ज्ञान के सदृश और कुछ पवित्र नहीं

August 1967

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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥

-गीता 4।38

गीताकार का कथन है कि ज्ञान के समान इस संसार में पवित्र वस्तु और कोई नहीं। ज्ञान योग की उपासना करने वाले को समयानुसार योग सिद्धि स्वयं मिल जाती है।

ज्ञान की उपासना ईश्वर की श्रेष्ठतम उपासना है। अज्ञान को माया और बन्धन कहा गया है, उसी को नरक की उपमा दी गई है। ज्ञान की आराधना करके हम वह प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं जिससे इन बन्धनों से छुटकारा मिल सके। “ज्ञानान्मुक्ति” सूत्र में ज्ञानयोग को ही मुक्ति का सोपान बताया गया है।

ज्ञान के माध्यम से ही भौतिक सुख और आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। संसार में जो श्रेष्ठतायें विद्यमान हैं और लोगों ने जो प्रतिष्ठा प्राप्त की है वे किस कारण से हैं, तो ज्ञान की ही महत्ता प्रकट होती है। वैयक्तिक साधारण काम-काज से लेकर सामाजिक, प्रशासनिक एवं राष्ट्रीय जिम्मेदारियों जैसे स्थूल कार्य भी ज्ञान के बिना भली प्रकार सम्पन्न नहीं हो पाते। इसलिये इन कर्तव्यों का उत्तरदायित्व भी पढ़े-लिखों को ही सौंपा जाता है। जो जितना अधिक बुद्धिमान, विद्यावान् है उसे उतना ही उच्च पद दिया जाता है, यह अत्यन्त सरलतापूर्वक समझ लेने की बात है।

यही कारण है कि लोग अपने बच्चों को जन्म देने के बाद सर्वप्रथम जब उनके विकास और उन्नति के सवाल पर पहुँचते हैं तो यह मानते हैं कि सर्व प्रथम बच्चों का बौद्धिक विकास आवश्यक है। शिक्षा की व्यवस्था उस विचार और योजना के फलस्वरूप ही होती है। बालक को पहले पढ़ाया लिखाया जाता है तब आगे की किसी दूसरी बात पर विचार किया जाता है। ऐसा कहीं नहीं होता कि बच्चे की पहले शादी कर दी जाय, फिर उसे नौकरी से लगा दिया जाय और इस प्रकार जब 50 वर्ष की आयु बीत जाये तो उसे पढ़ने भेजा जाय। मनुष्य की प्रगति के लिये शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है। इससे भी ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता ही सिद्ध होती है।

गई-गुजरी स्थिति में जन्मे लोग भी ज्ञान-सम्पत्ति पाकर आगे सफलता से बढ़े हैं और उन्होंने साधन-सम्पन्न किन्तु ज्ञानरहित व्यक्तियों को पछाड़ कर रख दिया है।

इस दृष्टि से शिक्षा बड़ी आवश्यक है। वह मनुष्य को साँसारिक परिस्थितियों का ज्ञान कराती है। अच्छे-बुरे की पहचान की क्षमता-विवेक जागृत करती है। उत्तरदायित्व निभाने की कुशलता पैदा करती है। इसलिये पढ़ना हर व्यक्ति के लिये उपयोगी है। छोटे-छोटे बच्चे ही नहीं, जो अनपढ़ प्रौढ़ हैं उन्हें भी पढ़ना चाहिये। जो कम पढ़े हैं उन्हें अधिक पढ़ना चाहिये, जो अधिक पढ़े हैं उन्हें अधिक से भी अधिक ज्ञान की अभिलाषा करनी चाहिये। ज्ञान की कोई सीमा नहीं। ज्ञान की पूर्णता ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, लक्ष्य है। ज्ञान की तृप्ति हो जाने पर मनुष्य जीवन सार्थक हो जाता है। इसलिये ज्ञान-प्राप्ति के लिये निकाला गया समय, खर्चा गया धन, कभी बेकार नहीं जाता। सैंकड़ों गुने अधिक सुख-सुविधाओं के रूप में आराधक के पास पुनः-पुनः लौट-लौट आता है।

कुछ बालक जन्म से ही बहुत बुद्धिमान, सूझ-बूझ वाले और परिस्थितियों को शीघ्रता से हृदयंगम कर लेने वाले होते हैं। यह भी पूर्व जन्मों की बौद्धिक-प्रौढ़ता का ही परिणाम होता है। ज्ञान मनुष्य के संस्कारों में परिवर्तित हो कर जन्म-जन्मान्तरों तक साथ रहता है। इसलिये उसे प्राप्त करने में आयु और अवस्था का भी प्रश्न नहीं। ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति मृत्यु शय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिये।

ज्ञान का क्षेत्र दो भागों में विभक्त है-(1) शिक्षा, (2) विद्या। अक्षर अभ्यास और उसके सहारे विश्व की खुली परिस्थितियों का ज्ञान, इसे शिक्षा कहते हैं। इतिहास, भूगोल, गणित, भौतिकशास्त्र, जन्तु-शास्त्र, रसायनशास्त्र, स्वास्थ्य-विज्ञान, व्याकरण, भाषा, समाजशास्त्र, नागरिक-शास्त्र, अर्थशास्त्र यह सब शिक्षा के विषय हैं। इनकी उपयोगिता और आवश्यकता भी सर्व विदित है।

ज्ञान का महत्तर स्वरूप उसका विद्या रूप है। संसार के प्रत्येक प्राणी के साथ एक अहं-समस्या, आध्यात्मिक सवाल हर घड़ी चलता रहता है। “मैं क्या हूँ, कौन हूँ” “मेरा प्रादुर्भाव क्यों हुआ है?” “विश्व का आध्यात्मिक स्वरूप क्या है? योनियाँ क्या हैं? उनमें जीवात्मा का अवतरण कैसे और क्यों होता है?” यह प्रश्न ऐसे हैं जो भौतिक शिक्षा साधन और सम्पत्ति के होते हुए भी मनुष्य को आन्तरिक सुख-संतोष नहीं दे पाते। अपनी शाश्वत और सनातन सत्ता का बोध हुए बिना मनुष्य जिस आनन्द की प्राप्ति के लिये बार-बार शरीर धारण करता है, उसकी पूर्ति नहीं हो पाती। मनुष्य बार-बार जन्म लेता है, फिर भटकता है, फिर भूलता है और मृत्यु के मुख्य में चला जाता है-क्यों? ऐसा किस विधान से होता है इसे जाने बिना मुक्ति नहीं मिलती। क्लेशों का अनावरण नहीं होता। ज्ञान का अर्थ है-भावनात्मक स्तर को इस प्रकार उपयुक्त बनाना कि मनुष्य साँसारिक सफलताओं को भी प्राप्त करे और आध्यात्मिक, आन्तरिक शक्तियों की सुख और शान्ति भी उपलब्ध कर ले।

शिक्षा और विद्या, लोक वृत्त की जानकारी और अंतःलोक वृत्त की भी जानकारी इन दोनों का ही सम्मिलित स्वरूप ज्ञान है।

दोनों महत्वपूर्ण हैं, दोनों आवश्यक हैं। शिक्षा से ही वह योग्यता बढ़ती है जिससे मनुष्य सूक्ष्म से सूक्ष्म और विशद् से विशद् बातों को हृदयंगम कर लेता है। उसी से मनुष्य का बौद्धिक विकास होता है। बिना पढ़ा-लिखा आदमी जब छोटे-छोटे कर्तव्य भी सरलता से पूरे नहीं कर सकता तो आत्मा और परमात्मा जैसे विषय सम्पन्न करना बेचारे के वश में कहाँ होगा? उसी प्रकार बहुत पढ़ा-लिखा तो हो, किन्तु उसने आत्मिक शक्तियों को न जगाया हो, न समझा हो तो वह भी दुःख और कष्ट में ही पड़ा रहता है।

आत्म-विद्या के विकास के साथ-साथ प्रेम, स्नेह, सौजन्य, सौहार्द्र, सरलता, आत्मीयता, दया, करुणा, परोपकार, श्रद्धा, भक्ति, आत्मविश्वास, आत्मबल की अभिवृद्धि होती है। विचारपूर्वक देखा जाये तो जिन व्यक्तियों में यह आध्यात्मिक गुण होते हैं, वे पढ़े-लिखे न होने पर भी अपने आप में इतने सुखी, इतने संतुष्ट होते हैं मानों वे किसी इन्द्र के राज्य का सुखोपभोग कर रहे हों। इन गुणों से शून्य अन्तःकरण वाले बहुत पढ़े-लिखे होने पर भी कटुता, कलह, रोग, शोक, मद, मोह, माया, दम्भ, द्वेष, पाखण्ड के मायाजाल में पड़े कष्ट भुगता करते हैं।

जहाँ शिक्षा और विद्या दोनों का समावेश हो जाता है वहीं स्वर्ग उत्पन्न हो उठता है। शिक्षा से साँसारिक सफलतायें अवश्यम्भावी हैं और विद्याभ्यास से आन्तरिक गुणों का यथा-प्रेम, दया, करुणा आदि का विकास असंदिग्ध रूप से होता है। जहाँ यह दोनों बातें मिल जाती हैं, वहीं आनन्द के फौबारे छूटने लगते हैं, स्वर्ग बन जाता है।

इसलिये शिक्षाभ्यास के साथ-साथ विद्याभ्यास की आवश्यकता भी सर्वोपरि है। साधना, उपासना, आध्यात्मिक ज्ञान से ओत-प्रोत साहित्य के निरन्तर स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, व्रत, उपवास आदि की आवश्यकता शिक्षा से भी अधिक है। प्राचीन काल के गुरुकुलों में शिक्षा संबन्धी विषय गौण माने जाते थे, आत्म-विद्या के विषय अनिवार्य होते थे। मनुष्य के दार्शनिक स्वरूप को यथार्थ, शाश्वत और पूर्णानन्द की प्राप्ति का पाथेय माना जाता था। इसलिये उस पढ़ाई पर ज्यादा जोर दिया जाता था जो व्यक्ति के आत्म गुणों का परिवर्द्धन करती थी। उसकी आवश्यकता आज भी उतनी ही नहीं बल्कि वर्तमान विकृत परिस्थितियों में तो उससे भी अधिक है।

स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, सत्संग, तीर्थाटन, व्रत, उपवास, उपासना, साधना के ग्राह्य और सुधरे हुए स्वरूप को समझने और प्रयत्नपूर्वक उन्हें अपने आत्म-विकास में नियोजित करने की बुद्धि जिन लोगों में आ जाती है उन्हें अपने आपको सौभाग्यशाली समझना चाहिये। आत्म-जिज्ञासा आत्म-कल्याण का मुख्य द्वार है। जो उसे पा लेता है वह अपनी जीवन-यात्रा की मंजिल भी आसानी से प्राप्त कर लेता है। गीता अध्याय 1 के 10वें लोक में भगवान् कृष्ण ने भी कहा है-

तेषाँ सतत युक्तानाँ भजताँ प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोग तं येन मामुपयान्ति ते॥

अर्थात् निरन्तर श्रद्धा और प्रयत्नपूर्वक मुझ ईश्वर को भजने वाले लोगों को मैं बुद्धियोग की प्रेरणा देता हूँ। वे इसी के सहारे मुझे प्राप्त कर लेते हैं।

परमेश्वर की कृपा जिस पर होती है वह इस प्रकार अपनी बौद्धिक शक्तियों के विकास का प्रयत्न करता है। इसी से मनुष्य अपने भूले-भटके हुए लक्ष्यों को फिर से सुधार लेते हैं। परमात्मा को पा लेते हैं। साँसारिक पदार्थों को मिलना न मिलना उनके लिये कोई महत्व की बात नहीं रह जाती। यह तो उसे ऐसे ही मिल जाते हैं जैसे अन्न की कामना करने वाले किसान भूसा आदि ब्याज में ही पा लेते हैं।

आज शिक्षा की अभिवृद्धि तो हो रही है पर विद्या की उपेक्षा हो रही है। इसीलिये संसार में दुःख, शोक, सन्तापों की भी वृद्धि हो रही है। ज्ञान-यज्ञ की नई दिशा का विस्तार कर अब व्यक्तियों को विद्या-आत्मज्ञान की आवश्यकता भी अनुभव करनी होगी। उसके लिये प्रयत्न और पुरुषार्थ भी करना होगा। जब यह प्रयत्न चलने लगेंगे तो न केवल व्यक्ति अपने सनातन लक्ष्यों की प्राप्ति करेंगे वरन् लौकिक जीवन भी भव्य बनेगा।

इसी तथ्य को इस श्लोक में प्रगट करते हुए गीताकार ने बताया है-

‘निस्सन्देह इस संसार में ज्ञान के सदृश पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है। प्रयत्न में संलग्न व्यक्ति समयानुसार उसे सहज ही में पा लेता है।’


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