गायत्री महाशक्ति का तत्वज्ञान और विवेचन

August 1967

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गायत्री उपासना का बड़ा महत्व एवं माहात्म्य है। उसे आत्म-कल्याण और बाह्य जीवन में अपरिमित विभूतियाँ प्राप्त करने का आधार बताया गया है। आत्म-शक्ति पढ़ने से मनुष्य की भौतिक प्रतिभा का बढ़ना स्वाभाविक है। आत्म-शक्ति बढ़ाने के लिये उच्चतम चरित्र और व्यवस्थित जीवन क्रम की तो आवश्यकता है ही, साथ ही गायत्री उपासना जैसी तपश्चर्याओं को भी इस संदर्भ में अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझना चाहिये। आत्म-बल अभिवर्धन के लिये जिन उपासनाओं का प्रतिपादन किया गया है उनमें गायत्री सर्वश्रेष्ठ है।

उपासना से पूर्ण गायत्री का तात्विक स्वरूप जानना आवश्यक है। वस्तुस्थिति को जाने बिना कार्य करने लगना एक प्रवंचना मात्र है, उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध, नहीं होता। इसलिये साधना मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने मार्ग की दिशा एवं तात्त्विकता को भी समझना चाहिये। अनजान रहने पर न तो पूरा विश्वास होता है और न पक्की श्रद्धा जमती है। अज्ञान एक अन्धकार है जिसमें पग−पग पर आशंका एवं अश्रद्धा की संभावना बनी रहती है। ऐसी मनःस्थिति में आध्यात्मिक सफलता का पथ कंटकाकीर्ण ही बना रहता है।

रामायण में कहा गया है-

जाने बिनु न होई परतीती।

बिन प्रतीति होई किमि प्रीति॥

बिन प्रीति किमि भक्ति दृढ़ाई।

जिमि खगेश जल की चिकनाई॥

आवश्यक जानकारी के बिना प्रतीति अर्थात् विश्वास में दृढ़ता नहीं आती। जब प्रतीति (विश्वास) ही परिपक्व नहीं तो प्रेम, लगन, निष्ठा, तत्परता कैसे उत्पन्न हों! जब सच्ची प्रीति ही नहीं तो भक्ति किस बात की! पानी में थोड़ी सी चिकनाई (तेल) डालने पर वे परस्पर मिलते नहीं। तेल ऊपर ही तैरता रहता है उसी प्रकार वस्तुस्थिति का सम्यक् ज्ञान हुए बिना उपासना क्रम का अन्तःकरण में गहरा प्रवेश नहीं हो पाता। अस्थिर मति और भक्ति रहित अन्तःस्थिति से किया हुआ पूजा-पाठ कोई विशेष फलप्रद नहीं होता, इसलिये मनीषियों ने साधन के लिये जितना बल दिया है उतना ही उसका तत्वज्ञान जानने के लिये भी कहा गया है। ज्ञान की उपेक्षा कर केवल कर्मकाण्ड करते रहने से अभीष्ट प्रयोजन पूरा नहीं होता।

इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये ‘शतपथ ब्राह्मण’ में एक मार्मिक उपाख्यान का उल्लेख मिलता है। राजा जनक तो गायत्री उपासना से पूर्णता को प्राप्त कर सके पर उनका पुरोहित, जो उनसे भी अधिक पूजा-पाठ में संलग्न रहता था उसे कुछ भी फल प्राप्त न हुआ वरन् पशु की योनि में चला गया।

काण्डिका इस प्रकार है-

एतद्धवै तज्जनको द्यैदेही वुडिल माश्वतं राश्वि मुवाच यन्तु हो तद गायत्री विदब्रूथाऽअथ कथ œ हस्ती भूतोव्वह सीमि मुखंह्यस्या सम्राशन विवाँच करेति हो वाच। तस्याऽग्निरेव मुखं यदि हयाऽअपि वन्हि वाग्नावभ्यादधति सर्वमेव तत्सन्द हत्येब व œ है वैव विद्यद्यपि वन्हिव पापंकरोति सर्वमेव सत्संरसा शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः संभवति।

-शतपथ

अर्थात्-राजा जनक के पूर्व जन्म के पुरोहित ‘वुडिल’ मरने के उपरान्त अनुचित दान लेने के पाप में हाथी बन गये। किन्तु राजा जनक ने विज्ञान तप किया और उसके फल से वे पुनः राजा हुए। राजा ने हाथी को उसके पूर्व जन्म का स्मरण दिलाते हुए कहा-आप तो पूर्व जन्म में कहा करते थे कि-मैं गायत्री का ज्ञाता हूँ? फिर अब हाथी बनकर बोझ क्यों ढोते हैं?

हाथी ने कहा-मैं पूर्व जन्म में गायत्री का मुख नहीं समझ पाया था। इसलिये मेरे पाप नष्ट न हो सके।

गायत्री का प्रधान अंग-मुख-अग्नि है। उसमें जो ईंधन डाले जाते हैं, उन्हें अग्नि भस्म कर देती है। वैसे ही गायत्री का मुख जानने वाला-आत्मा-अग्निमुख होकर पापों से छुटकारा प्राप्त कर अजर अमर हो जाता है।

मुख से तात्पर्य तत्संबंधी प्रशिक्षण में आवश्यक जानकारी से है। ज्ञान को मुख से कहा जाता है। गायत्री को ‘गुरु मंत्र’ कहते हैं। गुरु मंत्र से उस मंत्र का प्रयोजन है जो विस्तार पूर्वक विशद विवेचना के साथ शिष्य के मस्तिष्क एवं अन्तःकरण में उतारा जाय। स्पष्ट है कि इस महाविद्या की उपासना करना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसका आवश्यक विवेचन, विश्लेषण भी हृदयंगम करना आवश्यक है।

गायत्री क्या है? इस संबन्ध में शास्त्रकारों ने बहुत कुछ कहा है। विश्व ब्रह्माण्ड के निर्माता, संचालक एवं नियामक परब्रह्म परमात्मा की चेतना एवं क्रियाशक्ति का नाम ‘गायत्री’ है। उसके साथ जिस वैज्ञानिक विधि के साथ संपर्क स्थापित किया जा सकता है उसका नाम ‘उपासना’ है। गायत्री उपासना-अर्थात् वह क्रिया जिसके द्वारा मनुष्य अपनी अन्तःचेतना को पराशक्ति के साथ जोड़ कर ब्रह्म वर्चस् के अनुपम लाभ का अधिकारी बनता है।

गायत्री क्या है? कैसे उत्पन्न हुई? उसका प्रयोजन तथा स्वरूप क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार मिलता है-

सर्वे वै देवा देवी मयतस्थु कासि त्वं महादेवी। सा ब्रवीदहं ब्रह्म रूपिणी, मनः प्रकृति पुरुषात्मकं जगदत्पन्नम्।

-श्रुति

“सब देवगण भगवती महाशक्ति के पास गये और उन्होंने पूछा- ‘हे भगवती आप कौन हैं?’ इस पर भगवती ने कहा- “मैं ब्रह्म रूपिणी हूँ। मुझसे ही यह प्रकृति पुरुषात्मक संसार हुआ है।”

स वै नैव रेमे। तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीय-मैच्छत। सहैतावानास यथा स्त्रीपुमासौ संपरिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वेधापातयत्ततः पतिश्च पत्नी चाभवताम्।

(महोपनिषद्)

“वह रमण नहीं कर सका क्योंकि अकेला कोई भी रमण नहीं कर सकता। उसने दूसरे की इच्छा की। वह ऐसा था जैसे स्त्री-पुरुष मिले हुए होते हैं। उसने अपने इस रूप के दो भाग किये, जो पति और पत्नी हो गये।”

न हि क्षमस्तथात्मा त्र सृष्टि सृष्ट तया बिना।

(देवी भा. 9/2/9)

“बिना तुम्हारी शक्ति के आत्मदेव सृष्टि की रचना नहीं कर सकते।”

देवीह्येकाऽयम् आसीत्। सैव जगदण्ड मसृजत्......... तस्या एव ब्रह्मा अजी अनत्। विष्णु रजी जनत्........... सर्वमजी जनन्.....................सैवा पराशक्तिः।

-वृहवृचोपनिषद

“सृष्टि के आरम्भ में वह एक ही दैवी शक्ति थी। उसी ने ब्रह्माण्ड बनाया, उसी से ब्रह्मा उपजे। उसी ने विष्णु रुद्र उत्पन्न किये। सब कुछ उसी से उत्पन्न हुआ। ऐसी है वह पराशक्ति।”

कारणत्वेन चिच्छक्त्या रजस्सत्वतमोगुणैः।

यथैव वटबीजस्थः प्राकृतोऽयं महाद्रुमः॥

“वटबीज में जिस प्रकार महावृक्ष सूक्ष्मरूप से विद्यमान् रहता है और उत्पन्न होकर एक महावृक्ष के रूप में परिणत हो जाता है, वैसे ही प्राकृत ब्रह्माण्ड चित्-शक्ति से उत्पन्न होता है।”

आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् नान्यत् किंचन मिषत् प्रज्ञा प्रतिष्ठा।

(ऐतरेयोपनिषद्)

“सृष्टि से पहले आत्म-शक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ न था।”

आसीदेवेदमग्र आसीत् तत्समभवत्।

(छान्दोग्य)

“सृष्टि से पहले चिति-शक्ति ही सूक्ष्म सत्ता से विराजमान रहती है।”

निर्दोषो निरविष्ठेयो निरवद्यः सनातनः।

सर्वकार्य करी साहं विष्णोरव्यय रुपिणः॥

-लक्ष्मी तन्त्र

वह ब्रह्म तो निर्विकार, निरविष्ठ, निरवद्य, सनातन एवं अव्यय है। उनकी सर्व कार्यकारिणी शक्ति तो मैं ही हूँ।

परमास्तु या लोके ब्रह्म शक्ति विराजते।

सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्रीत्यभिधीयते॥

-गायत्री संहिता

सब लोकों में विद्यमान जो सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति है, वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं सतोगुणी प्रकृति में निवास करती है। वह चेतन शक्ति गायत्री है।

निर्दोषो निरधिष्ठेयो निरवद्यस्सनातनः।

विष्णुर्नारायणःश्रीमान् परमात्मा सनातनः॥

षाड्गुण्यविग्रहों नित्यं परं ब्रह्माक्षरं परम्।

तस्य माँ परमाँ शक्ति नित्यं तर्द्धमधर्मिणीम्॥

सर्व भावानुगाँ विद्धि निर्दोषामनपायिनीम्।

सर्व कार्य करी साहं विष्णोरव्ययरुपिणः॥

व्यापारस्तस्य साहमास्मि न संशयः।

मयाकृतं हि यर्त्कम तेन तत्कृतमुच्यते॥

“मैं नित्य, निर्दोष, निरवयव, परब्रह्म परमात्मा श्रीमन्नारायण की शक्ति हूँ। उनके सब कार्य मैं ही करती हूँ। इस सृष्टि का संचालन करने वाला जो ब्रह्म कहा जाता है उसकी परम शक्ति मैं ही हूँ और मैं ही सदैव उन कार्यों की पूर्ति किया करती हूँ। मैं उनकी व्यापार रूप हूँ। अतएव मैं जो कार्य करती हूँ वही उन्हीं का किया हुआ कहा जाता है।”

उपरोक्त प्रमाणों से यही प्रकट होता है कि अचिन्त्य निर्विकार परब्रह्म को जब विश्व-रचना की क्रीड़ा करना अभीष्ट हुआ तो उनकी वह आकाँक्षा शक्ति के रूप में परिणत हो गई। वह शक्ति जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त होकर परा-अपरा प्रकृति कहलाई। उसी का नाम गायत्री-सावित्री पड़ा। यह महाशक्ति ही सृष्टि निर्माण के लिये सभी आवश्यक उपकरण जुटाती है और उनका निर्माण, विकास एवं विनाश प्रस्तुत करती है। इस दृश्य जगत् में जो कुछ विद्यमान है वह उसी महाशक्ति का स्वरूप है। उसमें जो परिवर्तन हो रहे हैं-उपक्रम चल रहे हैं। उनके पीछे उसी महान् शक्ति की सामर्थ्य सक्रिय है। ब्रह्म तो साक्षी दृष्टा है। उसका समस्त क्रिया-कलाप इस गायत्री महाशक्ति द्वारा ही परिचालित हो रहा है। प्रमाण देखिये-

स्पन्दशक्तिस्तथेच्छेदं दृश्याभासं तनोति सा।

साकारस्य नरस्येक्षा यथा वै कल्पनापुरम्॥

(योग व. 6/2/84/6)

“भगवान् की स्पन्द-शक्ति रूपी इच्छा उसी प्रकार इस दृश्य जगत का प्रसार करती है जैसे कि मनुष्य की इच्छा कल्पना नगरी का निर्माण कर लेती है।”

तत्सद् ब्रह्मस्वरूपा त्वं किंचित्सद्सदात्मिका।

परात्परेशी गायत्री नमस्ते मातरम्बिके॥

-स्कन्द.

इस संसार में जो कुछ सत्-असत् है, वह सब हे ब्रह्मस्वरूपा गायत्री! तुम्हीं हो, परा और अपरा शक्ति गायत्री माता आपको प्रणाम है।

गायत्री वा इदं सर्व भूतं यदिदं किंच।

(छान्दोग्य. 3/12/1)

“जो कुछ था और जो कुछ है अर्थात् यह समस्त विश्व गायत्री रूप है।”

उपरोक्त वाक्य की व्याख्या करते हुए भगवान शंकराचार्य ने लिखा है-

“गायत्रीद्वारेण चोच्यते ब्रह्म, ब्रह्मणः सर्वविशेषपरहितस्य नेतिनेतीत्यादि विशेषप्रतिषेधगम्यस्य दुर्बोधत्वात्।”

“जाति गुण आदि समस्त विशेषों से रहित अर्थात् निर्विशेष होने के कारण ब्रह्म केवल निषेधमुख से ही सम्यग् रूपेण जाना जाता है, अतः वह दुर्विज्ञेय है। उसी को सर्व साधारण के लिये सुलभ करने को भगवती श्रीगायत्री द्वारा सविशेष ब्रह्म का उपदेश करती है।”

अपरा विद्या-

अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पोव्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।

(मुण्डकोप. 1/1/5)

“अपरा विद्या का आशय है-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और उनके अंग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष।”

अपराविद्यागोचरं संसारं व्याकृतविषयं साध्यसाधन लक्षणं अनित्यम्।

(शंकराचार्य कृत प्रश्नोपनिषद् भाष्य)

“अपरा विद्या प्रत्यक्ष विषयों से और विनाशशील पदार्थों से संबन्धित, साध्य विषयों का समाधान करने वाली और अनित्य होती है।”

पराविद्यागम्यम् असाध्य साधन लक्षणम् अप्राणमनो-गोचरम् अतीन्द्रियाविषयं शिवं शान्तम् अविकृतमक्षरं सत्यं पुरुषाख्यम्।

(शंकराचार्य कृत प्रश्नोपनिषद् की व्याख्या)

“पराविद्या से असाध्य विषय भी साध्य हो जाता है, अन्तरंग का ज्ञान कराती है, अतीन्द्रिय विषयों को प्रत्यक्ष कर देती है, अविनाशी, अक्षर सत्य और भगवत् स्वरूप है।”

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते।

स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च॥

(श्वेता. 6/8)

“उस परमेश्वर की पराशक्ति ज्ञान, बल, क्रिया युक्त विभिन्न प्रकार की सुनी गई है।”

सदैकत्वं न भेदोऽस्ति सर्वदैवममास्य च।

योऽसो साहमहं योऽसौ भेदोऽस्ति मतिविभ्रमात्॥

(देवी भागवत)

“मेरा और ब्रह्म का सदा एकत्व है, किसी प्रकार का कभी भेद नहीं रहता। जो वे हैं वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही वे हैं। केवल बुद्धिभ्रम से इसमें भेद प्रतीत होता है।”

एकैव माया परमेश्वरस्य,

स्वकार्यभेदाद्भवति चतुर्धा।

भोगे भवानी समरे च दुर्गा,

क्रोधे च काली पुरुषे च विष्णुः॥

“यह महामाया परमेश्वर की एकमात्र शक्ति है जो कार्यभेद से चार प्रकार की हो जाती है। भोग की दृष्टि से वह भवानी है, समर के लिये दुर्गा है, क्रोध के समय काली बन जाती है और पुरुष रूप में विष्णु हो जाती है।”

आराध्या परमाशक्तिः सर्वैरपि सुरासुरै।

नातः परतरं किंचिधिकं भुवनत्रये॥

(शुकदेव)

“वह पराशक्ति सब की आराध्या है, सुर और असुर सब उनकी उपासना करते हैं। तीनों लोकों में कोई उनके समान नहीं है, उनसे बढ़ कर होने का तो प्रश्न ही नहीं है।”

कारणावस्थयापन्ना सदाहं धातृरुपिणी।

नाकार्य में हि यत् किंचित सदाहं ह्यक्षरा परा॥

कार्यभाव समापन्ना सदा प्रकृतिरुपिणी।

तदा ब्रह्मादया सर्वे सर्वेऽप्याविर्भवन्ति हि॥

“कारणावस्था को प्राप्त होकर मैं सदा ब्रह्मरूपिणी रहती हूँ। जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब मेरा ही कार्य है। मैं सदा से अक्षर रूपिणी और पराशक्ति हूँ। कार्यावस्थापन्न होकर मैं प्रकृति रूपिणी हो जाती हूँ, उसी समय ब्रह्मादि देव और अन्य सभी मुझसे प्रकट होते हैं।”

यस्यादृष्टो नैव भूमण्डलाँशो,

यस्यादासो विद्यते न क्षितीशः।

यस्याज्ञातं नैव शास्त्रं किमन्यैः,

यस्याकारः सा पराशक्तिरेव॥

(योगी उमानन्द)

“पराशक्ति वह है जिसके लिये संसार का कोई भी भाग अदृष्ट नहीं है। कोई ऐसा राजा नहीं जो उसका दास न हो, कोई ऐसा शास्त्र नहीं जिसे वह न जानती हो।”

तं विलोक्य महेशानि सृष्ट्युत्पादन कारणात्।

आदिनाथं मानसिकं स्वभर्तारं प्रकल्पयेत्॥

(शक्ति संगम तन्त्र)

“हे महेशानि! अपना रूप देख कर उस पराशक्ति ने अपने पति आदिनाथ को जगत् की सृष्टि के लिये अपने मन से उत्पन्न किया।”

भगवान् की सामर्थ्य भगवान् का अंग होते हुए भी उससे पृथक् अस्तित्व में दृष्टिगोचर होती है। सूर्य की किरणें यद्यपि निकलती उसी से हैं पर वे गर्मी और रोशनी के रूप में अपने अस्तित्व का अलग परिचय भी देती हैं। उसी प्रकार ब्रह्म की सामर्थ्य, चेतना एवं सक्रियता उसी के कारण है पर उसका पृथक अस्तित्व भी अनुभव किया जा सकता है। हमारा सीधा सम्बन्ध उस सामर्थ्य से ही है। संसार में जो असीम विद्युत भाण्डागार संव्याप्त है वह मूलतः विश्वव्यापी अग्नि तत्व की सत्ता के कारण ही है। तथापि हमें जो काम चलाऊ बिजली मिलती है उसका केन्द्र स्थानीय बिजली घर ही है। गायत्री हमारे सीधे संपर्क में आने वाली शक्ति है। प्राणियों का तथा संसार की हलचलों का केन्द्र-बिन्दु उसे ही कहा जा सकता है। यदि यह शक्ति इस जगत् को प्रेरित प्रभावित न करे तो फिर यहाँ सब कुछ निर्जीव, निष्क्रिय ही बन जाय।

शक्ति के बिना ‘शिव’ भी ‘शव’ बन जाता है। वर्णाक्षरों में “ि“ मात्रा को शक्ति का प्रतीक माना गया है। जीव और ब्रह्म के बीच संचार, संपर्क व्यवस्था इस शक्ति मात्रा के ऊपर ही निर्भर है। ईश्वर अपना अस्तित्व इसी आधार पर प्रकट करता है। इसलिये उसे ब्रह्म का प्राण भी कहते हैं। गायत्री विश्व का-जीवों का प्राण ही नहीं, ब्रह्म का भी प्राण है। कहा गया है-

शक्ति बिना महेशानि सदाऽहं शवरुपकः।

शक्तियुक्तो महादेवि शिवोऽहं सर्वकामदः॥

ब्रह्म का कथन है-”शक्ति के बिना मैं सदा ही शव के समान अर्थात् प्राणरहित हूँ। जब शक्तियुक्त होता हूँ तभी मैं सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला मंगल रूप हूँ।”

वर्तते सर्वभूतेषु शक्ति सर्वात्मना नृप।

शववच्छक्ति हीनस्तु प्राणी भवति सर्वदा॥

(देवी भागवत)

“हे राजन्! सम्पूर्ण भूतों में सर्वरूप से शक्ति वर्तमान है। शक्तिहीन प्राणी तो सदा शव की भाँति हो जाता है।”

न हि तया बिना परमेश्वरस्य सृष्टत्वं सिद्धति। शक्तिरहितस्य तस्य प्रवृत्त्यनुपपत्तेः।

(व्र.सू.शाँ.भा. 1/4/3)

“उसके बिना परमेश्वर स्रष्टा नहीं हो सकते, क्योंकि वे शक्ति के बिना क्रियाशील नहीं हो सकते।”

ब्रह्मादयोऽपि यदपाँगतरंगभंगय,

सृष्टि स्थिति प्रलय कारणताँ ब्रजन्ति

लावण्य वारिनिधि वीचि परिप्लुतायै।

तस्मै नमोस्तु सततं हरवल्लभायै॥

“जिनकी कृपादृष्टि मात्र से ब्रह्मा में सृष्टि रचना करने की, विष्णु में पालन की, शिव में संहार की शक्ति आ जाती है, सौंदर्य सागर की तरंगों से व्याप्त उस जगदम्बा के लिये मेरा सतत प्रणाम हो।”

प्रकाशरुपा प्रथमे प्रमाणे अमृतरुपिणी इति, अतः सा एवं सर्वाराध्या स्वतन्त्रा विश्वसिद्धि हेतु रिति।

(श्रुति)

“वह स्वयं ही प्रकाशमयी और अमृत रूपिणी है। वह सब की आराध्या है, स्वतन्त्र है और विश्व की निर्माणकर्त्री है।”

रुद्रहीनं विष्णुहीनं न वदन्ति जनः किल।

शक्तिहीनं यथा सर्वे प्रवदन्ति नराधमम्॥

“यदि किसी का तिरस्कार करना हो तो उसे ‘रुद्रहीन’ या ‘विष्णुहीन’ नहीं कहा जाता वरन् उसे ‘शक्तिहीन’ ‘अशक्त’ या निकम्मा कह कर ही तिरस्कृत किया जाता है।”

सर्वशक्तिपरं ब्रह्म नित्यमापूर्णमव्ययम्।

न तदस्ति न तस्मिन्यद्विद्यते विततात्मनि॥

(योग वसिष्ठ 3/100/5)

“नित्य, सर्वथा पूर्ण, अव्यय, परम ब्रह्म सर्वशक्तिमय है। ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो उस विस्तृत रूप में न हो।”

ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिः कतृताऽकतृताऽपि च।

इत्यादिकानाँ शक्तीनामन्तो नास्ति शिवात्मनः॥

(योग व. 6(1)37/16)

“ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति, कर्तृत्व, अकर्तृत्व आदि शक्तियों का उस शिवात्मा में कोई अन्त नहीं है।”

चिच्छक्तिर्ब्रह्मणो राम शरीरेष्वभिदृश्यते।

स्पन्दनशक्तिश्च वातेषु जड़शक्तिस्तथोपले॥

(यो.व. 3-100)

“चेतना शरीरों में उस ब्रह्म की चित्शक्ति, वायु में स्पन्दन-शक्ति, पत्थर में जड़-शक्ति दिखाई देती है।”

सर्वधारा च प्रकृतिः सर्वत्माहं जगत्सु च।

अहमात्मा मनोब्रह्मा ज्ञानरुपी महेश्वरः।

पश्च प्राणाः स्वयं विष्णुबुद्धिः प्रकृतिरीश्वरी॥

“इस समस्त जगत् की आधारभूता प्रकृति शक्ति ही है, श्री नारायण आत्मा है। ब्रह्माजी मन और सदाशिव महेश्वर ज्ञानरूप हैं। पंच प्राण स्वयं विष्णु हैं और प्रकृति ईश्वरी ही बुद्धि है।”

विभिन्न स्तर की, विभिन्न रूपों में, विभिन्न प्रयोजन के लिये जो भी सक्रियता एवं सामर्थ्य दृष्टि गोचर होती है वह गायत्री का ही स्वरूप है। जो कुछ भी सिद्धियाँ, विभूतियाँ, समृद्धियाँ, इस संसार में दृष्टिगोचर हो रही हैं वे सामर्थ्य का ही प्रतिफल हैं। यह समर्थता चेतन प्राणियों में तो है ही, जड़ कहे जाने वाले परमाणुओं में भी उतनी ही सक्रिय है। इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, नाइट्रोन आदि अणु घटक अपनी धुरी तथा कक्षा में भ्रमण करते हैं। ग्रह नक्षत्र अपने यात्रा पथ पर भ्रमण करते हैं तथा पंच तत्वों से विनिर्मित विभिन्न पदार्थ अपनी परम्परा के अनुरूप विधि व्यवस्था में-क्रमबद्ध मर्यादाओं में-बंधकर सृष्टि का निर्धारित क्रम चलाते रहते हैं। यह खेल उसी महत-तत्व का है जिसे ब्रह्म की स्फुरणा अथवा गायत्री के नाम से अध्यात्मवादी शब्दावली में स्थान दिया गया है।

इस महाशक्ति से हम जितने ही असम्बद्ध रहते हैं उतने ही दुर्बल होते जाते हैं। जितने-जितने उसके समीप पहुँचते हैं, सान्निध्य लाभ लेते हैं, उपासना करते हैं, उतना ही अपना लाभ होता है। अग्नि के जो जितने समीप पहुँचता है उसे उतनी ही अधिक गर्मी मिलती है, जो जितना दूर रहता है उसे उतना ही उस लाभ से वंचित रहना पड़ता है। इसलिये उस महाशक्ति का सान्निध्य लेकर अधिक बल प्राप्त करें यही उचित है।

पूछा गया-कि हे देवि, महाशक्ति, आप कौन हैं? क्या करती हैं, इस ब्रह्माण्ड में आपकी क्या स्थिति है? ब्रह्म और आपके बीच क्या संबन्ध है? तो उसने तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन इस प्रकार कराया है-

सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवि। साब्रवीदहं ब्रह्म स्वरूपिणी। अजाहमनजाहं अधश्चोर्ध्वंच तिर्यक्चाहम्॥

(देवी उपनिषद्)

“जब ब्रह्मादि समस्त देवों ने देवी के समीप जाकर प्रश्न किया कि-हे देवि! तुम्हारा स्वरूप क्या है? तब देवी ने बताया कि मैं परब्रह्मस्वरूपिणी हूँ। परमार्थतः अजन्मा होते हुए भी व्यवहारतः नाना देव-देवी रूप में जन्म लेती हूँ। मैं ही ऊपर, नीचे, बगल में सर्वत्र पूर्ण हूँ तथा देश-काल वस्तु से अपरिच्छिन्न हूँ।”

तस्य या परमा शक्तिर्ज्योत्स्नेव हिमदीधितेः।

सर्वावस्थाँ गता देवी स्वात्मभूतानपायिनी।

अहन्ता ब्रह्मणस्तस्य साहमस्मि सनातनी॥

(लक्ष्मी तंत्र 2/11-12)

महाशक्ति इन्द्र के प्रति कहती हैं- “उस परब्रह्म की जो चन्द्रमा की चाँदनी की भाँति समस्त अवस्थाओं में साथ देने वाली, स्वात्मभूता अनपायिनी अहंता नाम की परम शक्ति है, वह सनातनी शक्ति मैं ही हूँ।”

अहं सुवे पितरस्थमूर्धन मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ततो वितिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूँ ह्याँ वर्ष्मणो स्पृशामि।

‘मैं जगत पिता ‘हिरण्य-गर्भ’ को प्रसव करती हूँ। इसके ऊपर आनन्दमय-कोष मध्यस्थ विज्ञानमय-कोष में ये कारण-शरीर अवस्थित है। मैं समग्र भुवन में अनुप्रविष्ट होकर अवस्थित हूँ। वह सामने स्वर्ग लोक है, उसे मैं अपने शरीर द्वारा स्पर्श कर रही हूँ।”

अहमेव वात ईव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वापरो दिवा पर राना पृथिव्यैतावती महिमा सम्बभूव।

“जब मैं वायु के सदृश्य प्रवाहित होती हूँ तभी समग्र भुवन की सृष्टि का आरम्भ होता है। इन स्वर्ग तथा मर्त्य लोक के पेट में भी मैं विद्यमान हूँ। यही महिमा है।”

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाँ चिकितुषी प्रथयज्ञियानाम्। ताँ मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थ भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥

(देवी-सूक्त)

“मैं सृष्टि-स्थिति-प्रलय कारिणी जगदीश्वरी हूँ धन को देने वाली हूँ। मैं उस ज्ञान को देने वाली हूँ जिससे जीव आत्म-भाव को प्राप्त हो सके। यही ज्ञान सब उपासनाओं का आदि है। मैं बहुभावों में अवस्थित हूँ। देवगण मेरे अनेक रूपों की उपासना किया करते हैं।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति शणोत्युक्तम्। अमन्तवो माँ त उपक्षियन्ति श्रुधि श्राद्धिवं ते वदामि।

“जीव जो कुछ अन्नादि खाता है, जो कुछ देखता है, जिस श्वास-प्रश्वास क्रियादि द्वारा जीवित रहता है और जो कुछ सुनता है-वे सब क्रियायें मेरे ही द्वारा निष्पन्न होती हैं। मुझे जो नहीं जानते, वे संसार में क्षीणता को प्राप्त होते हैं। हे सौम्य! मैं जो कुछ कहती हूँ उसे श्रद्धा से सुनो।”

सृष्टि का संचालन, व्यवस्था, प्रगति, समृद्धि और सुन्दरता का मूल आधार वह महाशक्ति ही है। जिस प्रकार बिजली, भाप, तेल की शक्ति से विविध प्रकार के यंत्र चलते हैं उसी प्रकार उस महाशक्ति की सत्ता से ही इस जगत का सारा क्रिया कलाप चल रहा है।

देव शक्तियाँ इस सृष्टि के विभिन्न प्रयोजनों को पूरा करती हैं। जैसे पाचन क्रिया से संलग्न जीवनी शक्ति को जठराग्नि, मस्तिष्क में काम करने वाली को मेधा, प्रजनन संस्थान में काम करने वाली को कामोत्तेजना, चेहरे पर चमकने वाली को ओजस्विता कहते हैं, पर वस्तुतः वह एक ही शक्ति है, जो विभिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होने के कारण अलग-अलग नामों से पुकारी जाती है। देव शक्तियों के अलग-अलग नाम रूप भी इसी प्रकार रखे गये हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, वरुण, अग्नि, पूषा, अर्यमा, आदि के कार्य, प्रयोजन और स्वरूप अलग-अलग वर्णन किये गये हैं, पर वस्तुतः वे एक ही महाशक्ति द्वारा विभिन्न प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले उपकरण मात्र हैं। इनका वही निर्माण करती है, प्रयोजन में लाती है और कार्य कर सकने की क्षमता प्रदान करती है, इसलिये उसे देव जननी अथवा देवाधिष्ठात्रि भी कहा गया है। अन्यान्य देवताओं की उपासना से जो कुछ प्रयोजन सिद्ध हो सकता वह सारे का सारा देव आत्मा सान्निध्य से भी प्राप्त हो सकता है।

महाशक्ति ने देवताओं से साथ अपने सम्बन्ध की चर्चा करते हुए कहा है-

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।

अहं मित्रावरुणावुभौ विभार्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनाबुभौ।

“मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ। मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूप में फिरा करती हूँ। मैं दोनों मित्रावरुण का, इन्द्राग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का पोषण करती हूँ।”

न विष्णुर्न हरः शक्तो न ब्रह्मा न च पावकः।

न सूर्यो वरुणः शक्तः स्वे स्वे कार्ये कथंचन।

तथा युक्ता हि कुर्वन्ति स्वानि कार्याणि ते सुराः।

(दे.भा.1-8-39)

“विष्णु, शिव, ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य, वरुण आदि स्वयं कुछ भी नहीं कर सकते। (मैं महाशक्ति) ही इन सब को कार्य करने में समर्थ बनाती हूँ।”

नूनं सर्वेषु देवेषु नाना नाम धरा ह्यहम्।

भवामि शक्ति रुपेण करोमि च पराक्रमम्॥

गौरी ब्राह्मी तथा रौद्री वाराही वैष्णवी शिवा।

वारुणी चाथ कौवेरी नारसिंही च वैष्णवी॥

(देवी भागवत्)

समस्त देशों में मैं ही तरह-तरह के नाम रखकर उनकी शक्ति बनती हूँ और पराक्रम करती हूँ। गौरी, ब्राह्मी, रुद्राणी, वाराही, वैष्णवी, शिवा, वारुणी, कौवेरी, नारसिंही आदि सब मेरे ही नामान्तर हैं।”

मानव प्राणियों में जो विभिन्न प्रकार की प्रतिभायें, विशेषतायें और महानतायें दृष्टि-गोचर होती हैं वे उस महाशक्ति की उपस्थिति का परिचय देती हैं। जड़ शरीर में जितनी चेतना, चमक, स्फूर्ति एवं सुन्दरता है उसे उसी सत्ता का चमत्कार कहना चाहिये। जिसने अपने पुरुषार्थ से उसे अपने भीतर जितनी मात्रा में धारण कर लिया है, वह उतना ही बड़ा महा-मानव दिखाई देता है। यह शक्ति जब घटने लगती है तो शरीर निर्बल, निस्तेज एवं निष्क्रिय हो जाता है। मन में जब यह शक्ति कम पड़ने लगती है तो उसे मन्द-बुद्धि, मूर्ख, अविवेकी, आदि लाँछनाओं से तिरस्कृत किया जाता है। इसी शक्ति की अत्यधिक न्यूनता होने से मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। साराँश यह है कि संसार में जितनी महानता, विशेषता, चमत्कार देखने में आता है वह उस आदि शक्ति की क्रीड़ा ही है। चाहे साँसारिक और चाहे आध्यात्मिक कोई भी क्षेत्र हो इस शक्ति के बिना सफलता असम्भव है।

अपनों से अपनी बात-


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