सवित-आत्मा हमारी बुद्धि धारण करे

August 1967

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साधना से उदात्त जीवन की जो प्रेरणा और प्रखरता अन्तःकरण में आनी चाहिए वह नहीं आती तो परमात्मा का उपासक निराश होता है और साधना की व्यर्थता अनुभव करने लगता है। इस सीढ़ी पर पाँव रख कर आत्म-कल्याण के इच्छुकों को जानना चाहिए-देव शक्तियों और परमात्मा के जो सनातन नियम हैं उनकी अवहेलना करने की शक्ति उनमें भी नहीं है।

क्रमिक विकास ही वह नियम है जिस से हम संसार के कर्मफल में बँधे हुए हैं। एक माह तक कार्यालय में काम करने के बाद वेतन मिलता है, निश्चित मात्रा तक वाष्प और उष्णता ग्रहण करने के बाद ही इंजिन चलता है, गर्मियों में सूर्य जब अपनी प्रचण्ड ताप शक्ति से तप लेता है तब कहीं बरसात आती है। मनुष्य का जन्म भी क्रमिक विकास के इस सिद्धाँत से परे नहीं जा सकता। नौ माह दस दिन तक माँ के गर्भ में पकने के बाद ही धरती में आने का सौभाग्य उसे मिल पाता है।

बीच के समय प्रयत्न और आवश्यक तैयारी के होते हैं। जो लोग इस तैयारी में जितनी अधिक बुद्धि खर्च करते हैं, लगन और तत्परता व्यक्त करते हैं फल भी उन्हें वैसा ही स्वस्थ और परिपुष्ट मिलता है। अधीर, उद्विग्न, समय से पूर्व फल चाहने वालों को फल की प्राप्ति दूर, कई बार जोखिम में भी पड़ते देखा गया है।

शास्त्रकार ने अपनी इसी बात को एक किसान का उदाहरण देते हुए कहा-

क्षेत्रे बिना प्रयत्नेन वन्यतृण समुद्भवः॥

भूयो भूयाः कृषे पक्षे महानर्थाय जायते॥

“किसान खेत में बीज बोता है। पौधे उगते हैं। बीच में जंगली घास-पात बिना प्रयत्न के ही उग आती है वह कृषि को हानि पहुँचाती है।”

आत्म-विकास की उपासना भी ऐसी ही है। मनोभूमि पर पड़े हुए पूर्व जन्मों के दुर्गुणों कुविचारों के बीज बिना प्रयत्न अपने आप उगा करते हैं। कई बार तो मन की स्थिति ऐसी असमंजस पूर्ण बन जाती है कि पता भी नहीं चलता कि जिस कुविचार की कल्पना एकाएक सूझ पड़ी वह तो कभी मेरे द्वारा हो नहीं सकती थी। किन्तु वह किसी अज्ञात जन्म, पूर्व योनि की क्रियाओं का संस्कार होती है जिसे हम प्रत्यक्ष नहीं जानते पर वह हमें विचलित करती है। ऐसे समय मनुष्य क्या करें सूक्ष्मदर्शी शास्त्रकार ने उसका उपाय भी बताया है-

कृषकस्य प्रयत्नेन सावधानस्य नित्याशः।

वारणं क्रियते तेषाँ कृषे रक्षा च जायते॥

“चतुर किसान जानते हैं कि यह बिना प्रयत्न उगा हुआ खर-पतवार कृषि के लिये हानिकारक है अतएव वह नित्य नियमपूर्वक उनकी निराई करता रहता है।”

एवं चित्ते स्वभावेन नाना दुर्वासनोदयः।

जायमानो मनुषस्य क्लेश सन्ततिकारणम्॥

केवलं तत्र यत्नेन भूयोभूयः कृतैन वै।

निरोधः शक्यते कर्तुं तासामुन्मूलनं तथा॥

मनुष्य के चित्त में भी उसी प्रकार दुर्वासनाओं के अनेक खर-पतवार उगते रहते हैं जिनके कारण दुःख और क्लेश अनुभव होता है। इस स्थिति का निरोध किसान की तरह केवल बार-बार किये गये प्रयत्नों से ही सम्भव है। इनका उन्मूलन तो सावधानी से प्रयत्नपूर्वक ही किया जा सकता है।

प्रयत्नों को शास्त्रकारों ने चतुरता की संज्ञा दी हैं। उन्होंने केवल यही नहीं कहा कि जो लोग मन में पैदा हुई दुर्वासनाओं को प्रयत्नपूर्वक हटाते रहते हैं वही लक्ष्य तक पहुँच सकते है वरन् उसका संबल भी बताया है-

धीरैरुत्साहसम्पन्नैः श्रद्धाविश्वास धारिभिः।

कर्तु तत्पार्यते नैव संशयाविष्ट मानसैः।

“श्रद्धा और विश्वास को धारण करने वाले उत्साही धीर वीरों द्वारा ही दुर्वासनाओं और अमंगल विचारों का निरोध और उन्मूलन किया जा सकता है जिसके मन में संशय है, फल के प्रति आशंका रहती है वे इस कार्य में पिछड़ जाते हैं बीच में ही प्रयत्न छोड़ देते हैं।

श्रद्धा और विश्वास की शिक्षा किसान से पाई जा सकती है। किसान जानता है कि फल डालने के बाद फसल उगना अवश्यम्भावी है। फल की इसी सुनिश्चितता का नाम है विश्वास और विश्वास के प्रति आशा उत्साह आदि का नाम श्रद्धा है। केवल विश्वास ही पर्याप्त नहीं श्रद्धा भी होनी चाहिए। आशा और उत्साह बना रहता है तो फल की परिपक्वता, विश्वास की पुष्टि तक का समय सरल और सुरुचि पूर्ण बन जाता है। प्रयत्नों में मन लगा रहता है। कदाचित आधी फसल उग आने पर किसान कहे-मालूम नहीं फसल आयेगी भी या नहीं और इस संशय के साथ ही वह अपना प्रयत्न परित्याग दे तो फल की आशा नष्ट होगी ही अब तक का प्रयत्न भी निरर्थक चला जायेगा। दुबारा सफलता के लिये फिर एक नये सिरे से श्रीगणेश करना पड़ेगा।

इसमें कोई संदेह नहीं कि वासनायें और कुविचार क्षणिक होते हैं। देर तक चित्त में बने रहने वाले, सुख और आह्लाद देने वाले शुभ संकल्प और स्वस्थ विचार ही होते हैं। इसलिये किसी विधि उठने वाली दुर्वासनाओं को सफलता का संकेत मानकर संतोष तो करना चाहिए किन्तु उनके उन्मूलन में चतुर किसान की तरह सजग और जागरुक रहने वाले जीवन-साधक अन्त में सफलता का सुख पाते हैं।

तस्य देवस्य सवितः प्रसवानाँ य ईशिता।

प्रकाश प्रेरणाँ लब्ध्वा वस्तुतो जीवन प्रदाम्॥

नष्टा ये दुष्ट संस्कारास्तेषाँ खाद्येन नित्यशः।

सद्विचाराः प्ररोहन्ति शुभ संकल्प वारिणा॥

अन्त में शास्त्रकार ने कहा-सविता स्वरूप तेजस्वी परमपिता परमात्मा उन्हें अपना प्रेरणापुँज प्रतिदान कर सुखी बनाता है जो उसकी उपासना करते हैं। पर उसके लिये प्रयत्न की आवश्यकता है। इसी का नाम साधना है। अर्थात् जो लोग अपने शुभ संकल्पों को बढ़ाते हैं और दुर्वासनाओं को उनकी खाद बनाकर डालते जाते हैं अन्त में उनके प्रयत्नों की कृषि सफल होती है और सविता-आत्मा उनकी बुद्धि को धारण करते हैं अर्थात् उनको अपने ही समान प्रखरता और तेजस्विता से भर देते हैं।


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