विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
॥ऋ. वे. 1। 22। 19
किसी धार्मिक ग्रन्थ या वेद वेद-मंत्रों को तोता की भाँति रटने से कुछ लाभ नहीं हो सकता। हमें उन नियमों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए।
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाश मध्यमं चृत
अबाधमानि जीवसे॥
॥ऋ. वेद 1। 25। 21
श्रेष्ठ पुरुष परमात्मा की उपासना द्वारा अपने दुःख और भव बन्धनों को काटकर सुख प्राप्त करते हैं। हमें भी परोपकारी कर्मों के द्वारा सुख प्राप्त करने और बन्धनों से छुटकारा पाने का प्रयत्न करना चाहिए।
सुगः पन्था अनृक्षरः आदित्यास ऋतं यते।
नाभावखादो अति वः॥
॥ऋ. वेद 1। 41।4
सत्य का मार्ग ही कंटक रहित सरल और सुगम होता है अतएव सभी को सत्य का आचरण करना चाहिए।
मा वो ध्नन्तं शयन्तं प्रतिवोचे देवयन्तम्।
सुम्नैरिद्व आ विवासे॥
॥ऋ. वेद 1। 41। 8
जो लोग धर्मनिष्ठ सदाचारी पुरुषों की मित्रता करते हैं और उनकी रक्षा, सद्व्यवहार भोजन; वस्त्र आदि के द्वारा उनका सम्मान करते हैं उन्हें सदैव सुख प्राप्त होता है। दुष्ट दुर्जनों के प्रभाव से सदैव दूर रहना चाहिए। वे विद्वान् हैं जो धर्मात्माओं की मैत्री करते हैं।
मधुनक्त मुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः।
मधु द्यौरस्तु नः पिता॥
॥ऋ. वेद 1। 90। 7
संसार में ऐसे कार्य करने चाहिएं जिससे सभी को सुख-शाँति और प्रसन्नता मिले।
ये पायवो मामतेय ते अग्ने पश्यन्तो
अंधं दुरितादरक्षने।
ररक्ष तान्त्सकृता विश्ववेदा दिप्सन्त
इन्द्रियवो नाह देभुः॥
॥ऋ. वेद 1। 147। 3
परोपकार और परमार्थ के कार्यों में निन्दा लाँछन, उपहास आदि का भय नहीं करना चाहिए। ऐसे मनुष्यों की रक्षा स्वयं परमात्मा करता है अतः निश्चिंत होकर लोक-कल्याण में लगे रहना चाहिए।
सुगो हि वो अर्यमन्मित्र पन्था
अनृक्षरो वरुण साधुरस्ति।
तेनादित्या अधि वोचता ना
यच्छता नो दुष्परिहन्तु शर्म॥
॥ऋ. वेद 2। 27। 6
जिस मार्ग पर धर्मात्मा व विद्वान् पुरुष चले हैं मनुष्यों को उसी वेदोक्त सत्य मार्ग पर चलना चाहिए। जिनसे सत्य की प्रतिष्ठा होती हो ऐसे ही कर्म मनुष्यों को करना चाहिए।
तुभ्यं दक्ष कविक्रतो यानीमादेव
मर्तासो अध्वरे अकर्म।
त्वं विश्वस्य सुरथस्य बोधि
सर्वं तदग्ने अमृत स्वदेह॥
॥ऋ. वेद 3। 14। 7
विद्वान लोग जो धर्माचरण नियुक्त करें मनुष्य उसका पालन करे अर्थात् महापुरुषों की शिक्षाओं का अनुसरण करना चाहिए। सभी लोगों के एक जैसे विचार हों और सभी लोग मिल कर विद्या और सुख की वृद्धि करें।