व्यायाम हर व्यक्ति के लिये आवश्यक

August 1967

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वैसे तो सभी प्रकार के व्यायाम कम या ज्यादा परिमाण में करने से सब अवस्थाओं के व्यक्तियों को थोड़ा बहुत लाभ अवश्य पहुँचा सकते हैं, पर जिन लोगों की अवस्था साठ से ऊपर हो चुकी है अथवा जो लम्बी बीमारी के कारण स्थायी निर्बलता के शिकार हो गये हैं, उनके लिए खड़े होकर किये जाने वाली कसरतें सहज नहीं हो सकतीं। इसी प्रकार यदि उन्होंने आरम्भ से ही अभ्यास नहीं किया है तो आसन-व्यायाम के लिये उनके शरीर का मुड़ना भी कठिन होता है। ऐसे लोगों के लिये एक अमरीका निवासी श्री सैनफोर्ड बैनेट ने लेटे हुये किये जाने वाले व्यायामों की विधि बतलाई हैं।

ये व्यायाम सैनफोर्ड के स्वानुभूत हैं। एक अस्वस्थ पिता की सन्तान होने तथा आरम्भ से ही अमीरों की तरह बिना शारीरिक परिश्रम का जीवन बिताने से वे थोड़ी आयु में ही निर्बल हो गये थे। पचास वर्ष की आयु में वे बिल्कुल बूढ़े जान पड़ने लगे। वे सदा डाक्टरी दवाइयों से काम चलाते रहते थे, पर किसी दवा ने उनके स्वास्थ्य का सुधार न किया और न स्थाई रूप से निर्बलता को दूर किया। वे सब काम-चलाऊ ही सिद्ध हुई। अन्त में जब उनकी हालत बहुत शोचनीय हो गई और ऐसा जान पड़ने लगा कि अब दो-चार वर्ष में शरीरान्त हो जाना निश्चित है तो उन्होंने डाक्टरों और दवाओं का सहारा त्याग कर सामान्य व्यायाम और प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने की ओर ध्यान दिया। इसके प्रभाव से उनकी दशा सुधरने लगी और 70 वर्ष की आयु में उन्होंने एक प्रकार से नव-जीवन प्राप्त कर लिया। अपने इस अपूर्व कायाकल्प के विषय में उन्होंने अपनी आत्म-कथा में लिखा है- “यद्यपि आज औषधि-विज्ञान चरम सीमा पर पहुँच गया है और गाँव-गाँव, गली-गली में डाक्टरों की दुकानें व अस्पताल खुल रहे हैं फिर भी हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि दवायें, चीरफाड़ और इन्जेक्शन का इलाज अत्यन्त हानिकारक और अनावश्यक है। इससे मानव जाति का बड़ा नाश हुआ है। मैं पचास वर्ष की आयु में सब तरह से बूढ़ा हो गया और फिर स्वयं ही उद्योग कर के 72 वर्ष की अवस्था में पुनः जवान बन गया तो इसका एकमात्र कारण यही हुआ कि मैंने औषधि सेवन बिल्कुल त्याग कर प्राकृतिक जीवन और स्वाभाविक व्यायाम का आश्रय लिया। अपने अनुभव से मैं इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि दवाओं के जरिये आरोग्य प्राप्त कर सकना असम्भव है और किसी औषधि से आयु बढ़ाने की आशा मूर्खता है।”

आगे चल कर सैनफोर्ड कहते हैं कि :- ”मैं जन्म से ही कमजोर पैदा हुआ और अपने पिता के उत्तराधिकार स्वरूप तरह-तरह की बीमारियाँ भी छोटी अवस्था से ही लग गई थीं। मेरे पिता को क्षय-रोग हो गया था और उन्हीं के संस्कारों से मुझे आरम्भ से ही खाँसी और निमोनिया के आक्रमण सहने पड़े। साथ ही मैं मन्दाग्नि का भी मरीज था। तीस वर्ष तक हर तरह की डाक्टरी दवाओं का प्रयोग कर के भी मैं कभी सच्ची भूख और भोजन के स्वादिष्ट लगने का आनन्द प्राप्त न कर सका। मैं बड़े व्यवसाइयों की तरह या तो अपने व्यवसाय संबन्धी कार्यों में लगा रहता था या नर्म गद्दों पर पड़ा रह कर आराम करता था। किसी प्रकार के व्यायाम की शिक्षा मुझे कभी किसी डॉक्टर ने नहीं दी। इसका नतीजा यह हुआ कि अधेड़ अवस्था में ही मेरा शरीर सब तरह से जीर्ण-शीर्ण हो गया, सब इन्द्रियाँ निर्बल पड़ गयीं और मेरी गिनती बूढ़ों में की जाने लगी।”

जब डाक्टरों के वायदे सब तरह से खोखले सिद्ध हो गये तो सैनफोर्ड ने अपना इलाज स्वयं करने का निश्चय किया और दवाओं को तिलाँजलि देकर प्राकृतिक उपायों का आश्रय लिया। उन्होंने समझ लिया कि स्वास्थ्य का वास्तविक आधार शुद्ध वायु, सूर्य का प्रकाश, सादा-सुपाच्य भोजन, व्यायाम, स्वच्छता और शरीर तथा मन की पवित्रता ही है। इन साधनों को अवलम्बन कर के प्रत्येक व्यक्ति अपनी दशा में आशातीत सुधार कर सकता है।

सैनफोर्ड ने जो 26 प्रकार की अंग-संचालन की क्रियाएं बतलाई हैं उनको एक बहुत ही सौम्य व्यायाम कहा जा सकता है। उनसे धीरे-धीरे पुनः माँसपेशियों का विकास होने लगता है और कुछ वर्षों में बुढ़ापे के बहुत से चिन्ह मिट जाते हैं या बहुत कम पड़ जाते हैं। ये व्यायाम देखने-सुनने में बहुत ही सामान्य जान पड़ते हैं, पर उनको प्रत्येक दिन प्रातःकाल जगने पर तीस-तीस मिनट तक चारपाई पर पड़े-पड़े कर लेने से स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो जाता है।

इनमें सबसे पहले पेट का व्यायाम करना चाहिए। इसके लिये प्रत्येक पैर के घुटने को एक-एक बार मोड़ कर पेट की तरफ लाना होता है जिससे पेट पर दबाव पड़े और उसके स्नायु सशक्त बनें। इसके बाद कमर के स्नायुओं का व्यायाम करना चाहिये जिसके लिये दोनों हाथों के भुजदण्डों को एक-दूसरे हाथ से पकड़ कर कमर को एक बार बायीं और दूसरी तरफ दायीं तरफ घुमाना चाहिये। इसी प्रकार क्रम से पेट के स्नायुओं का, कन्धों का, हाथों का, गर्दन का, गर्दन और पीठ की पेशियों का, गले के स्नायुओं का, हाथों की पेशियों का, भुजदण्डों की पेशियों का, यकृत (लीवर) का, ठोड़ी का, गर्दन की बगल की पेशियों का, शरीर की अन्य छोटी-बड़ी पेशियों, हाथों की पेशियों का, कन्धों की पेशियों का, कूल्हे व कमर का, कलाई का, भुजदण्डों और हाथों के पंजों का, पीठ की पेशियों का, हाथ की संधियों का, पैर की पेशियों का, पैर की पिण्डली और कन्धों की पेशियों का व्यायाम करना चाहिये। इन सब अंगों को दबा कर या मोड़ कर थोड़ा-थोड़ा जोर लगाना पड़ता है। इनको लगातार करते रहने से 50-60 वर्ष के ऊपर भी लोगों में जीवन शक्ति स्थिर रहती है। वृद्धावस्था में विशेष परिश्रम वाले व्यायाम केवल वही कर सकते हैं जिन्होंने आरम्भ से ही इस अभ्यास को जारी रखा है। पर जो लोग आरम्भिक जीवन में स्वास्थ्य रक्षा की तरफ से असावधान रहे हैं, या किसी अन्य परिस्थितिवश अधिक निर्बल हो गये हैं उनको एक-एक अंग के हलके और क्रमशः बढ़ाये गये व्यायाम भी लाभदायक होते हैं। विशेष रूप से जब इस प्रकार के व्यायाम भावनापूर्वक किये जाते हैं, अर्थात् अंग-संचालन करते समय विचार-शक्ति को प्रेरित कर के यह कल्पना की जाती है कि हमारे इन अंगों में नवीन शक्ति का संचार हो रहा है तो उसका सत्परिणाम बहुत शीघ्र और उत्तम प्राप्त होता है।

सबके लिये आवश्यक-

स्वास्थ्य रक्षा के लिये छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध सबको किसी प्रकार का व्यायाम करना आवश्यक है और प्राचीन समय में इसके लिये हमारे देश में उचित व्यवस्था भी की गई थी। उस समय हर ग्राम में और हर नगर में एक या अधिक अखाड़े पाये जाते थे जिनमें आठ-दस वर्ष की आयु से ही बालक व्यायाम करने लगते थे। इससे उनके स्वास्थ्य की नींव मजबूत हो जाती थी और अन्तिम समय तक वे निरोग और शक्तिशाली देह का सुखोपभोग करते थे। पर पिछले सौ वर्षों में विदेशी शिक्षा के प्रभाव से इस प्रथा का बहुत कुछ ह्रास हो गया है और अपने को शिक्षित तथा सभ्य समझने वाले व्यक्ति मिट्टी के अखाड़ों में जाना अपनी शासन के विरुद्ध समझते हैं। यह ठीक है कि इन दिनों प्रत्येक आयु और पेशे के व्यक्ति अखाड़ों में नहीं जा सकते और उनकी अवस्था में कुछ त्रुटियाँ भी आ गई हैं, तो भी समयानुकूल परिवर्तित रूप में उनका फिर से प्रचलन किया जा सकता है, और उसके द्वारा हम अपने गिरते स्वास्थ्य को संभाल कर बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं।

वर्तमान समय में भी हमको अपने देश, जाति, राष्ट्र का नव-निर्माण करना है और उसके साथ ही संसार-भर में फैली नाशकारी प्रतिद्वन्द्विता, शत्रुता के निवारण में भी यथाशक्ति सहयोग देना है। इस उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव है जब हममें उसके लायक योग्यता और शक्ति हो। जो लोग केवल मन में बड़ी-बड़ी बातों की कल्पना करते रहते हैं उनके विचार कागजी महल के सिवा और कुछ सिद्ध नहीं होते। हमारे धर्म-ग्रन्थों के अनुसार संसार में सबसे बड़ी शक्ति ‘आत्म-शक्ति’ है जिससे एक बार पूरी दुनिया को भी हिलाया जा सकता है। हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य की अभिवृद्धि एवं सुरक्षा के लिये पूरा प्रयत्न करना चाहिये। इस संदर्भ में व्यायाम एवं शारीरिक श्रम का प्रचलन करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना-


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