(1)
पखेरू का रोना है यही कि बिखरे तिनके चुन-चुन कर।
बनाया था जो मैंने नीड़ परिश्रम से सर धुन-धुन कर॥
उसी ने मेरे उड़ते समय एक भी बार न साथ दिया।
जिसे समझा था अपना सगा, उसी ने मुझ से दगा किया॥
(2)
नीड़ का यही उलाहना है कि वृक्ष मैंने सम्पन्न किया।
जहाँ सब गूँगे फल थे वहाँ चहकता फल उत्पन्न किया॥
मगर जब किसी क्रूर ने हाथ मार तिनकों को बिखराया।
उस समय प्रतिशोधन तो दूर वृक्ष प्रतिरोध न कर पाया॥
(3)
वृक्ष की यही शिकायत है कि छत्रवत मैंने छाया की।
अँगारे अपने सर पर झेल धरा की शीतल काया की॥
किन्तु आँधी के भीषण वेग जब कि लाये दुस्सह बाधा।
उस समय पैर उखड़ते देख धरा ने मुझे नहीं साधा॥
(4)
सभी के उपालम्भ यों उतर रहे हैं धरती के घर में।
मगर वह बेचारी क्या करे? पड़ी खुद दुहरे चक्कर में॥
-शिशुपाल सिंह “शिशु”
*समाप्त*