गुरु प्रदत्त शिक्षा-पद्धति की विशेषता

August 1967

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“मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ, भूमि मेरी माता है। मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में अर्पण रहेगा। लोक कल्याण की सेवा के लिये समर्पित रहेगा। मैं सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान और शक्ति से उद्दीप्त रखूँगा। गुरुदेव द्वारा प्रदत्त शक्ति से मैं अपने राष्ट्र को जीवित और जागृत रखूँगा। मेरे जीवित रहने तक मेरे धर्म और संस्कृति को आँच नहीं आने पायेगी।”

तब के 25 वर्षीय स्नातक की, जो गुरुकुल से विदा होने पर उपरोक्त प्रकार की प्रतिज्ञा लेता था, बौद्धिक प्रतिभा, उद्दात्त भावना और उच्चतम आध्यात्मिक संस्कारों का पता इस एक ही वाक्य से चल जाता है। यह विशेषता स्नातकों की अपनी नहीं होती थी वरन् उन्हें गुरुकुल विद्यालयों के वातावरण में इस प्रकार ढाला जाता था। श्रेय प्राचीन गुरुकुलों और आचार्यों को है जिनकी शिक्षा-पद्धति ऐसी थी जो मनुष्य को न केवल आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के दार्शनिक और तात्विक ज्ञान से ओत-प्रोत बनाती थी वरन् उनमें ऐसी शक्ति और प्रतिभा का भी विकास करती थी जो अपने को ही नहीं सारे समाज को ऊर्ध्वगामी बनाये रखने में समर्थ होती थी।

आज की टूटी-फूटी लकीर में चल रहे ऐसे विद्यालयों में छात्रों के सादे जीवन, सरल वेष-भूषा को देखकर यह अनुमान लगाया जाता है कि गुरुकुलीय शिक्षा विद्यार्थियों को कमजोर बनाती है किन्तु यह निरी विडम्बना मात्र है। गुरुकुल के छात्रों में वह गंभीर शक्ति होती थी जिसे सम्भवतः आज का निर्बल छात्र वहन करने में भी समर्थ न हो। जिन्हें इस प्रकार के शिक्षण की एक किरण का भी अनुमान है वे उसकी तेजस्विता और प्रखरता से भी अनभिज्ञ नहीं हो सकते।

पाणिनि की तरह व्याकरण, पातंजलि की तरह योग, चरक और सुश्रुत की तरह औषधि-शास्त्र, मनु, याज्ञवलक्य आदि के संविधानों में अत्यन्त सूक्ष्म तत्वज्ञान और बौद्धिक शक्तियों का अवतरण हुआ है। गुरुकुलों में आरण्यक और उपनिषदों की रचना हुई। उपपुराण और पुराण लिखे गये। गुरुकुलों में आविष्कृत ज्ञान का सहारा लेकर आज पाश्चात्य देश छोटे-छोटे खिलौने उड़ा रहे हैं।

हमारा बौद्धिक ज्ञान उससे भी विलक्षण और परिपूर्ण रहा है। बिन्दु में सिन्धु, राई में पर्वत, अणु में विभु का साक्षात्कार यदि किसी की समझ में न चढ़े, सत्यता में संदेह हो तो भी स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में- “इतनी उच्च कल्पना भी संसार में कोई नहीं कर सका।” हमने परमानन्द को स्वर्ग से उतार कर अपनी जन्मभूमि में रख दिया। हम बड़े गर्व से कहते हैं ईश्वर मेरा है, मेरे भारतवर्ष का है। यह कोई विक्षिप्तता नहीं, तादात्म्य की सही रूपरेखा है। इस देश के संकल्प बल के आगे देवता तो क्या परमात्मा को भी नत-मस्तक होना पड़ा है।”

फिर कौन कह सकता है कि हमारी संस्कृति और शिक्षा-पद्धति कमजोर थी। यह तो हमारे आध्यात्मिक अभ्युत्थान, ज्ञान गरिमा का संक्षिप्त चित्रण है जिस के द्वारा यहाँ का जन-जीवन अविद्या रूपी आवरण का अपसरण कर जीवन मुक्ति का आनन्द लिया करता था। शारीरिक और सामाजिक शक्ति समृद्धता में भी हम किसी से पीछे नहीं रहे।

विज्ञान इतना आगे बढ़ चुका है पर अभी महाभारत काल जैसे भी इच्छा-चालित शस्त्र और आग्नेयास्त्र नहीं बन पाये। शारीरिक शक्तियों की प्रौढ़ता के बारे में तो कहना ही क्या? शान्त तपोभूमियों के वातावरण में रहने वाले परिश्रमी बालकों के मुख जिस तेज से दमदमाया करते थे आज उसकी कल्पना भी किसी चेहरे पर नहीं झाँकती। पीले और निचोड़े विद्यार्थी ही इधर-उधर डोलते दिखाई देते हैं। 100 वर्ष तक 100 बसन्तों का आनन्द लेने की शारीरिक क्षमता का निर्माण भी गुरुकुलों में ही होता था।

जहाँ स्वार्थ नहीं परमार्थ को पूजा जाता था, अनात्म नहीं आत्मवत् सर्व भूतेषु की प्रतिष्ठा थी वहाँ-”जिमि सुख सम्पत्ति बिनहिं बुलाये। धर्मशील पहँ जाहिं सुहाये” वाली कहावत चरितार्थ होती थी। इस तरह का सर्वांग पूर्ण व्यक्तित्व और वातावरण बनाने में नींव का काम गुरुकुलों में होता था। समाज की सम्पूर्ण समृद्धि और सुव्यवस्था का कारण वह शिक्षा पद्धति ही थी जो आचार्यों के संरक्षण में रखकर किशोरों को दिलाई जाती थी।

विद्यार्थियों को इनमें राष्ट्र-सेवा और जन सेवा की, संयम और नियमपूर्वक त्याग एवं तप पूर्ण जीवन जीने की, आचार्य, अतिथि, माता-पिता और भाई के प्रति आदर और श्रद्धा की उच्च भावना रखने की शिक्षा दी जाती थी। सादा जीवन और उच्च चिन्तन यद्यपि उनका आदर्श रहता था, पर ज्ञान और शक्ति के जगमगाते सूर्य ही हुआ करते थे तब के विद्यार्थी। साँचे में ढाले हुए यही बालक-जब गृहस्थ धर्म को संभालते थे तो वहाँ भी सुख और सौभाग्य का स्वर्ग उपस्थित कर देते थे।

शिक्षा का जीवन से पूर्ण संबन्ध था। व्यक्ति के अज्ञान किंवा अविद्या के नाश के अतिरिक्त उसके गुण, कर्म, स्वभाव, आचार-विचार, दृष्टिकोण, बल, विवेक, चातुर्य तथा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का विकास अर्थात् सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व का विकास हमारे गुरुकुलों में दी जाने वाली शिक्षा का उद्देश्य होता था। उस शिक्षा पद्धति की उपयोगिता और व्यावहारिकता का तो कहना ही क्या?

आज का विद्यार्थी अस्त-व्यस्त है। न उसकी शारीरिक शक्तियाँ मुखर हैं न बौद्धिक। स्कूल से निकलते वह अनुशासनहीनता, चारित्रिक पतन, मनोविकारों का बोझ और कन्धे पर डाल लेता है। फिर जब वह गृहस्थ में प्रवेश करता है तो वहाँ भी कलह, क्रूरता, स्वेच्छाचारिता, आलस्य, अकर्मण्यता के अतिरिक्त कोई नया जीवन नहीं जगा पाता। हो भी कैसे सकता है, कमजोर नींव पर खड़ा मकान आखिर कमजोर ही हो सकता है।

जो शिक्षा शिक्षार्थी को अपना ही ज्ञान नहीं करा सकती, जीवन की समस्याओं का सम्यक् बोध नहीं करा सकती उसमें चाहे इतिहास पढ़ाया जाय अथवा नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, शरीर या जीव विज्ञान, वह कभी उपयोगी नहीं हो सकती। मनुष्य अपने आप में आध्यात्मिक तथ्य और सत्य है जब तक उसकी शिक्षा पद्धति में आध्यात्मिकता की नींव नहीं पड़ती तब तक वह शिक्षार्थी को उसके वास्तविक लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकती। उलटे गड़बड़ी ही पैदा कर सकती है। बन्दर के हाथ तलवार दे देने जैसी परिस्थिति आज सर्वत्र बन रही है। बुराइयों के साथ बढ़ी हुई बौद्धिक शक्ति से विनाशकारी परिस्थितियों का ही निर्माण हो सकता है? सो वही आज हो भी रहा है।

यह स्थिति आज सबके सामने है। तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है- “क्या हमारी शिक्षा पद्धति उपयुक्त है?” कोई भी विचारशील व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं होगा। तब फिर वही पीछे लौटने की बात याद आती है। वही शिक्षा हमारे काम आ सकती है जो हमारे शरीर मन और बौद्धिक संस्थान को ज्ञान और शक्ति से प्रखर बना सके और इस प्रकार के उच्च संस्कार, उच्च भावना जगा सके और जिसमें विद्यार्थी अपनी ही नहीं अपने समाज के उत्थान की बात सोच सके। वह गर्व से कह सके-’माता भूमि पुत्रोऽहं’ “मैं पृथिवी का पुत्र हूँ भूमि मेरी माता है।” यह केवल प्राचीन शिक्षा-पद्धति के संस्कारों से ही संभव है। समय आ गया है जब हमें उसे पुनः जगाना पड़ेगा। अपने गुरुकुलों को पुनः प्रतिष्ठित और प्रसारित करना होगा।


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