचरण का फल क्षमा नहीं किया जा सकता। दुःख रूप में उसका भोग तो करना ही होगा।

सुख की कामना रखते हुए भी लोग पाप-कर्म करते हैं और दुष्परिणाम दुःख को पाते हुए भी उससे विपरीत नहीं होते। इस विपरीतता का कारण यही समझ में आता है कि मनुष्य तात्कालिक लाभ की ओर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखता है। इस बात की ओर ध्यान नहीं देता कि तात्कालिक लाभ को देखता हुआ जो असदाचरण कर रहा है उसका परिणाम विष के समान घातक होगा। अनुचित करते समय यदि मनुष्य अपनी दीर्घ दृष्टि से उसके परिणामों पर विचार कर ले तो निश्चय ही वह वैसा करने से बचता रहे। इस प्रकार दुःख से बच जाने पर सुख तो अपने आप अनुभूत होने लगेगा।

अज्ञान दोष से आज विषय सुख को ही वास्तविक सुख मान लिया गया है और उसे प्राप्त करने में सहायक साधनों को उचित अनुचित रूप से संचय किया जा रहा है जबकि अनुचित रूप से एकत्र किए हुए लौकिक सुख-साधन भी दुःख का कारण होते हैं। जहाँ तक लौकिक साधनों से प्राप्त होने वाले सुख का प्रश्न है-यदि इन्हें समुचित उपायों द्वारा पापाचरण से दूर रह कर संचय किया जाए तो भी वह किसी सीमा तक संतोष दें सकते हैं। किन्तु खेद है कि लोग ऐसा करने तक का ध्यान नहीं देते। फलस्वरूप साधनों की सुविधा में दुःख का भोग करते रहते हैं। क्या लौकिक और क्या पारमार्थिक किसी भी सुख के लिए पापाचरण से बच कर भागवत् भाव से सत्कर्माचरण में ही प्रवृत्त होना होगा। इसी से कुसंस्कारों का अभ्यास नष्ट होगा, अपने वास्तविक आनन्द-स्वरूप का आभास होगा अक्षय सुख का लक्ष्य प्राप्त होगा और अन्त में मोक्ष पद का अधिकार मिलेगा।

छात्रों द्वारा बूट पालिश-

रतलाम (म.प्र.)। रचनात्मक कार्यों में श्रद्धा व लगन हो तो सफलता मिलना स्वाभाविक है। इस बात का एक अच्छा उदाहरण यहाँ की ‘विद्यार्थी मोर्चा’ नामक संस्था ने प्रस्तुत किया है।

विगत दिनों से यहाँ के महाविद्यालय में नवीन विषय में एम. ए. की कक्षा ¹लवाने के लिए उक्त संस्था प्रयत्नशील हुई। इसके लिए विद्यार्थियों ने प्रशासन से सहायता की माँग तो की पर उन्होंने शासन का ही मुँह ताकना उचित नहीं समझा। स्वावलम्बन की शक्ति पर भरोसा र¹ कर छात्रों ने ‘बूट पालिश’ अभियान चला कर विद्यालय की आर्थिक दशा सुधारने का संकल्प लिया है। इससे जल्दी ही एम.ए. की कक्षा ¹ल जाने की संभावना है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118