किसी संगति में बैठने से पहले यह ध्यान में रखें

August 1967

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यह संसार गुण दोषमय बनाया गया है। इसमें जहाँ अच्छे और भले लोगों का निवास है वहाँ बुरे और गन्दे लोग भी रहते हैं। जहाँ सुख-शान्ति और स्वास्थ्य के साधन हैं वहाँ रोग दोष और कलह क्लेश की परिस्थितियाँ भी पाई जाती हैं। इसीलिये संसार में पग-पग पर सावधान रहकर चलने का निर्देश किया गया है। जो मनुष्य इस गुण दोषमय संसार में सावधान रहकर बुद्धिमत्तापूर्वक चला करते हैं वे संसार के दोष दुर्गुणों से प्रभावित नहीं होते और शान्ति तथा सुखकर जीवन के अधिकारी भी बनते हैं।

जीवन-यापन में सावधानी बरतने का यही अर्थ है कि हम दोष दुर्गुणों तथा ऐसी प्रवृत्तियों से सदा बचते रहें जो जीवन विकास में बाधक बनकर पतन अथवा निरर्थकता की ओर उन्मुख करने वाली हों।

हम सब जिस समाज में रहते हैं उसमें भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों, स्वभावों, रुचियों, आदर्शों, उद्देश्यों तथा मानसिक स्तर के लोग रहते हैं। वे अपनी-अपनी बुद्धि तथा मानसिक स्तर के अनुसार संसार के गुण-दोषों से प्रभावित भी रहते हैं और उसी प्रकार अच्छे-बुरे होकर समाज में व्यवहार किया करते हैं।

समाज के नाते हमें हर प्रकार के मनुष्यों के संपर्क एवं संसर्ग में आने के लिये विवश होना पड़ता है। यदि कोई यह चाहे कि उसके जीवन में सदा सर्वदा गुणी और सत्पुरुष ही आयें और बुरे तथा दुष्ट व्यक्तियों का समागम न हो तो यह संभव नहीं। समाज में दोनों प्रकार के व्यक्ति रहते हैं इसलिये बुरे लोगों का संपर्क में आना अस्वाभाविक नहीं है। वे आयेंगे, परिस्थितियाँ उन्हें ला सकती हैं, आवश्यकता विवश कर सकती है। ऐसी स्थिति में हमारा यही कर्तव्य रहता है कि हम संपर्क में आये व्यक्ति के दोषों से बचे रहें। अपने में इतनी दृढ़ता बनाये रहें कि उनके दोष हमें प्रभावित न कर सकें। बुराई के कारण, परिस्थिति वश आये किसी बुरे व्यक्ति तक से दुर्व्यवहार करना अथवा उससे तिरस्कार अथवा बहिष्कारपूर्ण ढंग से भागना या घृणा का प्रकट करना अपने आप में स्वयं ही एक दोषपूर्ण क्रिया अथवा प्रतिक्रिया है। ऐसा करने से यदि आवश्यकता अथवा उपयोगिता की होने वाली हानि को यदि छोड़ भी दिया जाये तब भी बुरे आदमी से बुराई और द्वेष का डर रहता है। इसीलिये कहा गया है कि ‘बुराई से घृणा करो बुरे आदमी से नहीं।’

यदि हमें सद्गुणों में विश्वास है, हमने अपने अन्दर गुणों की प्रस्थापना कर ली है और अपनी मनोभूमि का विकास इस प्रकार कर लिया है कि उसमें बुराइयों की छाप पड़े ही नहीं, तो फिर किसी बुरे आदमी के संपर्क में आ जाने से कोई भय नहीं रहता। इसके अतिरिक्त यदि किसी ने अपने गुणों को तद्नुकूल कर्मों में ढालकर उन्हें जीवन में मूर्तिमान कर लिया है तब तो किसी के दुर्गुणों से प्रभावित हो सकने का प्रश्न ही नहीं उठता, साथ ही मन वचन और कर्म से परिपालित गुण अपने तेज से अपपुरुष को भी अलौकिक कर देंगे जिससे उसका कम उपकार नहीं होगा। दुर्गुणों से बचने और उन्हें संसार से दूर करने के लिये हर मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने में हर सम्भव उपाय से सद्गुणों का परिपाक करे।

यह बात अवश्य श्रेयस्कर है कि मनुष्य अपनी मनोभूमि को गुण-ग्राहिका तथा अवगुण अग्राहिका बनाये और अपनी प्रवृत्तियों को इस प्रकार ऊर्धस्थ रक्खे कि संसार के दुर्गुण अथवा दुर्व्यसन उन्हें छू ही न सके। ऐसे उदात्त मन और उच्च प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को अवगुणों से कोई डर नहीं रहता तथापि अपने को गुण सिद्ध मानकर चलने का अहंकार भी एक अवगुण है। मनुष्य कितना ही उच्च गुणों तथा अडिग-चरित्र वाला क्यों न हो और क्यों न उसे अपने और अपनी गति पर विश्वास हो तब भी उसे ऐसी स्थितियों, परिस्थितियों तथा व्यक्तियों से हर संभव उपाय के बचे रहने का प्रयत्न करना ही चाहिये जो दोष दुर्गुणों से दूषित एवं कलुषित हों। अनावश्यक रूप से अपनी दृढ़ता को परीक्षा में डालना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती।

किन व्यक्तियों से दूर रहना चाहिये इसकी मोटी-सी पहचान यह है कि जिन व्यक्तियों के संसर्ग से जीवन-विकास के लिये किसी प्रकार की प्रेरणा, प्रोत्साहन अथवा प्रकाश न मिलता हो उनका संपर्क निरर्थक समय नष्ट करने के सिवाय किसी प्रकार की उपयोगिता का लाभ नहीं दे सकता। ऐसे निरुपयोगी व्यक्तियों का साथ करना उचित नहीं और ऐसे व्यक्तियों का संपर्क तो शतप्रतिशत अनुचित एवं अकल्याणकर है जिनका साथ करने से किसी प्रकार की कुरुचि, कुत्सा अथवा कुपरिणाम की संभावना हो। दुर्गुणी व्यक्तियों का संपर्क तो जीवन के लिये साक्षात् विष ही है, उससे तो अपने को इस प्रकार बचाये रहना चाहिये जैसे माँ बच्चे को सतर्कतापूर्वक आग से बचाये रहती है।

ऐसे व्यक्तियों में जिनसे दूर रहने में ही कल्याण है, निन्दक का विशेष स्थान है। निन्दक कभी-भी किसी व्यक्ति के गुण नहीं देखता। परदोष दर्शन तथा छिद्रान्वेषण उसका स्वभाव होता है। वह जहाँ बैठता है दूसरों के दोषों का बखान करता है, कमियों और कमजोरियों की तस्वीरें खींचता है। किसी के प्रति किसी के हृदय में शत्रुता उत्पन्न करने और द्वेष जगाने में पर निन्दक अपनी पूरी चतुरता लगा देता है। किसी निन्दक के संपर्क में हर समय दूसरे के दोष अवगुण तथा बुराइयों को सुनते-सुनते अपने में भी परदोष दर्शन का दोष आ सकता है।

चाटुकार व्यक्ति को भी इसी श्रेणी में रखना चाहिए। चाटुकार का परनिन्दक होना स्वाभाविक ही है। जब तक वह हमारी प्रशंसा के साथ दूसरे की निन्दा नहीं करेगा, चाटुकारी का प्रभाव कम रहेगा। दूसरे की तुलना में अपनी प्रशंसा सुनते-सुनते किसी का भी स्वभाव दूषित हो सकता है जिसका कुप्रभाव जीवन पर पड़े बिना नहीं रह सकता।

अज्ञानी तथा मूढ़ अथवा दुराग्रही व्यक्ति का संग करने का अर्थ है अपने में जड़ता का समावेश करना। अज्ञानी का संपर्क करने से अदूरदर्शिता के साथ संकीर्णता तथा स्वार्थ भावना की वृद्धि होती है जिससे मनुष्य की प्रवृत्तियाँ अधोगामिनी हो जाया करती हैं।

कटु तथा मिथ्यावादी दुर्मुख का संग वाणी का दोष उत्पन्न कर देता है। जिसकी वाणी दूषित हो जाती है वह साधारण सभ्यता के भी नीचे गिर जाता है। बुरा सुनकर मन पर मलीन प्रभाव पड़ता है जिससे दूषित हुए विचार वाणी द्वारा व्यक्त होकर निरादर अथवा अयश का भागी बनाते हैं।

आततायी अथवा अत्याचारी का साथ तो तब भी नहीं करना चाहिये जब कि वह आपके लिये कल्पलता के समान ही लाभकारी क्यों न हो। मिथ्यावादी की तरह आततायी अथवा अन्यायी पलटकर किसी समय आप से भी विश्वासघात कर सकता है। अन्यायी के संपर्क से दूसरों को सताने, दुखाने तथा उनका स्वत्व-हरण करने की प्रवृत्ति होती है जिससे न केवल साँसारिक बल्कि आध्यात्मिक पतन तक हो जाता है।

इनके अतिरिक्त उन व्यक्तियों से तो सर्प तथा बिच्छू की तरह दूर रहना चाहिये जो समाज अथवा राष्ट्र के हित का ध्यान नहीं रखते। ऐसे व्यक्ति गुणी, उदार, विशेषतापूर्ण अथवा महत्वपूर्ण क्यों न हों और क्यों न अपने लिये कितने ही उपयोगी हों तब भी उनसे एक क्षण भी संबन्ध न रखना चाहिये और यदि हो सके तो उनकी इस विकृति का विरोध कर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना चाहिये।

इस प्रकार इन अथवा इन जैसे ही वृत्तियों तथा व्यसनों के रोगी व्यक्तियों को हर प्रकार से अपनी जीवन परिधि से दूर रखना चाहिये और सज्जन सद्गुणी तथा प्रेरणादायक व्यक्तियों का संपर्क करने में तत्पर रहने से जीवन में सफलता तथा सुख-शान्ति की संभावनायें सुनिश्चित होती हैं।

किस का साथ करना और किसका न करना चाहिये यह जान लेना कुछ कठिन नहीं। यदि मन उचित संसर्ग के महत्व को समझे, संपर्क में आने वालों को परखता रहे और जीवन को सावधानीपूर्वक यापित करने में विश्वास करे तो कोई कारण नहीं कि वह वाँछनीय एवं अवाँछनीय व्यक्ति को न परख सके।


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