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February 1967

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देह दण्ड का नाम तप नहीं-

अध्यात्म मार्ग में अनावश्यक देह-दण्ड से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अनावश्यक देह दण्ड से साधक का ध्यान पीड़ा की ओर लगा रहेगा, ध्येय की ओर नहीं। इस प्रकार तो दण्ड अथवा पीड़ा की उपासना ही होगी, जिससे पीड़ा और उद्विग्नता की ही वृद्धि होगी, शाँति की नहीं। जबकि अध्यात्म का लक्ष्य शाँति ही है।

अनावश्यक कष्ट और क्लेश उठाने से धर्म नहीं होता। वास्तविक तपस्या तो मन की है मन को पवित्र और निर्मल करना ही तप है। तन को दुखाना और मन को उद्विग्न करना तप नहीं।

मन को वश में करने के लिए तन को ऐसी तपस्या में नहीं लगाना चाहिये जिससे मन उस पर दया कर के उसका पक्षपात करने लगे। मानस शाँति और उसकी प्रसन्नता के प्रकाश में ही आत्मा के दर्शन किये जा सकते हैं। मनुष्य को सामान्य एवं साधारण तपस्या द्वारा तन, मन को मैत्री पूर्वक वश में करना चाहिए न कि निर्दयी शत्रु की तरह।

-जै. सत्यमूर्ति


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