मनुष्य जीवन के दो बड़े तथा अपरिहार्य, भय, बुढ़ापा तथा मृत्यु कम व्यग्र नहीं करते। किसी-किसी को तो यह भय इतना सताया करता है कि वह अकाल में ही इनके हवाले हो जाता है। मृत्यु का मुकाबला तो अवश्य नहीं किया जा सकता पर यदि तैयारी कर ली जाये तो बुढ़ापे से जरूर टक्कर जी जा सकती है। किन्तु यह तैयारी बुढ़ापे के आक्रमण से पूर्व ही कर लेनी चाहिये, नहीं तो उसी प्रकार हार हो सकती है जिस प्रकार असावधान तथा असन्नद्ध राष्ट्र आकस्मिक आक्रमण से परास्त हो जाता है।
किसी आकस्मिक आक्रमण अथवा अनजान आपत्ति में अदूरदर्शिता की भूल हो सकती है, असावधानी की गलती हो सकती है, किंतु बुढ़ापे का आक्रमण तो निश्चित है। यह एक न एक दिन होगा ही। तब उसका मुकाबला करने की तैयारी में असावधानी रखना अदूरदर्शिता नहीं मूर्खता होगी। इसलिये किसी भी गफलत अथवा भ्रम में रहे बिना बुढ़ापे से टक्कर ले सकने की तैयारी अवश्य कर लेनी चाहिये।
लोग बुढ़ापे का मुकाबला करने का सबसे बड़ा सम्बल सन्तान को ही मानते हैं। ऐसा मानना कुछ गलत भी नहीं है। बात दरअसल यही है कि सन्तान पिता का नवीन संस्करण होती है। माता-पिता को अधिकार है कि उसके नये प्रतिरूप, अपने बच्चे से बुढ़ापे में उनकी सेवा प्राप्त करें। क्योंकि माता-पिता का सर्वस्व धीर-धीरे बच्चों में ही समाहित हो जाता है और आगे चल कर वे बेचारे खोखले होकर आश्रय के पात्र बन जाते हैं।
अन्य संस्कृतियों के विषय में तो ठीक से नहीं कहा जा सकता किन्तु भारतीय संस्कृति में माता-पिता की सेवा करना पुत्र का परम धर्म रहा है और पूर्वकाल की तो शत-प्रतिशत सन्तानों ने अपने इस धर्म का निष्ठा के साथ पालन किया है और आज भी ऐसे न जाने कितने भाग्यवान सुपुत्र होंगे, जिनके माता-पिता मौजूद होंगे और वे उनकी सेवा का पुण्य लाभ कर रहे होंगे। लेकिन आम तौर पर आज की सामाजिक दशा, समय का परिवर्तन, परिस्थितियों के प्रभाव को देखने से यही पता चलता है कि भारतीय संस्कृति की वह मान्यता अब बहुत कुछ नष्ट होती जा रही है और उसका पालन अपवाद-भर बनता जा रहा है। अब इसको, मानस परिवर्तन, पर-प्रभाव, अभाव अथवा समय का फेर कुछ भी क्यों न कह लिया जाये, इससे कुछ बनता नहीं-मूल बात यह है कि आज प्रायः घर-घर बूढ़ों की दशा बड़ी ही दयनीय है। वे बेचारे बेकार की चीज माने जाकर उपेक्षा के शिकार बनते जा रहे हैं। आज के बदले युग में, बुढ़ापे के कष्टों से बचने का उपाय सोचना ही होगा-क्योंकि इससे शायद वर्तमान बूढ़ों को कुछ राहत मिले और आगामी वृद्धों को पथ-प्रकाश। इसका उपाय सोचने में जड़ की बात यही है कि बुढ़ापे के कष्टों से कम दुःखी होने के लिये जो तैयारी करनी होगी वह सब करनी खुद ही होगी। इसमें किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा रखना फिर वही गलती होगी जिसके कारण बुढ़ापा एक प्राणलेवा शत्रु बन जाता है।
तैयारी की बातों पर विचार करते हुए सबसे पहले यह बात समझ में आती है कि पति-पत्नी को दूध-शकर की तरह घुल-मिल कर एकरूप हो जाना चाहिये और दोनों को एकमत रह कर बुढ़ापे से मुकाबला करने की तैयारी करते रहना चाहिये। एक जगह जब दो मिल कर, वह भी कौन से दो जो एक दूसरे के पूरक हैं और एक नाव के सवार हैं-तैयारी करेंगे तो तैयारी ठीक होगी। एकरूप पति-पत्नी जब निराश्रित होकर यदि संयोगवश बुढ़ापे के बीहड़ में पहुँच भी गये तो एक दूसरे के सहारे काफी साहस और सान्त्वना पा सकेंगे।
एक मत रहने से पति-पत्नी बच्चों का समान रूप से लाड़-दुलार करेंगे, समान रूप से अनुशासन करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप उनके समान श्रद्धाभाजन बनेंगे। ऐसी दशा में माता-पिता का मतैक्य तथा अपने प्रति समान व्यवहार देख कर बच्चे न तो अधिक ढीठ हो पायेंगे और न किसी के पक्षपाती। बच्चों की यह मनःस्थिति उन्हें बहुत कुछ बुढ़ापे का सम्बल बनाने में सहायक हो सकती है।
बच्चों को पढ़ाइये-लिखाइये, पहनाइये-उढ़ाइये, प्यार-दुलार सब कुछ करिये, फिर भी बुढ़ापे में उनसे सहयोग की आशा बिल्कुल भी न रखिये। इसके लिये आप अपने हाथ पैर मजबूत रखिये और बुढ़ापे से अकेले टक्कर रखने के लिये अपनी गाँठ को भी पोढ़ी रखिये। मतलब यह कि बच्चों पर बहुत कुछ खर्च करते हुए भी कुछ बचाते रहना चाहिये। आज के युग में आपकी गाँठ का पैसा गोद के बच्चे से कहीं ज्यादा सच्चा सहायक सिद्ध होगा।
अधिक सन्तान करना भी बुढ़ापे के लिये एक परेशानी पैदा करना है। एक तो ज्यादा बच्चे होने पर घर में हर समय परेशानी रहती है। उनका ठीक-ठीक पालन पोषण नहीं हो पाता तब ऊँची शिक्षा दीक्षा की बात सोच सकना भी मुश्किल होगा। जब शिक्षित बच्चे आज के जमाने में ज्यादा सहायक सिद्ध नहीं होते तब कम पढ़े या न पढ़े लिखे बच्चे क्या पार लगा सकते हैं? कम योग्यता के कारण जब वे खुद कम कमायेंगे तब यदि वे चाहें भी तो अपने बेकार बड़े-बूढ़ों के लिये कुछ न कर सकेंगे। साथ ही अधिक बच्चे होने से बचत तो असम्भव हो ही जायेगी, पत्नी के स्वभाव की मधुरता और स्वास्थ्य समाप्त हो जायेगा, साथ ही बुढ़ापे तक कोई न कोई नाबालिग बच्चा एक बड़ी मुसीबत की तरह साथ लगा रहेगा, जिससे बुढ़ापे में आवश्यक निश्चिन्तता के अभाव में जो दुर्दशा होनी चाहिये वह होगी ही!
बच्चों की शादी तब करिये जब वे पूरी तरह खाने कमाने और घर संभालने लायक हो जायें। नहीं तो पुत्रवधू से घर आँगन की शोभा बढ़ाने की जल्दी में पुत्र के साथ पुत्रवधू के खर्च की भी जिम्मेदारी आप पर आ जायेगी और तब तो आप इस गैरत के मारे और भी न बचा पायेंगे कि पराये घर की लड़की को ऐसा कोई कष्ट न हो कि संबन्धी लोगों को कोई उलाहना देने का अवसर मिले। यह होगा सो तो होगा ही लड़के निकम्मे हो जायेंगे। कमाने से पहले शादी उन्हें कामचोर, आलसी और विलासी बना देगी। इससे बेटा माँ-बाप के लिये तो समस्या बनेगा ही खुद अपने लिये भी मुसीबत बन जायेगा और तब वह आपके बुढ़ापे के लिये सम्बल बन सकेगा ऐसी आशा करना मरुमरीचिका से कम सिद्ध न होगी!
यह तो रही बाल-बच्चों के और उनके जीवन के नियंत्रण की बात। अब अपनी बात पर आइये। आप दोनों अर्थात् पति-पत्नी ने यौवन की हवा में जीवन को बहार का स्थान दिया नहीं कि आप बहने लगेंगे और जवानी के उस अन्धे बहाव में वह सब कुछ बहा देंगे जिसकी बुढ़ापे में निहायत जरूरत होगी। जवानी की बहार मनाने में पैसा, स्वास्थ्य तथा स्वभाव सब कुछ चला जायेगा। खाने-पीने और मौज करने में लगे रहने से आप वृद्धता के आक्रमण का मुकाबला करने की तैयारी न कर पायेंगे। यह बात सही है कि जवानी में बुढ़ापा न आ सकने वाली दूरी पर जरूर दीखता है लेकिन सही यह भी है कि जवानी के दिन बहुत तेजी से गुजरते हैं और तब तो उनमें बड़े-बड़े पंख लग जाते हैं जब जवानी को जल्दी-जल्दी सुखों का उपभोग करने में लगा दिया जाता है। जीवन बहार नहीं है वह एक कर्तव्य है जिसे सोच समझकर और आगा पीछा देखभाल कर निभाया जाता है। जिन्दगी की बहार इसी में है कि वह एकसार चलती हुई कहीं पर हार न माने। चार दिन की जवानी की बहार यदि एक लम्बे बुढ़ापे का पतझर बन कर तपती, तरसती और तड़फती हुई संसार से विदा हुई तो क्या मजा रहा। इसलिये आवश्यक है कि जवानी की समर्थ आयु में ही अपने स्वास्थ्य, स्वभाव तथा स्वाद के यथेष्ट संयम का अभ्यास कर लिया जाये जिससे यह संचित सम्पत्ति आपके बुढ़ापे का सच्चा सामर्थ्य तथा स्थायी सम्बल बन सके।
कम से कम आवश्यकतायें, न्यूनतम इच्छायें, तृष्णायें, आशायें और चिन्तायें लेकर जो बुद्धिमान तन मन और धन के साथ बुढ़ापे के मोर्चे पर पहुँचता है उसे कोई सहायता दे या न दे वह अवश्य जीतता है, निश्चित रूप से विजयी होता है!