‘ज्ञान-यज्ञ’ इस युग का सबसे बड़ा परमार्थ

August 1967

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युग परिवर्तन की इस सन्धि वेला में हम प्रबुद्ध आत्माओं का कुछ विशेष कर्तव्य है। आपत्ति काल में ‘आपद धर्म’ निभाना पड़ता है। मुहल्ले में आग लगी हो तो साधारण नित्य कर्मों को छोड़ कर पहले उसे बुझाने के लिये जाना पड़ता है। आज संसार में सब ओर आग लगी हुई है, उसे बुझाने के लिये समर्थ और सक्षम व्यक्तियों को आवश्यक प्रयत्न करना ही चाहिये। इस संदर्भ में बरती गई उपेक्षा तथा बहानेबाजी एक महान् भूल होगी जो चिरकाल तक पश्चाताप एवं आत्म-ताड़ना की आग में हमें जलाती रहेगी।

असुरता के साम्राज्य को निरस्त्र करने के लिये-संस्कृति की सीता को वापिस लाने के लिये-समुद्र का सेतु बाँधने जैसी विषम आवश्यकता को तत्कालीन शूरवीरों ने साहसपूर्वक पूरा किया था। रावण का आतंक बड़ा था, उसे परास्त करने का कार्य असम्भव जैसा लगता था, रीछ-वानरों की अपनी क्षमता नगण्य थी, समुद्र बहुत गहरा और चौड़ा था, उसका पुल बाँधना दुरूह प्रतीत होता था। इन विषमताओं के होते हुए भी युग-मानव की पुकार सुन सकने वाली आत्मायें आगे आई थीं और उनने अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक कठिनाइयों के बहानों को तिलाँजलि देकर ऐतिहासिक कर्तव्यों का पालन किया था। रीछ-वानर ही नहीं, गिद्ध

और गिलहरी जैसे तुच्छ जीव भी उस महान अभियान में योगदान करने के लिये उत्साहपूर्वक आगे आये थे। अब फिर उसी पुण्य प्रक्रिया की पुनरावृत्ति अपेक्षित हो रही है।

जिन परिस्थितियों में हमें आज जीवन यापन करना पड़ रहा है उन्हें बदलना नितान्त आवश्यक है। जीवनोपयोगी साधनों का अभाव सभी को कष्ट दे रहा है। यों धरती माँ का भण्डार खाली नहीं हो गया, उसके पास अपनी प्रत्येक सन्तान का समुचित निर्वाह कर सकने लायक धन-धान्य प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। पर उसके उत्पादन, वितरण एवं संग्रह की वर्तमान प्रणाली इतनी दूषित है कि चन्द श्रीमन्तों को छोड़ कर शेष सभी को अत्यधिक कष्ट के साथ गुजर करने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है। सामाजिक न्याय के अभाव में मनुष्य, मनुष्य के खून का प्यासा बना हुआ है। अमुक वंश, जाति में पैदा होने के कारण लोग ऊँच या नीच माने जाते हैं और उन्हें अहंकार करने एवं तिरस्कृत होने का अवसर मिलता है। स्त्रियाँ पुरुषों की खरीदी हुई जड़-सम्पत्ति की तरह दिन गुजार रही हैं। सामाजिक कुरीतियों का ऐसा बोलबाला है कि विवाह-शादी जैसे मामूली से आयोजन को आकाश-पाताल जैसा तूल मिल गया है और उस कुचक्र में जन-समाज की आर्थिक एवं पारिवारिक सुव्यवस्था चकनाचूर हुई जा रही है। इन परिस्थितियों में हमें जिस घुटन के साथ जिन्दा रहना पड़ रहा है वह दिन-दिन असह्य होती जाती है। युग की आत्मा पुकारती है कि इन विषमताओं को बदला ही जाना चाहिये।

अपना जन-जीवन दर्शन आज कितना क्षुद्र एवं घृणित है इसे देख कर विवेक की आत्मा सिहर उठती है। हर आदमी के सामने धन का बिना उचित-अनुचित का ध्यान किए प्रचुर मात्रा में उपार्जन एवं संग्रह करना ही एकमात्र लक्ष्य बना हुआ है। उस उपार्जन एवं संग्रह का उपयोग वह केवल अपने व्यक्तिगत विलास, स्वार्थ एवं अहंकार की पूर्ति तक ही सीमित रखे हुए है। इस हर दृष्टि से पिछड़े हुए समाज को उठाने और बढ़ाने के लिये आर्थिक साधनों की अत्यधिक आवश्यकता है। पर लोग अपनी सम्पन्नता बढ़ाने और विलासिता उभारने के अतिरिक्त उस दिशा में सोच तक नहीं पाते। कुछ अनुदान दे सकना तो दूर की बात है। जो देते भी हैं उनके पीछे कोई उदारता या विवंक नहीं होता, केवल अपनी कीर्ति के मूल्य पर ही कुछ कौड़ियाँ फेंकी जाती है। आज का यही अर्थशास्त्र है। इसने अपराधों की बाढ़ खड़ी कर दी है। हर क्षेत्र में अर्थ लोलुपता ने एक प्रकार का चरित्र संकट खड़ा कर दिया है। जहाँ देखिये प्रकट-अप्रकट भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। फलतः शोषण, उत्पीड़न, छल, विश्वासघात, लूट, हत्या, गुण्डागर्दी, बेईमानी की घटनायें पग-पग पर देखने को मिल रही हैं। उनकी प्रतिक्रिया से दशों दिशायें क्षोभ, रोष, असन्तोष एवं प्रतिशोध की भावना से भरी हुई उद्विग्न हो रही हैं। क्या इन परिस्थितियों के, इन आकाँक्षाओं एवं आदर्शों के रहते कभी सामाजिक शान्ति स्थापित हो सकती है? यदि हमें चैन से रहने और रहने देने की स्थिति प्राप्त करनी है तो इन परिस्थितियों को बदलने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

अज्ञान की कैसी विषम घटायें चारों ओर घुमड़ रही हैं उन्हें देख कर डर लगता है। नशेबाजी जैसे व्यसनों में लोग अपने धन, स्वरूप, मन, मस्तिष्क की होली जलाते छोटे बच्चों जैसी आतिशबाजी का खेल खेल रहे हैं। कितना समय और कितना धन लोग इन विडम्बनाओं पर खर्च करते हैं। तम्बाकू, शराब, भाँग, गाँजा आदि का प्रचलन जिस तेजी से बढ़ रहा है उसे देखते हुए शक होता है कि जमाना कहीं पागल होने तो नहीं जा रहा है। जिन कुरीतियों और अन्धविश्वासों को लोग छाती से लगाये बैठे हैं उनसे आडम्बरी धूर्तों की पाँचों घी में हैं और बेचारे निरीह लोगों का कचूमर निकला जा रहा है। भूत, पलीत, दई, देवता, टोना, टोटका के कुचक्र में अभी भी बेचारे अनपढ़ देहाती ही नहीं तथाकथित सुशिक्षित भी सिर पटकते देखे जाते हैं। रीति-रिवाजों का जंजाल पक्षियों को पकड़ने वाले जाल की तरह लोगों को बेतरह उलझाये हुए है और वे उसी गोरखधन्धे में न जाने कितनी बर्बादी भरी विडम्बना का बोझ ढोते हुए मरते-खपते रहते हैं। आज के अज्ञानग्रस्त मस्तिष्कों का यह तथाकथित शिक्षा भी कुछ सुधार नहीं कर पा रही है यह देख कर हैरत होती है। यह विडम्बना यदि बदली न जा सकी तो उलझा मनुष्य और भी अधिक जंजाली उलझनों में फंसता चला जायेगा।

मानव-जीवन एक दिव्य विभूति है। अनुपम अवसर और सुरदुर्लभ सौभाग्य है। इसे उन आदर्शों और उत्कृष्ट क्रिया-पद्धति के लिये ही प्रयुक्त किया जाना चाहिये। पर आज लोग जिस हैवानी और शैतानी रीति-नीति को अपना कर मौत के दिन पूरे कर रहे हैं उसे देखते हुए यही कहना होगा कि मनुष्य को न तो अपनी उत्कृष्टता का ध्यान रहा न महानता का। न उसे अपने जीवन का उद्देश्य एवं स्वरूप विदित है और न सदुपयोग की दिशा मालूम है। इन्सान का शरीर ओढ़े शैतान का स्वच्छंद विचरण इस युग की सबसे बड़ी विभीषिका है। यह स्थिति विषम से विषमतर होती चली जा रही है और हम सर्वग्राही, सत्यानाशी, रौरव नर्क में गिरने के लिये द्रुतगति से बढ़ रहे हैं। क्या इस विभीषिका की उपेक्षा करते रहना ही उचित है? क्या इस सामूहिक आत्महत्या को रोकने के लिये हम प्रबुद्ध व्यक्तियों का कुछ भी कर्तव्य नहीं है?

आज के विश्व का कण-कण परिवर्तन की माँग करता है। आज का विश्व मानव इन विडम्बनाओं से छुटकारा पाने के लिये आकुल है। परिवर्तन आज की एक अनिवार्य, अपरिहार्य आवश्यकता है। इसे पूरा करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

‘यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्’-की प्रतिज्ञा के अनुसार इन विषम परिस्थितियों को बदलने के लिये अब भगवान पुनः अवतरित हो रहे हैं। व्यक्ति के रूप में नहीं, एक प्रचण्ड आन्दोलन के रूप में। व्यक्ति में दोष भी रहते हैं इसलिये अवतारी महापुरुष में भी कोई कलंक रह जाता है। आन्दोलन के आदर्श यदि उत्कृष्ट हों तो वह निष्कलंक ही रहता है। भले ही कुछ अनुपयुक्त व्यक्ति उसे गंगाजी में पड़े हुए कछुओं की तरह मलीन करने की चेष्टा करते रहें। इस युग के परिवर्तन पर “निष्कलंक अवतार” होने की भविष्यवाणी शास्त्रों में है। कलंक से बचने के लिये वह निष्कलंक अवतार अब नव-निर्माण के लिये समुद्यत युग-परिवर्तन आन्दोलन के रूप में सामने आया है। प्रत्येक बुद्ध व्यक्ति को लंका-विजय में संलग्न रीछ, वानर, गिद्ध और गिलहरियों की तरह- गोवर्धन उठाते समय लाठी वाले ग्वाल-बालों तरह- शिव विवाह की बरात में भूत-गणों की तरह-स्वतन्त्रता आन्दोलन में साहस और त्याग दिखाने वाले वीर सत्याग्रहियों की तरह आना होगा और महाकाल की युग-निर्माण प्रत्यावर्तन प्रक्रिया को सफल बनाने में बड़-चढ़ कर योगदान देना होगा।

शत सूत्री युग-निर्माण योजना के अंतर्गत आज की प्रत्येक विषम परिस्थिति को बदलने के लिये प्रत्येक मोर्चे पर सुधारात्मक संघर्ष आरम्भ किया जाना है। अगले दिनों एक सर्वतोमुखी अभियान सक्रिय होगा और वह आँधी तूफान की तरह सड़ी-गली विकृतियों को हटा कर उसके स्थान पर स्वर्गीय सम्भावनायें विनिर्मित होने की सम्भावना करेगा। आज हमें उसी की पूर्व भूमिका तैयार करनी कितनी ही तेजस्वी आत्माएं प्रसुप्त एवं मूर्छित अवस्था में पड़ी हैं। वे जाग पड़ें और इस ईश्वरीय आकाँक्षा की में अपना आवश्यक योगदान देने लगें तो जिसकी है उसके साकार होने में देर न लगे।

युग-परिवर्तन की पृष्ठभूमि है- जन-जागरण। वस्तुस्थिति का आवश्यक अनुभव तथा विषमताओं को हटाने का उपयुक्त मार्गदर्शन मिलने पर विचारशील व्यक्ति सदा लोक-मंगल के लिये बड़े-बड़े कठिन कार्य करने में तत्पर होते रहे हैं। बुद्ध, महावीर, नानक, ईसा, गाँधी आदि के आन्दोलन अपने-अपने समय पर करोड़ों लोगों को आन्दोलन करने में सफल हुए। कार्लमार्क्स का साम्यवादी अभियान आज लगभग आधी दुनिया को अपने क्षेत्र में ले सकने में सफल हो गया है। आध्यात्मिक आदर्शों के अनुरूप जन-मानस को ढालने और स्वर्गीय सत- परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का युग-निर्माण आन्दोलन सर्वांगपूर्ण सम्भावनाओं से ओत प्रोत है कि यदि उसका प्रकाश जन-जन के मन-मन तक पहुँचाया जा सके तो परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी तीव्र एवं सफल हो सकती जिसकी साधारण बुद्धि तो कल्पना भी नहीं कर सकती।

युग-निर्माण की पृष्ठभूमि निस्सन्देह हमें जन-जागरण पुण्य-प्रक्रिया से ही आरम्भ करनी होगी। आज उसी का शुभारम्भ श्रीगणेश किया जा रहा है। अपनी प्रथम पंचवर्षीय योजना के पाँच कार्यक्रमों में ‘ज्ञान यज्ञ’ का स्थान सर्वोपरि है।

जन्मेजय में अपने पिता को काट खाने वाले सर्पों का निराकरण करने के लिये नाग-यज्ञ रचा था। अपने राष्ट्र-पिता भारतवर्ष की उज्ज्वल संस्कृति को- आत्मा की पतित बना देने वाले इन कुविचार, कुसंस्कार सर्पों का निराकरण करने के लिये ज्ञान-यज्ञ का आयोजन करना पड़ रहा है। इसमें होता अध्वर्यु, यजमान, पुरोहित, ब्रह्मा और आचार्य चाहिये ऐसे जो जन जागृति के लिये समय दे सकें। उपेक्षा दिखाने वाले और अरुचि प्रकट करने वालों को भी उत्कृष्ट विचारधारा के पढ़ने, सुनने तथा समझने के लिये विवश कर सकें। सच्ची लगन हो तो यह कार्य कुछ कठिन नहीं। चुनाव के दिलों में लोग वोटरों को जिस तरह फुसलाते हैं वही हथकण्डे यदि सदुद्देश्य के लिये हम प्रयोग करने लगे तो एक भी व्यक्ति ऐसा न बचे जो नव-निर्माण की विचारधारा सुनने-समझने के लिए तैयार न किया जा सके। आवश्यकता केवल कार्यकर्ता की लगन की है। लगनशील व्यक्ति क्या नहीं कर सकते? युग के अनुरूप विवेकशीलता को समझने की रुचि पैदा कर लेना इतना कठिन काम नहीं है जो सच्ची लगन वाले प्रबुद्ध कार्यकर्ताओं के लिए भी असम्भव या कष्ट सम्पन्न बना रहे।

युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों आग उगलने वाला, जन-मानस को उलट-पुलट कर रख देने वाला अत्यंत सस्ता और अत्यन्त उत्कृष्ट स्तर का साहित्य सृजन किया जा रहा है। पर इसका वास्तविक लाभ तभी हो सकता है जब उसे जनसाधारण के अन्तःकरण तक पहुँचने का अवसर मिले। आज लोगों में उत्कृष्ट स्तर की विचारधारा को पढ़ने, सुनने, समझने, हृदयंगम करने की तनिक भी क्षमता नहीं रही। लोगों की इस ओर जरा भी रुचि नहीं है। यह रुचि पैदा करना अपना काम है। चाय और बीड़ी के प्रचारकों के अपने प्रबल प्रयत्नों ने इन गन्दी चीजों को जन-जीवन का अंग बना दिया तो क्या हम ‘अखण्ड ज्योति’ के प्रबुद्ध परिजन ऐसी जन-रुचि उत्पन्न नहीं कर सकते जिसे आधार पर सर्वसाधारण के मस्तिष्क एवं अन्तःकरण उलट-पुलट कर रखे जा सकें? यह संभव है और सर्वथा सरल है। युग की माँग यही है। आवश्यकता केवल हमारे थोड़े से त्याग और थोड़े से साहस की है। इन पंक्तियों द्वारा उसी का आह्वान किया जा रहा है।

‘झोला पुस्तकालय’ ज्ञान-यज्ञ का मूर्तिमान प्रतीक है। आज की परिस्थितियों में इससे बड़ा परमार्थ और कोई नहीं हो सकता। दस पैसा रोज की नगण्य धनराशि थोड़ी सी भी उदारता मन में हो तो निर्धन से निर्धन व्यक्ति को भी बड़ी आसानी से इस महान परमार्थ के लिये सुलभ ही है। दधीचि, शिवि, कर्ण, हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, भामाशाह जैसे परमार्थ परायण महापुरुषों की सन्तान इतनी कंजूस एवं अनुदार नहीं हो सकती जो इतने नगण्य से पैसे खर्च करने में आगा-पीछा सोचे। युग-निर्माण आन्दोलन की दोनों पत्रिकायें और छोटी-छोटी पुस्तिकायें एक थैले में साथ रखी जाएं। दफ्तर, बाजार, शादी, दोस्ती आदि में जहाँ भी जाय वहाँ सुरुचि वाले व्यक्ति ढूंढ़े जायें और अवसर देख कर उनसे नव-निर्माण विचारधारा के इस पहलू पर चर्चा की जाय जिससे कि उनका संबन्ध हो। इस प्रकार थोड़ी रुचि जान कर अपना साहित्य उन्हें पढ़ने को दिया जाय और पढ़ने पर वापिस लिया जाय। यह कार्य कुछ भी कठिन नहीं है। आरम्भ में थोड़ी सी झिझक जरूर लगती है पर अभ्यास होने पर दस-पाँच दिनों में ही यह कार्य बड़ा सरल एवं सरस प्रतीत होने लगता है। अपने घर, परिवार, पड़ोस, रिश्तेदारी तथा संबन्ध, परिचय के लोगों में ऐसे 50 व्यक्ति आसानी से मिल सकते हैं जिनकी मनोभूमि इस योग्य हो कि प्रयत्न करने पर प्रेरक विचारों वाला साहित्य पढ़ने की अभिरुचि उत्पन्न की जा सके। यदि इतना भी किया जा सका तो परिणाम आश्चर्यजनक होगा। आज युग-निर्माण योजना के 1 लाख सदस्य हैं वे 50 लाख व्यक्तियों को नव-निर्माण का प्रकाश कल से ही पहुँचा सकते है। उन 50 लाखों का 50-50 लाख तक पहुँचने का प्रयत्न कुछ ही दिनों में 2 करोड़ और इसके बाद तीसरे चक्रवृद्धि प्रयत्न में वह संख्या 1 अरब से ऊपर जा पहुँचेगी। इनमें से सौ पीछे एक व्यक्ति भी काम का निकल पड़ा तो शत सूत्री योजना के अंतर्गत सारे कार्यक्रम देखते-देखते मूर्तिमान हो जायेंगे और सतयुग के अवतरण की जो योजना आज स्वप्न जैसी दीखती है कल मूर्तिमान सामने अपनी सफलता का विजय घोष कर रही होगी।

हम अभिनव विचारों का सृजन करें, परिजन उन्हें जन-मानस में प्रवेश कराने का प्रबल प्रयत्न करें। पढ़े को पढ़ाया जाय, बेपढ़ों को सुनाया जाय तो वह विचार क्रान्ति प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में एक चिनगारी बन कर जल सकती है और देखते-देखते प्रचण्ड ज्वाला के रूप में परिलक्षित हो सकती है। इन्जेक्शन कैसा ही उपयोगी क्यों न हो डॉक्टर की उंगलियाँ ही उसे रोगी के शरीर में प्रवेश करा सकती हैं। बन्दूक, कारतूस कितने ही कीमती क्यों न हों चलायेगा तो उन्हें सैनिक ही। हम कितना ही प्रेरक साहित्य विनिर्मित करें, परिजनों के प्रबल प्रयास बिना वह जन मानस में व्यापक रूप में प्रवेश न कर सकेगा। इस समस्या को हल करने के लिये परिजनों का जो भी योगदान हो वह “ज्ञान-यज्ञ” महानतम पुण्य-परमार्थ ही माना जायेगा।

यह कार्य हमें अपने-अपने घरों से आरम्भ करना होगा। परिवार का एक भी शिक्षित व्यक्ति ऐसा न हो जो इन विचारों के संपर्क में न हो। स्कूल जाने वाले घर के बच्चों के शिक्षा कार्यक्रम में आधा घन्टा नव-निर्माण साहित्य पढ़ने की बात भी अनिवार्य रूप से जुड़ी रहे। रात को विचार गोष्ठी हुआ करे जिसमें बारी से घर के शिक्षित व्यक्ति आधा या एक घंटा इस साहित्य को पढ़ कर सुनाया करें जिससे वो जो बिना पढ़े हैं उन्हें भी इन विचारों का लाभ मिलता रहे। घर में देव मन्दिर की तरह अपने पुस्तकालय ज्ञान-मन्दिर को सुसज्जित रखा जाय और उसके प्रति घर के हर सदस्य के मन में असाधारण श्रद्धा एवं आदर भाव हो। शास्त्रों, ऋषियों, मनीषियों और तत्वदर्शियों के विचारों का दोहन एक उत्कृष्ट स्तर का इत्र है, जिससे सारा घर, परिवार सच्चे अर्थों में महक सकता है। “पुस्तकालय ही सच्चे देवालय” ट्रैक्ट को यदि ध्यानपूर्वक पढ़ा जाय तो यह बात भली प्रकार समझ में आ जायेगी कि सत्साहित्य और स्वाध्याय का मानव-जीवन में कितना महान महत्व है। वह तथ्य यदि अपने परिवार के हर सदस्य के मन में ठीक तरह जमाया जा सका और इस दिशा में उनकी अभिरुचि को जागृत किया जा सका तो समझना चाहिए कि परिवार के प्रति अपने नैतिक कर्तव्य की बहुत हद तक पूर्ति हो गई।

घर, परिवार, रिश्तेदार, साथी, मित्र परिचित एक भी ऐसा न बचे जिस तक इस प्रेरणा के प्रकाश को पहुँचाने की हम चेष्टा न करें। जन-मानस के नव-निर्माण से ही इन प्रवृत्तियों का उद्भव सृजन एवं अभिवर्धन होगा जिसके आधार पर सृजनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों के फलने फूलने की परिस्थितियाँ बनें। युग बदलने के लिये हमें कितने ही महत्वपूर्ण कार्य करने पड़ेंगे पर वे होंगे तभी जब करने वालों में इस तरह की निष्ठा, प्रेरणा प्रवृत्ति एवं लगन उत्पन्न हो। यह कार्य ज्ञान-यज्ञ के व्यापक बनाये बिना और किसी तरह संभव नहीं हो सकता। इस युग के इस महानतम कार्य के लिये- उच्चतर पुण्य परमार्थ के लिये- ज्ञान-यज्ञ के लिये यदि हमारा थोड़ा-सा समय, थोड़ा-सा भी पैसा न लग सके, तो समझना चाहिये कि हमारा सारा बातूनी- हवाई अध्यात्म परख की कसौटी पर बिलकुल थोथा सिद्ध हो रहा है। हमें बाल कल्पनाओं जैसी आध्यात्मिक उड़ानें उड़ते रहने की अपेक्षा अब कर्मठता के क्षेत्र में उतरना पड़ेगा और अपनी कंजूसी, संकोच शीलता तथा संकीर्णता की परिधि से बाहर निकल कर वह करना पड़ेगा जो इतिहास में हर प्रबुद्ध और विवेकशील को सक्रिय रूप से करना पड़ा है।

ज्ञान-यज्ञ, वाणी और साहित्य दोनों की ही अपेक्षा रखता है। इस पुण्य प्रयोजन के निमित्त विनिर्मित हुए साहित्य की जगह-जगह चर्चा के लिये जब तक मुँह न खोला जायेगा- बिना पढ़ों को उसे पढ़ कर न सुनाया जायेगा- तब तक उसकी सार्थकता और सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी। इसलिये हमको इस ओर से उपेक्षा तथा झिझक को छोड़ कर थोड़ा समय और धन देते रहने के लिये कटिबद्ध ही होना चाहिए। इतने महान प्रयोजन के लिये- अपने परिवार के प्रबुद्ध परिजन क्या इतना छोटा-सा त्याग एवं पुरुषार्थ भी न कर सकेंगे? ज्ञान-यज्ञ की पुण्य वेदी हम सबसे यही पूछती है- अब समुचित उत्तर देने की बारी है।


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