सुखी जीवन की कुँजी-सुनियोजित जीवन

August 1967

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पड़ोस में दो व्यक्तियों के मकान हैं। एक साधन सम्पन्न व्यक्ति है। नाम है सम्पतलाल। दूसरा एक कचहरी में काम करने वाला क्लर्क जीवनदास। इनको वेतन के रूप में कुल 120) मिलते हैं। सम्पतलाल की बहुत बड़ी टाइप फाउंड्री है। कई हजार मासिक की आमदनी है।

अन्तर हर पड़ोसी-पड़ोसी में रहता है। कोई धनी कोई निर्धन, किसी के पास विद्या अधिक, कोई बुद्धिहीन, कोई अपने साधन पर निर्वाह करता है, किसी ने उधार खाने की आदत डाल ली है। किसी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा है कोई खा-पीकर भी दुबला है। विविधता पूर्ण संसार है यहाँ व्यक्ति-व्यक्ति में अन्तर स्वाभाविक है।

जीवन विकास के लिये यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी विशिष्टता को बढ़ाकर अपना ऐसा विकास करे कि वह अपना, आश्रित परिजनों का जीवन उत्कृष्ट श्रेणी का बनाता हुआ मानवीय उद्देश्य की प्राप्ति के लिये अग्रसर होता चले। इस जीवन की शान्ति ही पारलौकिक शान्ति है, इस जीवन का सन्तोष ही पारलौकिक संतोष है। इस जीवन का सुख ही पारलौकिक सुख है, इसलिये स्वर्ग पाना है तो इसी जीवन को स्वर्ग बना लो। अधःपतित स्थिति में तो आगे की बात कौन कहे यही जीवन नरक तुल्य होता है।

इन दोनों स्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये सम्पतलाल और जीवनदास का उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा। सम्पतलाल की बड़ी हवेली है। बैंक में पैसा जमा है, और भी सब साधन मुहैया हैं, यदि कोई वस्तु उनके घर में नहीं है वह है सुख-शान्ति और संतोष।

जीवनदास के घर में भी लगभग उतने ही आदमी हैं। बैंक में पैसे नहीं जमा। घर भी बहुत साधारण श्रेणी का है। एक लड़का दो लड़कियाँ पढ़ती भी हैं। कभी पूछो- “जीवनदास कुशल-मंगल तो है?” तो एक ही उत्तर मिलता है-”खूब आनन्द से जिन्दगी कट रही है, बच्चे सुखी हैं, किसी का लेना नहीं देना नहीं।”

सौभाग्यजनक स्थिति में दुर्भाग्य और अभावग्रस्त स्थिति में आनन्द इन दोनों बातों का अन्तर काफी दिन बाद समझ में आया। सो भी जीवनदास के मुख से सारी बात मालूम हुई। एक दिन उसी से पूछ लिया-क्यों जी-जीवन बाबू तुम कहते हो हम बड़े सुखी हैं, तब जबकि आमदनी कम है और यह सम्पतलाल तो पूरे सम्पतलाल हैं, फिर इनके घर हाय-तोबा मचा रहता है यह क्यों?

जीवनदास हँस कर बोले-उनके यहाँ सब स्वतन्त्र हैं, परम स्वतन्त्र। वैसे ही उन सबकी इच्छायें और वृत्तियाँ स्वतन्त्र हैं। सब मनमाना पैसा पाते हैं और उसे जी चाहे जहाँ खर्च करते हैं। आर्थिक नियंत्रण न होने से बच्चे बिगड़ गये हैं, रोज एक टंटा मोल ले आते हैं, स्त्रियों में परस्पर अधिकार के लिये झगड़ा होता है। सम्पतलाल समझते हैं कि वह करोड़ों कमा कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं पर उनका किसी पर कोई नियंत्रण नहीं। सच पूछो तो वे -घर के लोग कहाँ जा रहे, क्या कर रहे हैं, इसका भी कुछ पता नहीं रखते।

रही अपनी बात, सो जितनी आय उतना व्यय। बच्चों को 1) तब देते हैं जब पिछले एक रुपये का हिसाब मिल जाता है। बच्चे भी नई कापी तब खरीदते हैं जब पुरानी खतम हो जाती है। बाजार में खाने-पीने की आदत डाली नहीं, जो कुछ बनता है चौके में बनता है और सब लोग वहीं बैठ कर बराबर खा लेते हैं। सब एक दूसरे के हित और आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं। अब आप ही बताइये हमारे घर क्यों ऊधम होने लगा? सब अपने-अपने काम से लगे हैं।

दोनों व्यक्तियों के रहन-सहन और परिस्थितियों की तुलना करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सुखी जीवन के लिये प्रत्येक वस्तु का योजना पूर्वक उपयोग आवश्यक है। नियन्त्रण और सुचारु रूप से बरती थोड़ी सी वस्तु, साधारण सी स्थिति भी यथेष्ट सुख और आनन्द दे सकती है जब कि अनियंत्रित, आयोजनाबद्ध बड़े लाभ बड़े काम उतने ही दुःखदायी होते हैं।

मनुष्य जीवन एक बौद्धिक कला है, जिसे सम्पन्न करने के लिये परमात्मा ने अनेक आवश्यक और उपयोगी शक्तियाँ दी हैं। शक्ति का योजना पूर्वक अपनी व दूसरों की भलाई में उपयोग करने की कला जिसे आ जाती है वह थोड़े से साधनों में भी आनन्द लाभ प्राप्त कर सकता है, जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है।

जो लोग साधारण परिस्थितियों से उठकर बड़े व्यवसायी, सफल नेता अथवा महान् व्यक्ति बने हैं उनके जीवन में आत्म-शक्तियों के सुनियोजित व्यवहार ही ऊपर उठने के आधार रहे हैं। जिन लोगों ने सफलता के मद में आकर उन आधारों को छोड़ दिया है वे उच्च स्थिति से गिर कर बिल्कुल चकनाचूर भी हो गये हैं। जीवन का सनातन नियम है अपनी शक्तियों को सही दिशा में योजनापूर्वक उपयोग कर आगे बढ़ना। उसी का उल्टा रूप असन्तोष, अशान्ति, फूट-कलह, कटुता और नरक के रूप में प्रस्फुटित और परिलक्षित होता है।

जरूरत से अधिक पैदा करना, बुरा नहीं। अपनी स्थिति से औरों की स्पर्धा कर आगे बढ़ना भी बुरा नहीं। आज की अपेक्षा कल का जीवन अधिक सुखद सुरुचिपूर्ण रहे यह तो ठीक है पर यह ध्यान प्रतिक्षण रहे कि गतिविधियों का संचालन करने वाला स्टियरिंग-अपना सन्तुलन न बिगड़ने दें। निर्माण से अधिक खर्च और आवश्यकता से अधिक उपभोग की आदत ही मनुष्य को दुःखद स्थिति में पहुँचाती है। उसके लिये सम्पतलाल और जीवनदास दोनों एक जैसे हैं। जो उस नियम पर चलेगा सुखी रहेगा, इसके विपरीत चलने वाला कष्ट भोगेगा, कलह में पड़ा रहेगा।

हमारा एक उद्देश्य होना चाहिये-आत्मोन्नति। आत्मोन्नति बड़ा व्यापक शब्द है आत्मोन्नति का भाव अपने आप तक ही सीमित नहीं, वह सार्वभौमिक हित का बोध कराता है। हम अपना ध्येय अपना तथा औरों का हित करना बना लें और फिर यह सोचते रहें कि उस ध्येय की सिद्धि कैसे हो ? इसी विचार को यदि कार्य रूप में परिणत करते समय इतनी योग्यता और प्राप्त कर ली जाय कि उसका सुव्यवस्थित ढाँचा क्या हो तो फिर मार्ग और साधन अलग-अलग होते हुये भी सुखी जीवन जिया जा सकता है। जीवन दास के जीवन में यही विशेषता है जब कि सम्पतलाल के जीवन में शेष सब कुछ है, नियोजन नहीं है इसी से उनका जीवन असफल और दुःखी है।

जीवन विकास के लिये हमें जीवन दास की तरह सुनियोजित और सुव्यवस्थित जीवन जीना चाहिए। सुखी जीवन की यह व्यावहारिक कुँजी है।


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