आप स्वस्थ एवं दीर्घजीवी बन सकते हैं।

February 1967

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कहा गया है ‘तन्दुरुस्ती हजार नियामत’, कहा ही नहीं गया बल्कि संसार का प्रत्येक प्राणी ऐसा विश्वास रहता है और चाहता है कि वह अधिक-से-अधिक स्वस्थ रहे। सब कुछ होने पर भी यदि मनुष्य के पास स्वास्थ्य नहीं है, तो समझो उसके पास कुछ है ही नहीं, वह धनवान् होने पर भी गरीब है, सम्पन्न होने पर भी दरिद्र है। जिसके पास स्वास्थ्य है, वह कुछ न होने पर भी भाग्यवान् है।

संसार में ऐसा कौन होगा जो हर प्रकार से स्वस्थ रहने की आकाँक्षा न करता हो। हर व्यक्ति की सर्वोपरि कामना रहती है कि वह स्वास्थ्यपूर्ण दीर्घ जीवन का अधिकारी बने। तब क्या बात है कि लोग अपनी सर्वोपरि इच्छा एवं आवश्यकता के विपरीत विविध प्रकार के रोगों-शोकों से त्रस्त अनारोग्य के दुर्भागी बनते हैं। दीर्घायु की कामना करते-करते अकाल ही में मृत्यु-मुख में चले जाते हैं। प्रकृति ने मनुष्य को एक स्वस्थ जीवन जीने की सारी सुविधायें दी हुई हैं। किन्तु वह इन सुविधाओं का यथा योग्य उपयोग करने में असफल और निराश ही दीखता है। सृष्टि के मनुष्येत्तर प्राणी पशु-पक्षी तक स्वस्थ एवं पूर्ण आयु का उपभोग करते और आनन्द मनाते दृष्टिगोचर होते हैं। पर मनुष्य आह-कराह, रोग-दोष और शोक-सन्तापों से ग्रस्त जीवन में ही मृत्यु की पीड़ा पा रहे हैं। जबकि प्रकृति ने उसे अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक सुविधायें और बुद्धि दी है। निस्सन्देह मनुष्य का यह दयनीय जीवन कुछ कम खेद का विषय नहीं है।

संसार में बहुत से आदमी हृष्ट-पुष्ट और मोटे-ताजे देखे जा सकते हैं। खाते-पीते, काम करते और हंसते-बोलते ऐसा आभास देते हैं, मानों वे बड़े ही स्वस्थ तथा निरोग हों। किन्तु क्या वे वास्तविक रूप से स्वस्थ होते हैं? उनके पास जाकर पूछिये अथवा उनका परीक्षण करिये तो पता चलेगा कि वे वास्तव में वैसे स्वस्थ नहीं है, जैसा कि होना चाहिए। यदि कोई शरीर से स्वस्थ है तो मन से रोगी है। शरीर रोगों से बचा हुआ है तो ईर्ष्या, द्वेष, काम-क्रोध और कपट के न जाने कितने कीट उसके मन-सुमन को जर्जर कर रहे हैं और यदि संयोग से उसमें यह विकार नहीं है वह शरीर से गया-गुजरा होगा। शारीरिक और मानसिक दोनों से ठीक प्रकार स्वस्थ हों, ऐसे व्यक्ति विश्व में कम ही मिलेंगे। जबकि प्रकृति के अनुसार मानव मात्र को तन और मन दोनों से पूर्ण स्वस्थ होना चाहिए, यही उसकी शोभा है।

इस तन-मन के स्वास्थ्य का प्रश्न एक समस्या बना हुआ है। किन्तु यदि इस पर गहराई से विचार किया जाये तो पता चलेगा कि प्रकृति की ओर से स्वास्थ्य के लिए सारी साधन-सुविधायें मिली होने पर भी अस्वस्थ रहने में मनुष्य का अपना ही दोष है। वह अपने आलस्य, प्रमाद, अज्ञान, अनियमितता, लोलुपता तथा कलुषित प्रवृत्तियों के कारण ही प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठाना तो दूर, उल्टे उससे दण्ड पा रहा है। जहाँ उसे प्रकृति से पुरस्कार पाना चाहिए, वहाँ वह उसके दण्ड का भागी बन रहा है। हमारे लिये पुरस्कार का प्रबंध करने वाले को यदि हमारी हठ जन्य धृष्टता अथवा लिप्सा जन्य अपात्रता के कारण दण्ड देने के लिए विवश होना पड़े तो इससे अधिक लज्जा की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है? हम सब मनुष्य हैं, विवेक के अधिकारी हैं, हमें अपनी इस पदवी के अनुरूप ही प्रकृति माता का पुरस्कार पात्र ही बनना चाहिए। जब हम एक स्वस्थ, सुखी तथा दीर्घ जीवन भोगने के लिए संसार में भेजे गये हैं, तब रोगों, दोषों तथा शोक-संतापों द्वारा मार-मारकर अकाल में ही संसार से खदेड़ दिया जाना शोभा नहीं देता। हमें समझना चाहिए कि हम इस सृष्टि में अच्छा जीवन बिताने और कुछ अच्छे काम करने के लिए आये हैं, न कि जीते-जी नरक भोगने के लिए।

यदि वास्तव में हमको इस दयनीय दशा पर क्षोभ है और प्रकृति द्वारा निर्धारित पूर्ण आयु तथा स्वस्थ जीवन अपेक्षित है तो निरुपाय बैठे रहने अथवा जैसे चल रहे हैं, वैसे ही चलते रहने से काम न चलेगा। अपना उद्देश्य पूरा करने और लक्ष्य पाने के लिए उपाय एवं प्रयत्न करना ही होगा।

स्वस्थ जीवन का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए हमको कोई कठिन अथवा विशेष उपाय नहीं करना है। केवल अपने भ्रमों तथा भूलों को सुधारना भर ही है और जिनको सुधारना बड़ा ही सुकर है। आहार-विहार तथा आचार-विचार में आवश्यक परिवर्तन भर कर देने से हमारी स्वास्थ्य संबंधी समस्या हल हो जायेगी। अपने रहन-सहन को प्रकृति को अधिकाधिक अनुकूल बना लेना ही वह परिवर्तन है जिसे हमें अपने जीवन-क्रम में लाना है।

आज की सभ्यता तथा आज की मान्यतायें हमें अधिक-से-अधिक खाने-पीने और मौज-मजा लेने की शिक्षा देती हैं। जैसे भी हो अधिक-से-अधिक पैसा कमाओ और जो इच्छा हो खाओ-पिओ। मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए नियम, संयम अथवा आचार, विचार की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारी इस प्रकार की निरंकुश एवं अनियंत्रित मान्यताओं ने ही इस दयनीय दशा को पहुँचाया हुआ है।

मनुष्य प्रकृति-जन्य प्राणी है, इसलिए उसे अधिक-से-अधिक प्रकृति के निकट रहना चाहिए। इसके विपरीत वह अधिक-से-अधिक बन्द घरों में रहता और तरह-तरह के चुस्त कपड़ों में अपने को छिपाये रहता है। हवा, धूप, शीत, ऊष्मा और आकाश से मानों मनुष्य ने शत्रुता ठान ली है। प्रातःकाल में जब उसे उठकर ऊषा के दर्शन करने चाहिए, तब वह शाल लपेटे हुए बंद कमरे में खर्राटे लिया करता है। जिस समय प्रातःकाल उठकर उसे वायु सेवन तथा उषापान करना चाहिए, उस समय वह चारपाई पर ही चाय, काफी तथा धूम्र आदि का पान किया करता है। जिस समय मनुष्य को रात्रि में चन्द्रमा तथा नक्षत्रों को देखते हुए और आकाश की व्यापकता का चिन्तन करते हुए सोना चाहिए, वह उनसे दूर बंद कमरों में जाकर सोता है।

प्रकृति ने मनुष्य के लिए विभिन्न फलों, वनस्पतियों तथा औषधियों को भोजन के लिए बनाया है। इसके विपरीत वह खाता है- पशुओं का माँस और विविध प्रकार के तत्त्वहीन पकवान। कब खाना चाहिए, कितना और क्या खाना चाहिए, इसका ज्ञान रहते हुए भी अपनी स्वाद-लिप्सा के कारण वह न जाने कितने अखाद्य, असमय एवं अमात्रा में खाता-पीता रहता है। यह सब लक्षण मनुष्य के प्राकृतिक विद्रोह तथा निरंकुशता के लक्षण हैं। इसीलिए वह रोगों का दण्ड पाता है।

जो आहार-विहार सरल तथा सहज है वही वास्तव में प्राकृतिक है और जिस रहन-सहन में हवा, धूप, शीत तथा ऊष्मा का उचित स्थान है वही रहन-सहन प्राकृतिक तथा उपयुक्त है। मनुष्य ऐसे उपयुक्त एवं प्राकृतिक रहन-सहन को अपनाकर शुद्ध आचार-विचार से नियमित खान-पान एवं दिनचर्या के साथ रहे तो कोई कारण नहीं कि वह प्रकृति द्वारा निर्धारित पूरी आयु और स्वास्थ्य का सुख न पा रहे।

शरीर से अधिक विचारों को शुद्ध रखने की आवश्यकता है। सारे नियम निबाहते तथा संयमपूर्वक रहने पर भी जिस मनुष्य के विचार शुद्ध नहीं है वह स्वास्थ्य के अपेक्षित उद्देश्य को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्यों पर आचार-विचार का गहरा प्रभाव पड़ता है। जिसके विचार स्वस्थ होगे वह हर प्रकार से स्वस्थ रहेगा।

यूनान के इब्नेर्सिना नामक एक प्राचीन आरोग्य शास्त्री तथा दार्शनिक महात्मा के स्वास्थ्य संबंधी निम्नलिखित पाँच नियम मानव स्वास्थ्य तथा दीर्ष जीवन में लिए मूल मंत्र की तरह ही है। इनका निर्वाह करने वाला व्यक्ति अवश्य ही आरोग्यपूर्ण दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है-

शरीर से अधिक प्राण-बल की रक्षा करो।

शरीर से पूर्व वातावरण शुद्ध करो।

रोगी को दवा की अपेक्षा निरोग रहने की शिक्षा दो।

खाओ कम और पीओ ज्यादा।

सुविचारों से बड़ी कोई औषधि नहीं।


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