सुसंस्कारों से स्वास्थ्य एवं सौंदर्य की वृद्धि

August 1967

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संसार में सभी सुन्दर दीखना चाहते हैं, कोई भी यह नहीं चाहता कि वह असुन्दर तथा कुरूप दिखाई दे। अपनी सुन्दरता को बढ़ाने, बनाये रखने, अथवा पैदा करने के लिये लोग खर्च और प्रयत्न भी किया करते हैं। आजकल सौंदर्य-प्रसाधनों पर लोग प्रति वर्ष लाखों करोड़ों रुपया खर्च करते हैं। प्रसाधन सामग्री की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां दिन-रात काम करती है। लोग तरह-तरह के वेश-विन्यास तथा फैशनों को सुन्दर तथा आकर्षक दीखने के लिये अपनाते हैं। किन्तु खेद का विषय है कि वे प्रसाधन के बावजूद भी असुन्दर और कुरूप ही दीखते हैं। सुन्दरता बढ़ने के बजाय घटती जा रही है। सौ, दो-सौ, चार-सौ में एक आध आदमी, औरत भी वास्तविक रूप से सुन्दर नहीं दिखलाई देते।

सौंदर्य प्रसाधनों का प्रचार ही इस बात का प्रमाण है कि संसार से प्राकृतिक, स्वाभाविक अथवा वास्तविक सुन्दरता का ह्रास होता जा रहा है। यदि इस अप्रिय प्रसंग में गहराई से पैठा जाये और उसके कारणों की खोज की जाये तो पता चलेगा कि लोग सुन्दरता का वास्तविक अर्थ भूलते जा रहे हैं। उन्हें यह स्मरण नहीं रह गया है कि सुन्दरता का निवास मनुष्य के अन्दर है, इन बाजार में बिकने वाले शृंगार साधनों में नहीं। शृंगार और सज्जा भी सुन्दरता नहीं है, यह एक सलीका है जो सभ्यता के साथ मनुष्य की सुरुचि का परिचय देता है। किन्तु इस सलीके में से भी सुघड़ता एवं स्वाभाविकता इस सीमा तक दूर कर दी गई है कि वह भी एक भोंड़ा प्रदर्शन भर रह गया है।

सुन्दरता का निवास यदि प्रसाधनों, शृंगारों, अथवा बाह्याडम्बरों में होता तो हर वह मनुष्य सुन्दर दीखना चाहिये, जो इनका प्रयोग करता है और हर वह स्त्री-पुरुष कुरूप दीखनी चाहिये जिसे यह साधन या तो उपलब्ध नहीं है अथवा वह इनका उपयोग नहीं करती। परन्तु ऐसा नहीं है। गाँवों के प्रसन्न एवं स्वच्छ वातावरण में पलने वाली सुन्दरियाँ प्रसाधन से पुती नागरिकाओं से अनेक गुना सुन्दर होती हैं। कृत्रिमता से हटकर जितना ही स्वाभाविकता की ओर जाइये आपको अधिकाधिक सुन्दरता देखने को मिलती जायेगी। मनुष्यों से हटकर पशु-पक्षियों में आ जाइये। उनके पास न तो कोई प्रसाधन होता है और न शृंगार सामग्री और न वे किसी प्रकार की सजा सज्जा ही करते हैं, तब भी कितने सुन्दर, आकर्षक तथा भोले लगते हैं। इसका अर्थ यही है कि सुन्दरता का रहस्य प्रसाधन अथवा शृंगार नहीं कुछ और ही है।

अनेक लोगों का कथन है कि सुन्दरता ईश्वर प्रदत्त विशेषता है, जिसे मिल जाती है वह सुन्दर दीखता ही है। ऐसे लोग गोरी चमड़ी और अच्छे नाक नक्शे को सुन्दरता मान लेते हैं। जबकि रंग तथा नाक नक्शे से भी सुन्दरता का संबन्ध नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर काले व्यक्ति को कुरूप दीखना चाहिये। जब कि एक-से-एक बढ़कर काले लोग सुन्दर देखने में आते हैं। और तो और भगवान् राम और कृष्ण काले थे, किन्तु इसके बावजूद भी वे इतने सुन्दर थे कि उनकी सुन्दरता का गुण-गान आज तक गाया जा रहा है। सुन्दरता का निवास यदि गौरवर्णता में ही होता तो महापुरुष सुन्दर न होते और इनके गुणों तथा कार्यों का भले ही बखान किया जाता किन्तु सुन्दरता का नहीं।

अनेक बार देखा और अनुभव किया जा सकता है कि अनेक लोग गोरे-चिट्टे तथा अच्छे नाक नक्शे वाले होते हैं। फिर भी मन उनकी और आकर्षित नहीं होता। बहुत बार तो रंग तथा नाक नक्शे वाले अनेक लोगों को देखकर अनाकर्षण ही नहीं विकर्षण, अरुचि तथा घृणा तक होने लगती है। इसका यही अर्थ है कि सुन्दरता का निवास वर्ण अथवा बनावट में नहीं, बल्कि किसी और बात में है।

सभी के जीवन में कोई न कोई ऐसा सन्त, महात्मा, साधारण व्यक्ति आया होगा जो रंग, रोगन, बनाव शृंगार तथा नाक नक्शे से सर्वथा रहित रहता होगा, पर उनमें इतना आकर्षण रहा होगा कि पास से हटने की इच्छा न होती होगी। अष्टावक्र ऋषि आठ जगह से कुबड़े थे और इतने कुरूप थे कि उनका नाम ही आठ जगह से टेढ़ा पड़ गया। चाणक्य की कुरूपता प्रसिद्ध है। कार्लमार्क्स, टॉलस्टाय, अब्राहम लिंकन तथा महात्मा गाँधी, प्रभृति व्यक्ति संसार के कुरूप व्यक्तियों में माने जाते हैं। यूनान के सुकरात तो कुरूप ही नहीं काले और मोटे थे, पर इनका व्यक्तित्व इतना आकर्षण और स्वयं में यह इतने सुन्दर थे कि इनकी एक झलक देखकर ही लोग मुग्ध हो जाते थे। जो इनके समीप गया सदा−सर्वदा के लिये इनका हो गया। हजारों लाखों इनकी मोहकता से मुग्ध होकर दूर से झाँकी लेने के लिये आया करते थे। यदि सुन्दरता का मानदण्ड रंग और नाक नक्शा ही होता तो इस माने में इन व्यक्तियों को कुरूप एवं निराकर्षक होना चाहिये था। इससे पता चलता है कि सुन्दरता न तो कोई ईश्वर प्रदत्त प्रसाद है और न इसका निवास रंग अथवा नाक नक्शे में होता है। इसका कुछ और ही रहस्य है, जिसे लोग समझने तथा अपनाने का प्रयत्न न करके भ्रान्तियों में बहे चले जा रहे हैं।

सुन्दरता का रहस्य वास्तव में मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर है। स्वस्थ शरीर निर्विकार मन और मधुर स्वभाव का समन्वय सुन्दरता बनकर मुख पर चमका करता है। मनुष्य का रंग काला ही क्यों न हो, उसका नाक नक्शा भले ही आकर्षक न हो, यदि वह निरोग है, उसका मन स्फूर्तिपूर्ण है वह काम को लाघवता के साथ कर सकता है, फूल की तरह प्रसन्न तथा खिला हुआ रहता है तो उसके मुख पर एक ऐसी छवि बनी रहती है जो सुन्दरता के रूप में अनायास ही दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। मनुष्य को ही क्यों साधारण पशु-पक्षियों को देख लिया जाये, जब वे खुशी के साथ खेलकूद कर, फुदक और चहककर अपने हृदय का हर्ष प्रकट करते हैं तो दर्शकों का मन दो क्षण को ठहरा ही लेते हैं। इसके विपरीत जब यही पशु-पक्षी लड़ते-झगड़ते अथवा आलस से ऊंघते झींकते बैठे रहते हैं तो किसी का भी ध्यान इनकी ओर नहीं जाता। एक खिला और डाल पर झूमता हुआ फूल जितना मन-भावन लगता है, उतना मुरझाया अथवा माला में डाला हुआ फूल सुन्दर नहीं दिखाई देता। रंग, रस तथा सुगन्ध रहने पर भी मलिन होता हुआ फूल अपनी सुन्दरता खो देता है। सुन्दरता का निवास उत्तम संस्कार निर्विकार जीवन और प्रसन्न मन से ही रहता है। इसको प्रसाधनों में मानना अथवा साज-सज्जा से पा लेने का प्रयत्न करना एक भ्रम तथा भूल ही है।

व्यक्ति के मुख पर, आन्तरिक अवस्था का प्रभाव आकर्षण अथवा विकर्षण बन कर दिखाई देता है। बहुत बार दुराचारी, दुष्ट तथा अत्याचारी व्यक्ति भी नाक-नक्शे तथा रंग रूप से अच्छे लगने वाले होते हैं। किन्तु उनका व्यक्तित्व किसी में आकर्षण अथवा प्रियता उत्पन्न नहीं कर पाता। प्रत्युत जो भी उसे देखता है उसको घृणा मिश्रित विकर्षण की ही प्रतिक्रिया होती है। सुन्दरता के सामान्य मानदण्ड पर योग्य उतरने पर भी दर्शकों में उसके प्रति प्रतिकूल, प्रतिक्रिया क्यों होती है? इसका कारण यही है कि उसका हृदय क्रूर एवं कलुषित होता है। उसके हृदय के दुष्ट भाव उसके मुख मण्डल की सुन्दरता को दबाकर मलिन कर देते हैं। एक व्यक्ति सुन्दरता के बाह्य मानदंड पर तो नहीं उतरता किन्तु उसका हृदय सरल, सौम्य, निश्छल तथा निर्विकार है तो कोई कारण नहीं कि उसकी अंतर्दशा का प्रकाश उसके मुख मंडल पर न उभरे और वह सुन्दरता के रूप में लोगों में प्रियता अथवा आकर्षण उत्पन्न न करे। सहज सुन्दरता पाने और आकर्षक दिखाई देने के लिये आन्तरिक सुदशा की अपेक्षा है। इसके अभाव में कोई कितना ही क्रीम पाउडर क्यों न मले, कितना ही शृंगार एवं साज सज्जा क्यों न करे, सुन्दर एवं सौम्य नहीं दिखाई दे सकता। सुन्दरता का रहस्य बाहरी चमड़ी में नहीं, आन्तरिक सुदशा में निहित है।

मानसिक भावों एवं विचारों की तरह गुण-अवगुण भी सुन्दरता के कारण होते हैं। जो मनुष्य परोपकार, परमार्थ तथा परसेवा में लगे रहते हैं, किसी की भी सहायता सहयोग करने में मुख नहीं मोड़ते, सान्त्वना, साहस, प्रोत्साहन तथा आश्वासन देना जिनका स्वभाव होता है वे बाहर से कितने ही कुरूप तथा भोंड़े क्यों न हों। पर वास्तविक सुन्दरता, वह सुन्दरता जो दूसरों को मुग्ध कर लेती है, उनके बाह्य व्यक्तित्व में भी चमत्कार उत्पन्न कर ही देगी।

यदि हम सुन्दर बनना और सुन्दरता को स्थिर रखना चाहते हैं तो हमें प्रसाधन, प्रदर्शन, आडम्बर अथवा शृंगार सामग्री के स्थान पर आन्तरिक दशा को सुधारने एवं शुभ बनाने का प्रयत्न करना होगा। यदि हमारा स्वभाव क्रोधी है, हम ईर्ष्या, द्वेष से जलते-भुनते रहते हैं, लोभ, स्वार्थ अथवा पर-धन प्राप्ति की विषैली भावना को पालते रहते हैं तो दुनिया भर के प्रसाधनों का प्रयोग करते रहने पर भी हमारा व्यक्तित्व मोहक अथवा मन-भावन नहीं बन सकता।

गोरे चिट्टे तथा नाक-नक्शे से ठीक होने पर भी हम दूसरों के लिये विकर्षण के कारण ही बनेंगे। एक स्त्री जो देखने में सुन्दर भी है, उसका नाक-नक्शा भी बुरा नहीं है, शृंगार तथा साज भी करती है, सलीके से रहना भी जानती है किन्तु उसमें कलह करने, डाह से जलने, बात-बात पर उलझ पड़ने और बड़बड़ाते रहने की आदत है तो उसके सारे सौंदर्य चिन्हों पर पानी फिर जायेगा। जो भी उसके संपर्क में आयेगा अप्रसन्न ही होगा। गरीब, कुरूप तथा शृंगार रहित स्त्रियाँ भी अनेक बार अपने मधुर स्वभाव, सौम्य व्यवहार, मृदुता एवं स्नेहता के कारण परिवार तथा गुरुजनों की प्यारी बन जाती हैं। उन्हें देखकर एक अहेतुकी प्रसन्नता का अनुभव होता है। न्यूनाधिक सुन्दरता वाली बहुओं में अनेक बार अधिक सुन्दर बहू की अपेक्षा कम सुन्दर बहू परिवार तथा सास ससुर पर मोहिनी कर देती है। इसका कारण उन दोनों की मानसिक दशा तथा उनका गुण अवगुणपूर्ण स्वभाव ही होता है। सुन्दर गुणों के कारण असुन्दर पत्नियाँ पतियों की प्यारी रहती हैं जबकि दुर्गुणों के कारण सुन्दर से सुन्दर नारियाँ अपने पति का स्नेह पाने से वंचित रह जाती हैं।

असुन्दरता अथवा अरूपता एक दोष है और सुन्दरता अथवा मनभावनता एक गुण अथवा विशेषता है। यह मान्यता नितान्त भ्रम है। मनुष्य को अधिक से अधिक सुन्दर बनने का प्रयत्न करना चाहिये, किन्तु वास्तविक सुन्दरता क्या होती है इस ज्ञान के साथ। केवल साज-सज्जा अथवा लीपापोती से सुन्दरता प्राप्त करने का प्रयत्न करना भूल है और इस भूल से हरएक को बचते रहना चाहिये। सुन्दर बनना है तो गुणवान्, सद्भावी, स्वस्थ तथा स्वच्छ बनना होगा। शरीर को लीपने-पोतने के बजाय उसे स्वच्छ बनाना होगा। बाह्य प्रसाधन अथवा नाक-नक्शे पर निर्भर न रहकर हृदय का संस्कार करना होगा।

स्वास्थ्य प्राप्त करने का एकमात्र उपाय समय, श्रम तथा नियमित जीवनयापन ही है। मानसिक सुधार, प्रसन्नता, प्रेम, अक्रोध आदि का प्रश्रय लेने से होता है। अधिक से अधिक यहाँ तक कि विपत्ति में भी प्रसन्न रहिये, कटु परिस्थिति में भी क्रोध न करिये, दूसरों के लिये सद्भावना, सेवा तथा सहायता के भाव रखिये, यथासम्भव परमार्थ एवं परोपकार करिये-आपका मानसिक संस्कार हुए बिना न रहेगा। इस प्रकार जो भी व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य का विकास कर लेगा वह निश्चित रूप से सुन्दर तथा आकर्षक बन जायेगा इसमें किसी प्रकार के सन्देह की गुँजाइश नहीं है।

मानसिक स्थिति का सुन्दरता से क्या संबन्ध है, इसको बतलाते हुए एक विद्वान ने लिखा है-अच्छे और बुरे विचारों की धारा मानसिक केन्द्र से चारों ओर फैलकर रक्त प्रवाह के साथ त्वचा-तल तक विद्युत धारा की तरह आती और अपना प्रभाव छोड़ जाती है। यदि यह विचार धारा निरन्तर आती जाती रहती है तो उसका प्रभाव स्थायी बन कर सुन्दरता असुन्दरता के रूप में प्रतिबिम्ब होने लगता है। अस्तु आवश्यक है कि वास्तविक तथा स्थायी सुन्दरता पाने के लिये स्वस्थ तथा संस्कारवान् बना जाये। अपने मन तथा मस्तिष्क को बुरे विचारों, दूषित भावनाओं से मुक्त रखकर उनके स्थान पर दैवी भावों का समावेश किया जाये।


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