पूर्ण ग्रहों में बंध कर सत्य की उपेक्षा न करें।

February 1967

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जीवन की सफलता, असफलता, उत्थान-पतन, उत्कर्ष-अपकर्ष मनुष्य के विचारों पर ही निर्भर है। जिसके विचार जिस मात्रा में साफ-सुथरे, स्वतंत्र और सुलझे हुए होंगे वह उसी मात्रा में प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकेगा। इसके विपरीत जिसके विचार भ्राँतिपूर्ण, जड़ और उलझे हुए होंगे वह जीवन-रथ को जहाँ का तहाँ रोके हुए खड़ा रहेगा।

नव-सृजन, नव-निर्माण, नव-चेतना तथा नूतन उपलब्धियाँ प्रगति के लक्षण हैं। इस प्रकार की सृजनात्मक नवीनताओं का अधिकारी वही मनुष्य बन सकता है जिसके विचारों में नवीनता का अवसर हो, जिसका मस्तिष्क नवचेतना को ग्रहण कर सके। वही मस्तिष्क नव-चेतना को स्वीकार कर सकने में सफल हो सकता है जो स्वतंत्र एवं साफ-सुथरा हो। जिसका मस्तिष्क पहले से ही रूढ़ि मान्यताओं, अंध-विश्वासों, भ्राँति धारणाओं तथा अस्त-व्यस्त विचारों से भरा होगा, वह मनुष्य नवीनताओं को अपना सकने में सक्षम नहीं नहीं पाता। मान्यताओं, पूर्ण धारणाओं एवं विश्वासों का बंदी मस्तिष्क अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर प्रगतिशीलता से वंचित हो जाता है। उसे तो अपनी पूर्वता में ही पड़े रहने में उसी प्रकार सुख-सन्तोष तथा सुरक्षा विदित होती है जिस प्रकार एक लंबे समय तक पराधीनता में पड़े रहने वाले दास मालिक की गुलामी और उसके अनुसार उसकी आज्ञा पालन करते रहने से उसकी स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र विचार शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे वह इस डर से स्वाधीन होने की बात नहीं सोच पाता कि यहाँ से छूट कर वह कहाँ जाएगा, क्या करेगा, उसके लिए जीवन एवं जीविका का क्या मार्ग रह जाएगा? वह पथ भूल सकता है, किसी अनजान आपत्ति में फंस सकता है और अनजाने भविष्य में चल कर अन्धकार में खो सकता है-तब उसकी यह अच्छी बुरी परिस्थिति जिससे कि वह परिचित है, यह अच्छा-बुरा संतोष जिसे वह पाए हुए है और वह मीठा-कडुआ आश्रय जो उसे मिला हुआ है, सभी चला जायेगा जिससे वह न जाने कितनी असहाय स्थिति में पड़ कर दिग्भ्रान्त हो जायेगा। दास की यह पराधीन विचार-धारा ही उसे स्वाधीन होने और उन्नति की ओर जाने वाले स्वतंत्र पथ पर पग रखने का साहस नहीं करने देती जिससे वह अपने परिचित अंधकार में पड़ा-पड़ा जीवन नष्ट कर देता है।

मनुष्य जिस समाज, सम्प्रदाय अथवा वर्ग जाति में जन्म लेता है, बढ़ता और रहता है उसकी परम्परागत मान्यताओं एवं धारणाओं को अपना लेता है। उन्हीं मान्यताओं के बीच एक लंबे समय तक रहने सहने के कारण वह उनका अभ्यस्त बन जाता है। वह अभ्यास जब धीरे-धीरे बढ़ कर उसके संस्कारों के साथ समन्वित हो जाता है तब वह उसके प्रति न केवल पक्षपाती ही बल्कि दुराग्रही तक हो जाता है। पक्षपाती मस्तिष्क में एक बड़ा दोष यह होता है कि जिस बात के प्रति उसका आग्रह रहता है फिर उसकी भलाई, बुराई, हानि, लाभ के विषय में विचार नहीं करना चाहता। अपनी इस सहज दुर्बलता के कारण उसे गलत होने पर भी अपना पक्ष सत्य ही प्रतीत होता है। उसके प्रतिकूल अथवा भिन्न बात को वह सर्वथा असत्य, अयुक्त एवं अग्राह्य समझने लगता है। अपनी मान्यता के विरुद्ध किसी भी तर्क, दलील अथवा संशोधन को स्वीकार कर सकना उसके वश की बात नहीं रहती। ऐसे पक्षपाती मस्तिष्क वाला व्यक्ति किसी नवीन विचार, नवीन पद्धति अथवा नूतन मान्यता को अंगीकार करने का साहस नहीं कर पाता। जिससे प्रगति की ओर बढ़ सकना संभव नहीं रहता। प्रगतिशीलता के अभाव में उन्नति अथवा उत्थान का प्रश्न ही नहीं उठता। अप्रगतिशीलता, जड़ता का चिन्ह है और जड़ का जीवन यथास्थिति में ही पड़ा-पड़ा समाप्त हो जाता है। जो उन्नति स्थान अथवा उत्कर्ष की आकाँक्षा रखता है उसे इस बौद्धिक गुलामी से मुक्त होना ही होगा। उसे आविर्भूत हुए नूतन प्रकाश, नव-चेतना एवं नव-विचारणा को अपनाना होगा। पराधीनता फिर चाहे वह मानसिक, शारीरिक अथवा बौद्धिक किसी प्रकार की भी क्यों न हो प्रगति के लिए एक बड़ा अवरोध है।

सामान्य व्यक्ति और असाधारण व्यक्तित्व में जो एक बड़ा अन्तर होता है वह उनकी बौद्धिक दासता एवं स्वतंत्रता का ही होता है। सामान्य व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण में प्रचलित मान्यताओं, धारणाओं एवं विश्वासों को जाने-अनजाने ज्यों का त्यों अपना लेता है। वह उनके विषय में सत्य असत्य तथ्य अथवा अतथ्य का तर्क लेकर न तो विचार करता है और न उनकी उपयोगिता अनुपयोगिता की ओर दृष्टिपात करता है। जबकि स्वाधीनता विचार-धारा वाला किसी भी मान्यता अथवा विश्वास को तभी स्वीकार करता है जब उसको विचारपूर्वक उपयुक्तता की कसौटी पर परख लेता है। वह किसी बात को केवल इसलिए ही सत्य नहीं मान लेता कि वह पूर्वकाल से परम्परागत चली आती है। ऐसे ही स्वतंत्र एवं प्रगतिशील विचार वाले लोग सड़ी-गली मान्यताओं, अबुद्धि सम्मत विश्वासों एवं आधारहीन धारणाओं से अलग होकर समयानुकूल, युक्त एवं उपयोगी विचार-धारा समाज अथवा राष्ट्र को देकर असामान्यता के लक्षण प्रकट करते और मानव-समाज के पथ-प्रदर्शक बना करते हैं। यह क्षमता पराधीन अथवा पक्षपाती मस्तिष्क में नहीं होती कि वह समय की माँग, समाज की आवश्यकता को ठीक से देख, समझ और परख सके और तदनुसार पथ एवं प्रकाश दें सके।

पथ और प्रकाश लेकर असामान्य स्थिति पा सकना तो दूर पराधीन विचार तथा पक्षपाती मस्तिष्क वाला व्यक्ति मान्यताओं के प्रति दुराग्रह में अपनी हानि देखता हुआ भी उन्हें छोड़ नहीं पाता। मान्यताओं एवं विश्वासों के प्रति पूर्वाग्रह के कारण अनेक लोग प्रस्तुत परिस्थितियों से हार कर हानि तक कर लेते हैं। जैसे किसी की मान्यता है कि किसी दूसरी जाति के व्यक्ति के हाथ का पानी नहीं पीना चाहिए किन्तु वह एक ऐसी परिस्थिति में फंस जाता है कि उसके पास न तो अपना लोटा-डोर है और न उस समय कोई परिचित व्यक्ति है तो उस पूर्वाग्रही के सामने प्यासे मरने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं रह जाता। ऐसे अनेक दुराग्रही व्यक्तियों के प्यास से मरने के समाचार सुनने में आए और आते रहते हैं। कभी किसी परिस्थिति विशेष में हो सकता है इस मान्यता की कोई आवश्यकता रही हो अथवा हो सके किन्तु सामान्य जीवन व्यवहार में ने तो इसकी कोई आवश्यकता है और न महत्व। ऐसी मूढ़ मान्यताओं के व्यक्ति स्टेशनों तक पर नलों अथवा सप्लाई का पानी नहीं पीते और न बच्चों को पीने देते जिससे वे अनेक घंटों प्यास से खुद परेशान रहते और बच्चों को भी रखते हैं। खान-पान का संयम एवं शुद्धता ठीक है किन्तु जब वह विवेक सम्मत बात मूढ़ मान्यता बन कर किसी को पराधीन बना लेती है तब उससे हानि होने के सिवाय कोई लाभ नहीं होता।

मूढ़ मान्यताओं का पक्षपाती मस्तिष्क उनसे स्पष्ट होने वाले अनर्थों को देख कर भी उन्हें छोड़ना तो दूर उल्टे दृढ़ पूर्वक पकड़े रहना चाहता है। उसके दोष बतलाने अथवा संशोधन करने के लिए कहने वालों से लड़ने-झगड़ने तक पर तूल जाता है और जब तक उसका वश चलता है हितोपदेशक का विरोध ही करता रहता है। सती होना भारत की बहुत समय तक एक मान्यता रही है। सती का अर्थ है-सत्यनिष्ठ। जो स्त्रियाँ विधवा होने पर लोक मंगल के लिए सत्यनिष्ठा को बढ़ाने के लिए अपना जीवन अपर्णा करती थीं वे सती साध्वी कहलाती थीं। साधुता का आचरण ही सती होने का प्रमाण माना जाता था। ऐसी सतियाँ यहाँ घर-घर होती थीं। किन्तु दुर्भाग्यवश समाज के स्वाधीन संचालकों ने इसे एक अनिवार्य जातीय प्रथा का रूप बना दिया जो जन-साधारण के लिए एक मान्यता बन गई। फलस्वरूप विधवाओं को उनकी इच्छा से विरुद्ध त्राहि-त्राहि करने पर भी जबरदस्ती जलाया जाने लगा। परम्परावश इस मूढ़ मान्यता के प्रति अनेक जातियों में इतना पक्षपात उत्पन्न हो गया कि जब राजा राममोहनराय जैसे शुभचिन्तकों ने असहाय विधवाओं के इस हठ दाह को बन्द कराने का प्रयत्न किया तो न केवल लोगों ने उसका विरोध ही किया बल्कि उनको जाति-बाहर भी कर दिया। अनेक दुराग्रहियों ने तो उनके प्राणों के लिए संकट उत्पन्न कर दिया जिससे उन्हें देश छोड़ कर विदेश तक जाना पड़ा। कुछ समय बाद जब पक्षपातियों का तिरोधान हुआ अथवा प्रबल प्रयत्न द्वारा उक्त दाहकर्म के प्रति लोगों का पक्षपात कम हुआ तो लोगों की समझ में आया कि जिसको वे धर्म का एक अंग समझते थे वह सती-दाह एक मूढ़-मान्यता मात्र ही थी। आज समाज में सती-दाह के प्रति किसी में पूर्वाग्रह न होने से उसकी चर्चा आने पर तत्कालीन लोगों की उस भ्रष्ट मान्यता पर खेद प्रकट करने लगते हैं।

मूढ़ मान्यता के कारण ही पृथ्वीराज ने ‘शरणागत’ गौरी को सत्रह बार क्षमा कर देश को गुलाम बनाया। मूढ़ मान्यता के कारण ही मुसलमान द्वारा कुएं में डूबे जाने का भ्रम हो जाने से गाँव के गाँव मुसलमान हो गए। मूढ़ मान्यता के कारण ही शत्रु पर रात में आक्रमण न करने से हजारों हिन्दू राजे-महाराजे मुसलमानों तथा अंग्रेजों से हारे। मूढ़ मान्यता के कारण ही करोड़ों हिन्दू अस्पृश्य बने हुए समाज द्वारा त्यक्त पड़े हैं जिन्हें बहकाकर ईसाई अपनी संख्या बढ़ाते चले जा रहे हैं।

इस प्रकार की सामाजिक ही नहीं न जाने कितनी व्यक्तिगत मूढ़ मान्यतायें अन्धविश्वासों के रूप में लोगों में भरी पड़ी है जिससे ओझे, स्याने, ज्योतिषी तथा वंचक लोग लाभ उठाते हैं। अनेक मूढ़ मान्यताओं के कारण न जाने कितनी स्त्रियाँ अपना धन और शील ठगती हैं और अनेक पुरुष प्रवंचकों के चक्कर में आकर प्राण तक गंवा बैठते हैं किन्तु फिर भी उन्हें त्यागने में अभिरुचि नहीं रखते। इसका कारण यही है कि परम्परावश उनके मस्तिष्क उनके प्रति पक्षपाती हो गये हैं जिससे उन्हें छोड़ने का साहस नहीं कर पाते।

पक्षपाती मस्तिष्क में केवल यही दोष नहीं होता कि वह अपनी मान्यताओं एवं विश्वासी के प्रति दुराग्रही होता है बल्कि वह अन्य लोगों की मान्यताओं एवं विश्वासों के प्रति असहिष्णु भी होता है जिसके कारण योरोप एशिया में न जाने कितने बार रक्तपात हुआ है और भारत तो इन साम्प्रदायिक विवादों के कारण जर्जर ही हो गया है। अविवेक पोषित मान्यताओं के प्रति पक्षपात एक भयानक दोष है जो व्यक्ति समाज अथवा राष्ट्र को हानि पहुँचाए बिना नहीं रहता।

इस प्रकार का दोष मनुष्य में आता तभी है जब वह किसी बात में निहित सत्यासत्य का निर्णय किये बिना उसे स्वीकार कर लेता है। यह आवश्यक नहीं कि जो मान्यता कभी प्राचीन काल में हितकारी अथवा आवश्यक रही हो वह आज भी उसी प्रकार उपयोगी हो और न यही आवश्यक है कि जो मान्यता, विश्वास अथवा धारणा कुल वंश अथवा समाज में परम्परागत चली आ रही है उसे यथावत अपना ही लिया जाये। नवीन अथवा प्राचीन कोई भी बात क्यों न हो उसे अपनाने से पूर्व किसी भी मनुष्य को अपनी स्वतंत्र विवेक बुद्धि से उसके सत्यासत्य एवं उपयोगिता अनुपयोगिता का निर्णय कर लेना चाहिये। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धि तत्व इसीलिये ही दिया है। किन्तु यह संभव होगा तभी जब अपने मस्तिष्क को पहले से ही किसी मान्यता अथवा विश्वास का दास न बना दिया गया हो और पक्षपात के दोष से उसे सर्वथा मुक्त रखा गया हो। उचित को अपनाना और अनुचित के प्रति दुराग्रह करना ही लक्षण है जिसे मनुष्यता कहा जा सकता है।


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