परोपकाराय मिदं शरीरम्

June 1965

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मनुष्य व्यक्तिगत रूप से जितना समाज को देता है। सामूहिक रूप से उससे कई गुना वह समाज से प्राप्त करता है। विचार करते हैं तो यों लगता है कि आज पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा, कृषि-विज्ञान की सुविधायें डडडड हो रही है वह सब पूर्व पुरुषों के परिश्रम और अध्यवसाय का परिणाम है। प्राप्त ज्ञान और साधनों को उन्होंने वितरित न किया होता तो आज की कल्याण-परम्परायें अतीत के गर्त में ही विलीन रही होती।

वर्तमान विकास, साधन और सुविधायें पूर्वजनों ने कृपापूर्वक दी हैं। हम उनके चिर ऋणी रहेंगे इसमें सन्देह नहीं। किन्तु कर्त्तव्य की इति यहीं समाप्त नहीं होती। हमें भी इस पुण्य परम्परा को जागृत रखता है तभी तो मानवता जीवित रह सकेगी। खेत से उगाये हुये अन्न को किसान बार-बार छितराता है फलस्वरूप अन्न का भण्डार खाली नहीं होता। परोपकार की अन्य निधि विलुप्त न हो इसलिये उसे बार-बार मनुष्यता रूपी खेतों में बिखेरते रहना है।

मानव जीवन की सार्थकता, अपने आप को घुला कर अपने अस्तित्व को मिटाकर परहित के लिये आत्म-बलिदान करने की भावना में है। गोस्वामी तुलसी दास परोपकार को मानव धर्म का रूप देते हुये लिखते है—

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

नहिं पर पीड़ा सम अधमाई॥

अर्थात्—दूसरों की भलाई से बढ़कर संसार में धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा अपराध इस धरती में नहीं है।

परोपकार मनुष्य का आध्यात्मिक सद्गुण है। इसी सद्भावना पर संसार का सृजन, व्यवस्था और उत्थान सन्निहित है। माता-पिता यह जानते हुए भी कि यह पुत्र हमें सुख देगा, ऐसी कोई सत्यता नहीं, फिर भी वे कितने सहज, स्नेह, प्रेम और दुलार से उसका पालन-पोषण करते हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण विकास पारस्परिक भावना में ही निहित है। मनुष्य की आध्यात्मिक भूख परोपकार से ही मिटती है। जब तक परहित की भावना मनुष्य के अन्तःकरण में जागृत नहीं होती, तब तक अनेकों कर्मकाण्ड पूजा-प्रक्रियायें करता हुआ भी वह शाँति, सुख और संतोष नहीं प्राप्त कर पाता।

किसी प्राणी को संकट से बचा लेने, समय पर सहायता देने, भूखे को भोजन करा देने, रोगी की सेवा सुश्रूषा करने से जो उस व्यक्ति को आँतरिक शाँति मिलती है उसी का प्रतिफल कर्त्ता के अन्तःकरण को प्रभावित करता है। इसी से आत्मा को असीम तृप्ति का अनुभव होता है।

परोपकार वह है जो निःस्वार्थ भाव से किया जाय। उसमें कर्त्तव्य भावना की विशालता अन्तर्हित हो। स्वार्थ की भावना और भविष्य में अपने लिये अनुकूल साधन प्राप्त की दृष्टि से जो सेवा की जाती है वह परोपकार नहीं प्रवंचना है।

सूर्य प्रतिदिन आकाश में चलता है और अपनी ऊष्मा धरती में बिखेरता है उससे यहाँ के लोगों को जीवन मिलता है। इसके बदले में उसने मनुष्य से कभी कुछ नहीं माँगा। चन्द्रमा, वायु, नदियाँ, वृक्ष सभी किसी न किसी रूप में संसार के हित और कल्याण में लगे हैं अपनी इस सेवा के बदले वे कभी भी कुछ नहीं माँगते। तिनके खाकर दूध देने वाली गाय की कर्त्तव्य भावना ही सराहनीय मानी जायगी। कुछ प्राप्त करने या अपने उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से किये गये उपकारों में वह शक्ति नहीं होती जो बिना किसी मूल्य पर किये गये सत्कर्मों में होती है।

प्राकृतिक अनुदानों के प्रति अपना दयाभाव प्रकट करने का यही तरीका है कि वैसा ही अनुसरण हम भी करें। प्राकृतिक सुविधायें देकर परमात्मा ने मनुष्य की बाह्य व्यवस्थाओं को पूर्ण किया है, आँतरिक व्यवस्थाएँ हमें स्वयं सहयोग, सहानुभूति और कर्त्तव्य पालन के आधार पर करनी हैं। व्यक्ति का विकास और सामाजिक उत्थान का मूल कारण कर्त्तव्यनिष्ठा है,यह उदारता समाज में जितनी अधिक फैलती है उतना ही समाज सुखी और समुन्नत बनता है। और जब भी इसके विपरीत स्वार्थ डडडड, पर पीड़ा की उच्छृंखल गतिविधियाँ फैलने लगती हैं, तभी इस धरती में क्लेश और कठिनाइयों का गहरा कोहरा छा जाता है।

मनुष्य का व्यक्तित्व और उसका वैभव परोपकार है।

डडडड का श्लोक है—

न पिवन्ति नद्यः स्वमेव नोदकं,

न फ लानि खादन्ति स्वयमेव वृक्ष।

धराधरो वर्षति नात्महेतवे,

परोपकारायाँ सताँ विभूतया॥

अर्थात्— “जिस तरह नदियाँ अपने लिये नहीं बहतीं, वृक्ष अपने फलों का उपभोग स्वतः नहीं करते, बादल अपने लिए नहीं बरसते उसी तरह सज्जन और विशाल हृदय मनुष्य सदैव परोपकार में लगे रहते हैं।” प्रसिद्ध संत नोओत्जेू’ के सम्बन्ध में दार्शनिक मैन्सियद ने कहा था की “यदि उनके शरीर को पीस डालने से संसार का हित होता तो वे सहर्ष अपने आपको पिसवा डालते”

यह बात तो मात्र मान्यता है। हमारे यहाँ तो वह व्यवहार में आ चुका है। दधीचि ने हँसते-हँसते अपना शरीर देवताओं की रक्षा के लिये कटवा दिया। शिवि, हरिश्चंद्र, कर्ण, मोरध्वज, दिलीप आदि महापुरुषों ने मानवता की सिद्धि के लिये जो साधनायें जगाईं उनका प्रकाश आज भी हमारी संस्कृति को प्रकाशमान बनाये है। इस पुण्य की परम्परा की भागीदारी हमें भी प्राप्त करना है ताकि हमारे देश की आध्यात्मिक आस्थायें, हमारा भविष्य ऊँचा, बहुत ऊँचा उठे। सभी महापुरुषों का यही उद्देश्य रहा है, अपना भी लक्ष्य ऐसा ही हो।

हम परोपकार को संत महात्माओं की बात मानते हैं वस्तुतः वह प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है। मनुष्य के चरित्र की परीक्षा इसी से होती है। जो मनुष्य सबके दुःखों में हाथ बढ़ाने की जितनी लगन रखता है वह उतना ही सभ्य, सुसंस्कृत तथा उच्च विचार वाला माना जाता है। परोपकार मनुष्य को उन्नत, स्वच्छ और निर्मल बना देता है। उसके चरित्र में सतोगुणी तत्व का समावेश बढ़ता जाता है और वह एक दिन आध्यात्मिकता के उच्च से उच्च आदर्शों का स्पर्श करने लगता है। यह भावना जितनी उच्च, अधिक विशाल होती जाती है उतनी ही अधिक परमात्मा और उसके विस्तार की अनुभूति बढ़ने लगती है। यह सुख अवर्णनीय है। धन्य हैं वे लोग जिनका जीवन परोपकार के हवन कुण्ड में समिधा बनकर जल जाता है।

सेवा, त्याग, प्रेम सहृदयता, कष्ट, सहिष्णुता, आदि परोपकार के अंग हैं। इन सम्पूर्ण गुणों का जहाँ सम्मिलन होता है वही परोपकार का प्रादुर्भाव होता है। एक दिन किसी को रंचक सहायता दे देने मात्र से कोई परोपकारी नहीं बन जाता। यह जीवन साधना है इसके लिये अपना शरीर, अपना साधन और अपनी सम्पदायें भोगनी पड़ती हैं। जो जितने अंशों में इन नियमों का पालन करता है उसका हृदय उतना ही खुला हुआ, साहसी और विशाल होता है।

हमें प्रेम का अभ्यास करना है। प्रेम की प्रशस्ति का ही दूसरा स्वरूप है परोपकार। प्रेम के विकास के साथ-साथ परोपकारी भावनायें पनपती हैं। प्रेम बीज है परोपकार वृक्ष। प्रेम की जड़ सींचने से परोपकार की पौध स्वतः लहलहाने लगती है।

प्राणिमात्र का हित, उपकार, मन से चिंतन करना तथा वाणी और शरीर से लोक-हित तथा परोपकार के कार्य यथाशक्ति करना, किसी का अहित या किसी को पीड़ा न पहुँचाना यही परोपकार का सदुपयोग है। यह भावना साँसारिक न होनी चाहिये। विश्व कल्याण की सजीवता ही परोपकार का प्राण है। कवि के शब्दों में परमात्मा का सान्निध्य सुख भी उसे ही मिलता है।

यह शरीर इसलिये मिला है कि इसके द्वारा संसार के दुःखी, पीड़ित और अभावग्रस्त मनुष्यों का कुछ कल्याण हो। यह योग्यतायें फिर मिलेंगी या नहीं यह तो संदिग्ध ही है पर आज की सामर्थ्यों का यथा शक्ति उपयोग करलें इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है। अतः हमें परहित की साधना में लगने में विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह शरीर परोपकार के लिये मिला है और परोपकार में ही इसकी इति होनी चाहिये।


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