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June 1965

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यावट् भ्रियेत जठरं तावत्स्वत्वं हि देहिनाम्।

अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति॥

अपने पेट के भरने के लिए (—अपनी प्राण-रक्षा के लिए) जितने पदार्थ की आवश्यकता है प्राणियों का स्वत्व उतने में ही है। उसकी अपेक्षा जो अधिक में आसक्ति करता है वह चोर है और दण्डनीय है।

न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वेऽर्थाः सान्त्वया यथा।

सब काम जैसे शान्ति से सिद्ध होते हैं, वैसे अशाँति से नहीं।

यह युग हमारे विकास का युग है। राजनैतिक स्वाधीनता मिले हुये हमें काफी दिन हो गये पर परम्परागत कुरीतियाँ अभी ज्यों की त्यों हैं। इन्हें दूर करने से ही अपनी सर्वांगीण उन्नति का द्वार खुल सकता है। यह उन शिक्षित नारियों के लिये आवाहन है कि वे भारतवर्ष के आर्थिक तथा नैतिक स्तर के विकास में अपना सहयोग दें। इस पुण्य कार्य के लिये सुवर्ण या रजत के आभूषणों की आवश्यकता नहीं, वरन् उन्हें गुणों से अलंकृत होना होगा। गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है। शीलवान् होना किसी भी अलंकार से बढ़कर है। अब उन्हें ऐसे ही गहने ग्रहण करने चाहिये।


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