बासी मन ताजा करो-
श्रावस्ती का मृगारि श्रेष्ठि करोड़ों मुद्राओं का स्वामी था। वह मन में अपनी मुद्रायें ही गिनता रहता था। उसे धन से ही मोह था। मुद्रायें ही उसका जीवन थीं। उनमें ही उसके प्राण बसते थे। सोते-जागते मुद्राओं का सम्मोहन ही उसे भुलाये रहता था। संसार में और भी कोई सुख है यह उसने कभी अनुभव ही नहीं किया ।
एक दिन वह भोजन के लिये बैठा। पुत्रवधू ने प्रश्न किया-’तात भोजन तो ठीक है न? कोई त्रुटि तो नहीं रही? मृगारि हँसा और कहने लगा- आयुष्मती! आज यह कैसा प्रश्न पूछ रही हो? तुम जैसी सुयोग्य पुत्रवधू भी कहीं त्रुटि कर सकती है, तुमने तो मुझे सदैव ताजे और स्वादिष्ट व्यंजनों से तृप्त किया है।
विशाखा ने निःश्वास छोड़ी, दृष्टि नीची करके कहा- आर्य ! यही तो आपका भ्रम है। मैं आज तक सदैव आपको बासी भोजन खिलाती रही हूँ। मेरी बड़ी इच्छा होती है कि आपको ताजा भोजन कराऊँ पर ऐषणाओं के सम्मोहन ने आप पर पूर्णाधिकार कर लिया है। खिलाऊँ भी तो आपको उसका सुख न मिलेगा। आपका जीवन बासी हो गया है फिर मैं क्या करूं?
मृगारि को सारे जीवन की भूल पर बड़ा पश्चाताप हुआ। अब उसने भक्तिभावना स्वीकार की और धन का सम्मोहन त्याग कर धर्म कर्म में रुचि लेने लगा।