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August 1967

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सेवा, दिखावटी न हो :-

बहुत से आदमी हर समय सेवा का अभिनय करते रहते हैं, वे अपना सब कुछ परोपकार में लगा देते हैं, किन्तु अपने मन को चुराये रहते हैं, तो क्या उनको सच्चा परोपकारी, परसेवी कहा जायेगा? विश्वस्त माना जायेगा? ऐसे व्यक्ति ठीक वैसे ही सेवक होते हैं; जैसे किसी नाटक में सेवा का पार्ट करने वाले। किसी काम में केवल अभिनय कर देने भर से ही प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।

मानो किसी राजा का एक हाथी रणभूमि में जाकर अपनी पूँछ, दाँत और पैरों से तो काम लेता है किंतु अपनी सूंड को मुँह में छिपाये रहता है तो क्या उसकी सेवा भावना विश्वस्त कही जायेगी? इसी प्रकार यदि कोई मन को छिपाकर अपने सर्वस्व से कितना किसी की सेवा करता हो किंतु सच्चा सेवक अथवा परोपकारी नहीं कहा जा सकता।

अन्य भाव से किया हुआ कोई भी पुण्य कार्य सिद्ध नहीं होता ।

-आनन्दमयी माता


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