मनोनिग्रह के लिये विचार, विवेक और वैराग्य

August 1967

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जिस प्रकार ज्ञान का कोई स्वरूप नहीं है वह मन की ही एक शक्ति है उसी प्रकार मन का भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इच्छा और विचार करने की शक्ति का ही नाम मन है। इसलिए मनोनिग्रह के लिये, मन को वश में रखने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि उसे निरन्तर विचार निमग्न रखा जाय। एक विचार की दूसरे विचार से काट-छाँट और स्थानापत्ति की जाती रहे।

मन में अधिकाँश वही इच्छायें उठती हैं जो तात्कालिक या अल्प काल में ही सुख दे सकती हैं। इन्द्रियों के सुख उनमें प्रधान हैं। मनुष्य का मन जब तक इन नन्हीं-नन्हीं इच्छाओं में फँसा रहता है तब तक न उसकी शक्ति प्रकट होती है न मनुष्य जीवन की उपयोगिता, इसलिये यह आवश्यक है कि हम आध्यात्मिक जीवन का भी चिन्तन किया करें। वैराग्य ऐसे ही चिन्तन का नाम है जिसमें हम लोकोत्तर जीवन की कल्पना और सत्य जानने का प्रयास करते हैं। मन बुद्धि, चित्त आदि शक्तियाँ मिलीं भी मनुष्य को इसलिये हैं कि मनुष्य अपना पारमार्थिक उद्देश्य हल कर सके।

भगवान् कृष्ण ने भी गीता में वैराग्य को मनोनिग्रह का उपाय बताया है। महर्षि पतंजलि ने योगशास्त्र में “अभ्यास वैराग्याभ्याँ तन्निरोधः” “वैराग्याभ्यास से मन का निरोध होता है” यह सूत्र लिखा है। अभ्यास से उद्धत मन वश में होता है वैराग्य से उसे निर्मल, कोमल और शान्त बनाया जा सकता है।

हुआ यह कि हमने अपने जीवन को बहिर्मुखी बना लिया है। उतना ही सोचते हैं जितना व्यक्त है, दिखाई देता है, पर बहुत कुछ ऐसा भी है जो दिखाई नहीं देता पर उसका स्वरूप है। वह शाश्वत सत्य भी है। अनेक वस्तुयें ऐसी हैं जिनसे इस जीवन में वैभव और इन्द्रिय भोग का सुख दिखाई देता है। पर जन्म-मरण का भय, प्रियजनों का विछोह, खाँसी, बुखार-बीमारी, कटुता-कलह, अत्याचार, भय विद्वेष प्राकृतिक प्रकोप यह सब मनुष्य के बहिर्मुखी जीवन का गतिरोध करते हैं, आवश्यक है कि इनसे मनुष्य क्षुब्ध हो और दुख अनुभव करे। इन सम्पूर्ण अभावों से परे जो सनातन आनन्द की स्थिति है वह कैसे प्राप्त हो? जन्म मृत्यु का बन्धन और भय कैसे मिटे? शरीर से परे यह जो आत्मा है जो चलता, हिलता, डुलता बोलता है उसकी उपलब्धि कैसे हो ? यह ऐसे प्रश्न हैं जिन पर विचार करके मनुष्य अपने मन को अंतर्मुखी बना सकता है। वैराग्य का यही स्वरूप भी है कि मनुष्य जितना लौकिक सुख साधनों का चिंतन करता है उससे अधिक अमरत्व का शाश्वत सुख और सनातन स्वरूप का भी चिन्तन करे।

आध्यात्मिक चिंतन आत्म-कल्याण के लिये उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। किन्तु लौकिक वासनायें और इच्छायें भी तो इतनी जल्दी नहीं मिटतीं। ईश्वर का भजन करने बैठिये, हाथ चलेगा, माला घूमेगी, मन्त्र जाप भी होगा किन्तु मन जिसे ईश्वर के प्रकाश की ओर गमन करना चाहिये था वह तो बार-बार अपनी प्रिय वस्तुओं, ऐच्छिक इन्द्रियों के विषय भोगों की और लपटें लेगा। कठोर संयम और तितिक्षाओं से मन को दण्डित कर इस तरह भटकने से रोकने का भी विधान है किन्तु जिस प्रकार दंड से जानवर और भी क्रुद्ध और हिंसक बनते हैं, उसी प्रकार मन भी चोट खा कर विद्रोह करता है। मन वस्तुतः हमारा शत्रु नहीं है उसे यदि पुचकार कर मित्रतापूर्वक सलाह दी जाये अर्थात् प्रेमपूर्वक यह बताया जाये कि-”भाई-यह ऐन्द्रिक सुख तुम कब तक भोग सकोगे? कब तक क्रोध, मोह, लोक संग्रह, व्यभिचार और अनाचार में पड़े रहकर अपने लिये दुःख की फसल बोते रहोगे? भाई, कुछ ऐसा काम करो जिससे पद-पद पर होने वाली ईर्ष्या, अपमान, शोक-बीमारी, कलह की कुँठाओं से छुटकारा मिले। आखिर यह जीवन भी कितने दिन चलेगा ? यह युवावस्था कब तक रहेगी ? शरीर ढलेगा ही, मृत्यु होगी ही। क्यों न अमरत्व की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करें क्यों न अपने को परमात्मा की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करें। “

यह विचार मन के समर्थन में न आयें ऐसा सम्भव नहीं। मन जैसा मित्र नहीं। आखिर वह भोग भी तो आत्मतृप्ति के लिये ही करता है। जितना ज्ञान, विवेक और विचारशक्ति होती है उतने क्षेत्र में वह आत्म-सुख ही तो ढूंढ़ता है। यदि अपना ज्ञान बढ़ाकर उसे बड़े सुख, उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य का ज्ञान कराया जा सके तो वह उधर भी हँसी-खुशी-से चल देगा। स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, शंकराचार्य, दयानन्द आदि को भी उत्कृष्ट जीवन की ओर प्रेरित करने वाले उनके मन ही थे। मनोबल जगाया जा सके उसे मित्र बनाया जा सके तो जो काम कठिन तपश्चर्या से सम्भव नहीं हो पाता वह क्षण भर में मन के सहयोग से सफल हो सकता है।

अवगुणी मन को सद्गुणी बनाने के लिये विवेकशील होना आवश्यक है। विचार, विवेक और वैराग्य वस्तुतः एक ही क्रम की अनेक शृंखलायें हैं। विचार का अर्थ है मन को स्थिर न रहने देना आलसी न होने देना। जब वह स्थिर होता है तभी भोग की, काम की इच्छा जागती है। इसलिये एक पर एक विचार उठाना चाहिये। यह सम्भव नहीं कि अधिक अभ्यास से पूर्व ही मन में अच्छे विचार आने प्रारम्भ हो जायें। अब तक जैसा जीवन क्रम रहा है और पूर्व जन्मों में जो प्रवृत्तियाँ रही हैं वह भी दबाये नहीं दबतीं पर उन्हें काटा आसानी से जा सकता है। अच्छे विचारों का ग्रहण और बुरों का त्याग यही विवेक है। मुझे यहाँ से चल कर अमुक स्थान पर भोग भोगना चाहिये, यह एक विचार हुआ। यदि उसे स्वतन्त्र रखा जाता तो वह उसी दिशा में कल्पना करता-उस स्थान तक इतने समय में पहुँचना है, यह वस्तु वहाँ मिलेगी, यह आवश्यक होगी......तब यह भोग उपलब्ध होगा आदि। पर यदि मूल विचार के साथ ही रुख बदल दिया जाये तो मन का बुराई से बचना संभव हो जाय। वहाँ सोचना चाहिये- “उससे यह बीमारी सम्भव हो सकती है। स्वास्थ्य गिरेगा, धन व्यय होगा, तो दूसरे आवश्यक कार्यों में परेशानी आयेगी, उसकी अपेक्षा यह थोड़ा सा समय है इसे क्यों न किसी उत्पादक कार्य में लगायें? घर की, कपड़ों की सिलाई कर डालें, बागवानी करें, कोई उद्योग करें आदि। रचनात्मक दिशा में जब मन काम करने लगता है तो ऐसी अनोखी बातें सूझती हैं कि आश्चर्य होता है। दरअसल लोग मन की ताकत को पहचानते नहीं अन्यथा यदि उसे रचनात्मक दिशा दी जा सके तो आर्थिक औद्योगिक, शिक्षा रोजगार अथवा नेतृत्व की दिशा में वह अनोखी सफलतायें और चमत्कारी उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकता है।

आपका मन सोया पड़ा है इसे सावधान कर दें, जगा दें। रचनात्मक विचारों की चिल्लाहट से इसे शान्त न होने दो यह आपके लिये वह भौतिक सफलतायें भी प्रस्तुत करेगा जिनकी आप इस जीवन में कामना करते हैं।

विचार और विवेक की इसी दिशा को जब आत्मा के रहस्य अनुभव करने की ओर संयोजित कर दिया जाता है तो वैराग्य का अभ्यास होने लगता है। अंतर्जगत में जो प्रक्रियायें चला करती हैं बाह्यजगत में उन्हीं को मन क्रियान्वित किया करता है। मनुष्य यदि यह जान ले कि बाह्य जगत के हमारे समस्त प्रयास मनोजगत की प्रेरणा से हमारे अहंकार को सक्रिय करने का ही परिणाम है, तो यह एक बहुत बड़ी बात होगी। इतना आभास होते ही मन और अहंकार एक तमाशे जैसे दिखाई देने लगते हैं, और एक तीसरी सत्ता की अनुभूति होने लगती है। मन का बिचौलियापन सिद्ध हो जाये तो फिर यह समझते देर न लगे कि हम आत्मा हैं और शरीर धारण का हमारा लक्ष्य भिन्न है। यह भिन्नता का भाव ही महत्व का है।

वह तत्व हमारे अन्दर बैठा है जिसके न रहने पर यही शरीर शव कहलाने लगता है। यह तत्व ही आत्मा है, चाहें तो इसे ही परमात्मा कह सकते है। विचार और विवेक द्वारा जब उसकी अनुभूति हो जाय तो साँसारिक तृष्णाओं, इच्छाओं और धारणाओं को हटाकर तत्व चिंतन की दिशा में अग्रसर करने का अभ्यास किया जा सकता है। जितना प्रखर यह अभ्यास होगा वैसा ही वैराग्य पारलौकिक जीवन के प्रति संवेदना का भाव भी जागृत होने लगेगा। जब यह सिद्ध हो जायेगा, मन यह स्वीकार कर लेगा कि परलोक ही सत्य है, आत्मा ही अमरत्व है तो फिर मन से झंझट करने की आवश्यकता ही न रहेगी, वह आपका मित्र बन जायगा।


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