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February 1967

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श्रद्धा और सन्तुलन-

श्रद्धा जब सीमा को पार कर जाती है तब वह बाह्य आडम्बर का रूप धारण कर लेती है, सतर्कता जब सीमा का अतिक्रमण कर जाती है तब वह भी भीरुता बन जाती है, शक्ति जब सीमा को पार कर जाती है तब औद्धत्य बन जाती है और निश्छलता जब सीमा से बढ़ जाती है तब वह रूढ़ता का नामाँतर बन जाती है। इस प्रकार किसी भी विषय में मनुष्य मात्रा या सन्तुलन का ज्ञान खो बैठता है तब उसका जीवन सामञ्जस्य-हीन बन जाता है। इसलिए सब प्रकार की अतिशयता का बर्जन करके मनुष्य को मध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

-कनफ्पूशियस


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