गुरु पूर्णिमा-’युग निर्माण योजना’ का अवतरण पर्व

June 1965

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‘युग-निर्माण योजना’ की जन्म तिथि गुरु पूर्णिमा है। इसी दिन इस युग के इस महान अभियान का शुभारम्भ उस परम प्रेरक दिव्य शक्ति के द्वारा किया गया था। बसन्त पंचमी के दिन अखण्ड-ज्योति प्रारम्भ हुई और गुरु पूर्णिमा के दिन ‘युग-निर्माण योजना’। अपने परिवार के लिए ये दो कौटुम्बिक पर्व हैं। यों इनका व्यापक महत्व है। भारतीय संस्कृति की सुविस्तृत प्रक्रिया इन दो के ऊपर निर्भर है। ज्ञान और कर्म के यह दो पुनीत पर्व हैं। माता सरस्वती का जन्म दिन हमारा ज्ञान पर्व है और उस ज्ञान को कर्म रूप में परिणित करने की प्रेरणा देने वाले परम गुरु भगवान व्यास का जन्म दिन-गुरु पूर्णिमा-कर्म पर्व है। ज्ञान और कर्म का मानव जीवन में असाधारण महत्व है। प्रतीक रूप से वही महत्व इन दो पर्वों का भी है। यों हमारे सभी पर्व एक से एक बढ़कर हैं पर जहाँ तक अपने परिवार की गतिविधियों का संबंध है इन दो को हम विशेष महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि अपनी गतिविधियों की प्रेरणा इन दो से ही हम विशेष रूप से प्राप्त किया करते हैं।

सरकारी विकास-योजनाओं का अपना महत्व है। ‘युग-निर्माण योजना’ का संचालन भले ही छोटे समझे जाने वाले और अर्थ साधनों से विहीन लोगों द्वारा किया जा रहा हो, पर उसका भी अपना महत्व है। भौतिक समृद्धि की अपेक्षा मानवीय उत्कृष्टता कहीं अधिक मूल्यवान है। उसकी अभिवृद्धि अगणित समृद्धियों को जन्म देती है। इसलिए जब कभी कार्य पद्धतियों का विश्लेषण एवं मूल्याँकन किया जायगा, युग-निर्माण योजना को अपने समय की एक अनुपम घटना ठहराया जायगा। इतनी विशालकाय संभावनाओं से परिपूर्ण प्रक्रिया को आरम्भ कर सकने के साहस का श्रेय अखण्ड-ज्योति परिवार को मिलता है। उसका हर सदस्य गर्वोन्नत मस्तक से यह कह सकेगा कि अपने युग की चुनौती और जिम्मेदारी को उसने समझा और स्वीकार किया। राष्ट्र की पुकार का समुचित प्रत्युत्तर देने का आत्म संतोष उसे मिलता ही है। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए जो अनुपम प्रयत्न किया गया है, उस महान यज्ञ का होता—अखण्ड-ज्योति परिवार का हर सदस्य—अपनी जीवन साधना को सार्थक समझे तो यह उचित ही होगा। भले ही छोटे दिखाई पड़ें पर हमारे प्रयत्न निस्संदेह महान हैं।

पिछले हजार वर्ष तक राष्ट्र को अज्ञानांधकार में भटकना पड़ा है। उन दिनों हमने बहुत कुछ खोया है। अनेकों दोष दुर्गुण उन्हीं दिनों हमारे पीछे लग गये हैं। अब समय आ गया है कि उनका प्रतिकार और परिष्कार करें। दुर्बलताओं को भगावें और समर्थ प्रबुद्ध व्यक्तियों जैसी गतिविधियाँ अपनावें। भारतीय राष्ट्र को यही गतिविधियाँ अपनानी पड़ेंगी। इसके बिना उसे न तो वर्तमान विपन्नताओं से त्राण मिलेगा और न उज्ज्वल भविष्य की ज्योतिर्मय आभा ही दृष्टिगोचर होगी। जीवन-मरण की समस्या सामने हैं। यदि हम पुनरुत्थान के लिए, नव-निर्माण के लिए प्रयत्न नहीं करते तो प्रगति के पथ पर बढ़ रहे संसार की घुड़दौड़ में इतने पिछड़ जायेंगे कि दूसरों के समकक्ष पहुँच सकना कभी भी संभव न रहेगा।

जो जितना प्रबुद्ध है उसकी उतनी ही अधिक जिम्मेदारी है। ईश्वर, आत्मा और समाज के सामने उनके उत्तरदायित्व बहुत कुछ बढ़े-चढ़े होते हैं। मूढ़ता और पशुता की स्थिति में पड़े हुए मनुष्यों की न कोई भर्त्सना है और न महिमा। वे जीते भर हैं। खाने और कमाने भर तक उनकी गतिविधियाँ सीमित रहती हैं। ऐसे लोग कुछ बड़ी बात सोच नहीं पाते, इसलिए कुछ बड़ा काम कर सकना भी उनके लिए संभव नहीं होता। संसार उनकी इस विवशता को जानता है इसलिए उन्हें कुछ श्रेय, दोष भी नहीं देता। पर जिन्हें भगवान ने विचारणा दी है, उनकी स्थिति भिन्न है। प्रबुद्ध लोग यदि अपने समय की समस्याओं की उपेक्षा करने लगें तो उनका अपराध अक्षम्य माना जायगा। फौजी अधिकारियों की छोटी-सी भूल राष्ट्रीय स्वाधीनता को खतरे में डाल सकती है। इसलिए उनसे अधिक सतर्कता एवं जिम्मेदारी की आशा की जाती है। यदि वह थोड़ा भी प्रमाद करता है तो उसे सहन नहीं किया जा सकता। सरकारी अन्य विभागों के कर्मचारी ढील-पोल बरतने पर चेतावनी या नगण्य-सा अर्थ दंड पाकर छुटकारा पा जाते हैं पर फौजी अफसर का तो ‘कोर्ट मार्शल’ ही होता है। उसे अपनी छोटी-सी लापरवाही के लिए मृत्यु दंड भुगतना पड़ता है।

सौभाग्य या दुर्भाग्य से ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्यों को ऐसी ही उत्तरदायित्वपूर्ण परिस्थिति प्राप्त हुई हैं। भगवान ने उन्हें प्रबुद्धता की चेतना दी है। साथ ही कुछ जिम्मेदारी भी सौंपी है। उनके लिए लापरवाही बरतने का अवसर नहीं। बेशक सामाजिक नागरिकों की तरह हम लोगों को भी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। यह अर्थ उपार्जन आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। पर इसका यह अर्थ किसी प्रकार भी नहीं होता कि नव-निर्माण के कार्यों में भाग लेने के लिए उसे तनिक भी अवकाश नहीं मिलता। इस बहानेबाजी को कोई स्वीकार नहीं कर सकता। संसार के प्रायः सभी महापुरुष गृहस्थ थे और उन्हें पारिवारिक व्यवस्था जुटाने का भी ध्यान रखना पड़ता था। पर उनमें से किसी ने यह बहाना नहीं बनाया कि राष्ट्रीय कर्तव्यों की पूर्ति के लिए हमारे पास तनिक भी अवकाश नहीं। इस प्रकार की झूठी धोखेबाजी से केवल अपनी अन्तरात्मा को झुठलाया जा सकता है और किसी को नहीं। जिसकी आत्मा में थोड़ी भी समाज निष्ठा एवं कर्तव्य-निष्ठा होगी वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में रहते हुए भी विश्व मानव की किसी न किसी प्रकार सेवा कर ही सकेगा। जहाँ इच्छा हो वहाँ रास्ता निकलता ही है। जिस ओर सच्ची आन्तरिक श्रद्धा होगी उस ओर चलने का भी कुछ न कुछ प्रबन्ध बन जाना निश्चित है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य उस कसौटी पर खोटे नहीं खरे उतरते रहे हैं। हम सभी गृहस्थ हैं और व्यस्तता के बीच भी अवकाश निकालकर इतना कुछ करते रहे हैं कि सारा राष्ट्र आश्चर्यचकित है। यदि फुरसत वाले साधु सन्त हम लोग होते तो शायद इतना भी न कर पाते जितना अब करते हैं। तब संभवतः संसार को माया मिथ्या बताकर आलस्य और अवसाद में पड़े रहने को ही मन करता। प्रश्न परिस्थितियों का नहीं भावना का है। युग के उत्तरदायित्वों के समझने की-अनुभव करने की— चेतना जिनके अन्तःकरण में जागृत हो चुकी है, उन्हें न समय का अभाव रहता है, न कठिनाइयों का रोना, रोना पड़ता है। आकाँक्षा अपना रास्ता बनाती है। यह तथ्य कितना सत्य है, इसका अनुभव हम सब इन दिनों भली प्रकार करते रहते हैं। वर्तमान काल की आर्थिक तंगी तथा पारिवारिक जीवन की उलझनों से जूझते हुए भी नव-निर्माण के लिए कितना अधिक कर लेते हैं। इस प्रयोग ने उन लोगों का मुँह बन्द ही कर दिया है जो सामयिक उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठावान न होने के कारण उत्पन्न हुई अकर्मण्यता को फुरसत न मिलने, अमुक कठिनाई रहने जैसे बहानों की चादर उठाने की उपहासास्पद चेष्टा करते रहते हैं।

राजनैतिक स्वाधीनता के लिए आत्माहुति देने वाले पिछली पीढ़ी के शहीद अपनी जलाई हुई मशाल हमारे हाथों में थमा कर गये हैं। जिनने अपने प्राण, परिवार, शरीर, धन आदि का मोह छोड़कर भारत माता को पराधीनता पाश से मुक्त करने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया, उनकी आत्माएं भारतीय राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य की आशा लेकर इस संसार से विदा हुई हैं। उन्हें विश्वास था कि अगली पीढ़ी हमारे छोड़े हुए काम को पूरा करेगी। नैतिक क्रान्ति ,बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति की अभी तीन मंजिलें पार करनी हैं। राजनैतिक क्रान्ति की अभी एक ही मंजिल तो पार हुई है। तीन चौथाई काम करना बाकी पड़ा है। यदि वैयक्तिक स्वार्थपरता तक सीमित रह कर हम उन सार्वजनिक उत्तरदायित्वों को उठाने से इनकार करेंगे, बहाने बनायेंगे तो निश्चय ही यह उन स्वर्गीय शहीदों के प्रति विश्वासघात होगा। इतिहास हमारे इस ओछेपन को सहन न करेंगे। भावी पीढ़ियाँ इस अकर्मण्यता को घृणा भरी दृष्टि से देखती रहेंगी।

मानव जीवन का गौरव समझने वाला कोई भावनाशील व्यक्ति अपने को इस घृणित परिस्थिति में रखना पसंद न करेगा—अखण्ड-ज्योति परिवार का कोई सदस्य तो निश्चित रूप में नहीं । हम लोग जिस भी परिस्थिति में है देश, धर्म, समाज और संस्कृति के पुनरुत्थान अभियान में भाग लेते हुए बहुत कुछ करते रहे हैं, आगे बढ़ती हुई जिम्मेदारियों के अनुरूप और भी अधिक करेंगे। त्रिविध क्रान्तियों को सम्पन्न करने की तीन अग्नि परीक्षाओं में होकर जब गुजरना ही ठहरा तो झंझट किस बात का, जो करना हो उसे करेंगे ही।

आगामी गुरुपूर्णिमा (13 जुलाई 1965) हमसे कुछ अधिक खरी और अधिक स्पष्ट बात करने आ रही है। अब तक लड़खड़ाते हुए चलने की बात निभती रही, पर अब तो सीना तान कर ही चलना पड़ेगा। अब ‘यदा कदा’ के स्थान पर निश्चितता और नियमित की नीति बदलनी पड़ेगी। जिस प्रकार शरीर को नित्य ही नहाते, खिलाते, सुलाते हैं, जिस प्रकार परिवार की दैनिक जिम्मेदारियों को नियमित रूप से वहन करते हैं उसी प्रकार हमें नव निर्माण के उत्तरदायित्व भी एक प्रकार से दैनिक नित्य कर्मों में सम्मिलित करने पड़ेंगे और जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता बनाना पड़ेगा। अपने दृष्टिकोण में जब तक यह परिवर्तन न हो तब तक युग-परिवर्तन अभिमान के एक उत्तरदायी सदस्य के ऊपर आने वाली जिम्मेदारियों को हम समुचित रूप से पूरा कर ही न सकेंगे।

गुरुपूर्णिमा पर्व अखण्ड-ज्योति का हर सदस्य सदा से मनाता आया है। सामूहिक जप, हवन, कीर्तन, प्रवचन, गुरु पूजन, सत्संकल्प पाठ, दीप दान आदि औपचारिक कर्म काण्ड प्रायः सभी शाखाओं में आयोजित किये जाते हैं। जहाँ शाखाएं नहीं हैं वहाँ वह कार्यक्रम वैयक्तिक रूप से किया जाता है। इस पर्व पर श्रद्धाञ्जलि के रूप में गुरुदक्षिणा देने की भी प्रथा है। मातृऋण, पितृ ऋण की तरह गुरु ऋण भी रहता है और उसे अपने धर्म एवं अपनी संस्कृति के प्रति आस्था रखने वाले किसी न किसी रूप में चुकाकर अपने को आँशिक रूप से उऋण बनाने का प्रयत्न किया करते हैं। स्वर्गीय पितरों के वार्षिक श्राद्ध की तरह गुरुदक्षिणा भी गुरु पूर्णिमा के अवसर पर देनी ही पड़ती है। नहीं तो एक धार्मिक ऋण हमारे ऊपर चढ़ा ही रह जाता है।

गत वर्षों में अपनी-अपनी श्रद्धा और स्थिति के अनुरूप अखण्ड-ज्योति के सदस्य जिस प्रकार भी इस पुनीत पर्व पर जो भी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते रहे हों, वह बात अलग है। पर इस वर्ष तो हम सभी को एक ही प्रकार अपनाना है। वह है नव-निर्माण के लिए ‘यदा कदा’ कुछ कर देने की ढील-पोल छोड़कर निश्चित और नियमित रूप से कुछ न कुछ करते रहने का व्रत लेना। शरीर में कई अंग होते हैं उन सबको रक्त देना पड़ता है, परिवार में कई सदस्य होते हैं उन सब का भरण पोषण करना होता है, दैनिक क्रम में अनेकों समस्याएं रहती हैं, उन सब को सुलझाना पड़ता है। इन्हीं दैनिक आवश्यकताओं में एक नव निर्माण के राष्ट्रीय कर्तव्यों की आवश्यकता को भी जोड़ लेना चाहिये। उसे दैनिक जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता का स्थान देना चाहिये। यदि इतना किया जा सका तो यह ठोस गुरु पूर्णिमा होगी। यह व्रत लिया जा सका तो गुरु ऋण, राष्ट्रीय ऋण, समाज ऋण, धर्म ऋण सभी से उऋण होने का अवसर मिलेगा।

हमारी माँग यह है कि अखण्ड-ज्योति परिवार का हर सदस्य “एक घंटा समय तथा एक आना नित्य” नव निर्माण योजना के धर्म कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दान किया करें। दान, भारतीय धर्म का अंग है। दान से विमुख कृपण की सद्गति नहीं होती। कुपात्रों को विडम्बनाओं को दान तो हम बहुत दिन से देते आ रहे हैं पर अब आदर्श एवं कर्त्तव्य के लिये अपनी परमार्थ बुद्धि को प्रयुक्त करना पड़ेगा। देखा-देखी के निरर्थक आडम्बरों में हम न जाने कितना धन और समय लगाते रहते हैं, पर तात्विक सत् प्रयोजनों के लिए कुछ कर सकना विवेकवानों के लिये ही संभव होता है। नामवरी और स्वर्ग-सिद्धि के लिये तो लोभी दुनिया न जाने क्या-क्या लुटाती रहती है पर जिससे मानवता का मुख उज्ज्वल हो सके ऐसे तात्विक परमार्थ को अपना सकना केवल विवेकशील, जागृत आस्थाओं का ही काम है। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को इस श्रेणी में गिना जा सकता है इसलिये इन से इस प्रकार की याचना एवं आशा करना भी हमारे लिये उचित ही है।

एक घंटा समय किस कार्य में लगाया जाय? इसका उत्तर यही है- ‘जन जागृति में’-विचार क्रान्ति का अलख जगाने में। बौद्धिक कुण्ठा ही राष्ट्रीय अवसाद का एकमात्र कारण है। भावनाएं जग पड़े तो सब ओर जागृति ही जागृति होगी। सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश दृष्टिगोचर होगा। अन्तःकरण न जगे तो बाहरी हलचलें कुछ ही दिन चमक कर बुझ जाती हैं। जो भीतर से प्रकाशवान है वह आँधी तूफान में भी ज्योतिर्मय बना रहता है, इसलिये हमें दीपक से दीपक जलाने की धर्म परम्परा प्रचलित करने के लिये अपने समय दान का सदुपयोग करना चाहिये। अपने मित्रों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों, परिचित-अपरिचितों के नामों में से छाँटकर एक लिस्ट ऐसे लोगों की बनानी चाहिये जिनमें विचारशीलता एवं सद्भावना के बीजाँकुर पहले से ही किसी अंश में मौजूद हैं। उन लोगों से संपर्क बनाकर उन तक नव निर्माण की प्रौढ़ विचारधारा पहुँचाने का प्रयत्न करना चाहिये। इस अभिनव ज्ञान दान द्वारा हम उन स्वजनों की सच्ची सेवा करते हैं। भाव जागृति द्वारा किसी व्यक्ति में उत्कृष्टता उत्पन्न कर देना ऐसा परोपकार है जिससे बढ़कर और कुछ अनुदान दिया ही नहीं जा सकता। राष्ट्र की तीन आवश्यकताएं नैतिक, क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात यहीं से होता है। भाव जागृति के बिना मानव जाति की कुण्ठाओं और विकृतियों को और किसी प्रकार दूर नहीं किया जा सकता।

लिस्ट में अंकित व्यक्ति प्रथम बार में भी कम से कम दस तो होने ही चाहिये। उनके पास जाने एवं संपर्क बनाने की पहल अपने को ही करनी चाहिये। मीटिंग में जिन्हें बुलाया जाता है, उन आने वालों का अपने ऊपर अहसान होता है और जिनके घर हम स्वयं जाते हैं वे हमारी सद्भावना से प्रभावित होते हैं। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को हमें समझ ही लेना चाहिये। इसलिये जिन्हें प्रेरणा देनी हो, उनके पास स्वयं जाने का क्रम बनाना ही होगा। मीटिंग में इकट्ठे करने से यह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। धर्म फेरी का पुण्य हमें ही लेना चाहिये। जन-जागरण के लिए लोगों से संपर्क बनाने एवं उनके घरों पर जाने का क्रम हमें ही बनाना चाहिये।

जिनके घर जाया जाय उनसे कुशल क्षेम पूछने के साधारण शिष्टाचार के उपरान्त अभीष्ट उद्देश्य के लिये आवश्यक प्रेरणा देनी आरंभ कर देनी चाहिये। जो पढ़े-लिखे हैं उन्हें अपनी अखण्ड-ज्योति व युग निर्माण योजना के पिछले अंक पढ़ने को देना चाहिये। जो पढ़े नहीं हैं उन्हें प्रेरणाप्रद लेख, समाचार एवं प्रसंग सुनाने चाहिये। अवसर हो तो उन विषयों पर चर्चा भी आरंभ करनी चाहिये। पुरानी अखण्ड-ज्योति की प्रतियाँ युग निर्माण योजना के अंक सभी के पास होंगे, उनके ऊपर अच्छे मोटे कवर चढ़ा चिपका लेने चाहिये ताकि अनेक लोगों में पढ़े जाने पर वे खराब न हों। आदर्शवादी विचार आमतौर से रूखे और नीरस माने जाते हैं। उन्हें पढ़ना, सुनना बहुत कम लोग पसंद करते हैं। यह काम अपना है कि विषय की महानता एवं गरिमा को आकर्षक तथा प्रभावशाली ढंग से समझा कर लोगों में यह अभिरुचि उत्पन्न करें। व्यापक दृष्टिकोण को समझने और विचारने की आकांक्षा जब जागृत हो जाय तब समझना चाहिये कि यह व्यक्ति राष्ट्र के लिये कुछ उपयोगी सिद्ध हो सकने की स्थिति में पहुँचा। इतनी सफलता मिल जाने पर आगे की प्रगति बहुत सरल हो जाती है। जिसके मनोभाव सोये पड़े हैं उसमें विचारशीलता की अभिरुचि जागृत कर देना हमारे लिये भारी गौरव, गर्व एवं संतोष की बात होगी।

त्रिविध क्रान्ति की आवश्यकता पूर्ण कर सकने लायक प्रौढ़ विचारधारा से सम्पन्न एक ट्रैक्ट माला इन्हीं दिनों हमने लिखनी और छापनी आरंभ की है। मोटे ग्लेज कागज के 24 पृष्ठ, मोनो पतले नये टाइप में छपाई, रंगीन कार्ड-बोर्ड के मोटे कवर, तार की पूरी खुलने वाली सिलाई आदि विशेषताओं के कारण यह ट्रैक्ट देखने में बड़े सुन्दर एवं आकर्षक बन पड़े हैं। देखते ही पढ़ने को मन होता है। फिर उनमें भीतर लिखी सामग्री के बारे में तो कहना ही क्या है। अपनी अन्तरात्मा की सारी आग उड़ेल कर इन पत्रों में भर रहे हैं। आशा यह की जानी चाहिये कि इन्हें पढ़ेगा, तिलमिलाये बिना न रहेगा। युग परिवर्तन के लिए जिस प्रेरणा, स्फूर्ति, तर्क एवं तथ्यों की आवश्यकता है, यथासंभव वह सब कुछ इनमें भरा जा रहा है। यह अंक पाठकों के हाथों में पहुँचने तक 10 ऐसे ट्रैक्ट छप चुके होंगे। आगे हर महीने 5 नियमित रूप से छपते रहेंगे। अखण्ड-ज्योति में एक विषय पर थोड़ा-थोड़ा करके कई अंकों में लिखा जाता रहता है, पर इन ट्रैक्टों में एक बात ही एक ट्रैक्ट में पूरी तरह लिखे जाने से पाठक को यह पूरी तरह समझ लेना संभव हो जाता है। अतएव इन ट्रैक्टों की अनिवार्य आवश्यकता अनुभव करके उनका प्रकाशन आरम्भ किया गया है।

ट्रैक्ट भारी होने के कारण इन पर पोस्टेज पाँच नया पैसा लग जाता है। इसलिए पोस्टेज समेत उनका मूल्य बीस नये पैसे रखना पड़ा है। मथुरा आकर ले जाने से पोस्टेज बच जाता है और यह ट्रैक्ट पन्द्रह नये पैसे में मिल सकते हैं। बड़ी संख्या में कई सदस्य मिल कर दो-चार सौ इकट्ठे रेलवे पार्सल से मँगालें तो भी डाक खर्च में किफायत हो सकती है। यह विशेष सुविधा की बात विशेष व्यवस्था की बात हुई। साधारणतः पोस्टेज समेत उनका मूल्य प्रायः बीस नया पैसा होने से, हर महीने पाँच ट्रैक्ट छपने से उनका मूल्य एक रुपया होगा। उन्हें हम सभी मंगावें और अपनी संपर्क लिस्ट के पाँच व्यक्तियों को बारी-बारी पढ़ाते रहें तो कुछ समय में उनकी विचारधारा में भारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होगा और बदले हुए विचार वाले व्यक्ति के कार्य भी बदलेंगे ही। युग परिवर्तन का आरम्भ इसी छोटी प्रक्रिया से आरम्भ होता है। चिंगारी छोटी ही क्यों न हो समयानुसार प्रबल होकर वही ‘दावानल’ का रूप धारण करती है। हमारा यह छोटा-सा विचार परिवर्तन प्रयास अगले दिनों मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य की भूमिका प्रस्तुत करने वाला- युग परिवर्तन बन कर सामने होगा।

गुरु पूर्णिमा पर्व पर (जो मंगलवार 13 जुलाई सन् 1965 को पड़ेगा) गुरु दक्षिणा में देने के लिए इस वर्ष हमें एक घंटा समय और एक आना प्रतिदिन दान करने का व्रत लेना चाहिए। एक आना (छह नया पैसा) प्रतिदिन देने से एक महीने में 180 नया पैसा होता है। वर्ष भर में लगभग बाईस रुपया। 4) की अखण्ड-ज्योति 3) की युग-निर्माण योजना एवं 12) के 60 ट्रैक्ट इस प्रकार 22) हुआ। यह खर्च भी हमें नव-निर्माण के लिए करना ही चाहिए। यह पैसे बाहर किसी को देने नहीं हैं। वरन् इन्हें अत्यन्त सस्ते लागत से भी कम मूल्य में मिलने वाले सत्साहित्य के रूप में परिणित कर लेना है। यह अमानत अपने ही पास जमा रहती है। भण्डार बढ़ता रहेगा और उसका लाभ अब से लेकर आगामी पचास सौ वर्ष तक अनेक लोग उठाते रहेंगे। विवेक सम्पन्न दान का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। छोटे बच्चे भी आमतौर से स्कूल जाते समय एक आना जेब खर्च ले जाते हैं। समझना चाहिए कि युग-निर्माण अभियान भी हमारा एक बच्चा है। चाहे तो ऐसा भी मान सकते हैं कि आचार्य जी हमारे एक बच्चे हैं और उन्हें एक आना प्रतिदिन जेब खर्च के लिए दिया जाता है। मन को समझाने के हजार प्रकार हो सकते हैं। भावना यदि विद्यमान हो तो इतना खर्च कर सकना गरीब से गरीब के लिए भी भारी नहीं पड़ता। एक आने का अनाज तो हर घर में चूहे, कीड़े भी खा जाते हैं। इतना तो सभी को सहन करना पड़ता है। भावना जाग पड़े तो इतना छोटा खर्च भी क्या किसी को भारी पड़ेगा।

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रबुद्ध सदस्यों को इस गुरु पूर्णिमा से यह व्रत लेना चाहिये। एक घण्टा समय, एक आना नकद, यह त्याग कुछ इतना बड़ा नहीं है, जिसे लक्ष्य की महानता को देखते हुए, कर सकना हमारे लिए कठिन होना चाहिये। नियमितता में बड़ी शक्ति होती है। महीने में 30 घण्टे यदि जन संपर्क के लिए सुरक्षित रख लिये जायें और प्रतिदिन या साप्ताहिक अवकाश के दिन उन्हें ठीक तरह प्रचार कार्य में लगाया जाय तो इसका चमत्कारी परिणाम कितना महान होता है इसे कोई भी प्रत्यक्ष देख सकता है। दान अनेक प्रकार करने पड़ते हैं पर यह प्रेरक साहित्य संग्रह करने के लिए किया गया साहस विश्व मानव का भाग्य बदलने के लिए कितना उपयोगी सिद्ध होता है इसे कुछ ही दिनों में मूर्तिमान देखा जा सकेगा।

आगे हमें बहुत कुछ करना है। अनैतिकता, मूढ़ता, अन्ध परम्परा, अस्वस्थता, अशिक्षा, दरिद्रता, अकर्मण्यता आदि अगणित विकृतियों से डटकर लोहा लेना है। हमारा देश किसी समय सर्वश्रेष्ठ मानवों का निवास स्थान, समस्त संसार का मार्ग दर्शक, देवलोक के लिये भी स्पर्धा का विषय माना जाता था। पर इन्हीं कुरीतियों, हानिकारक अन्ध परम्पराओं के कारण आज वह निकृष्ट, दीन−हीन स्थिति को प्राप्त हो गया है। यदि हमको इस दुरावस्था से बाहर निकल फिर दुनिया के प्रगतिशील देशों की श्रेणी में अपनी गणना करानी है तो हमको अवश्य ही इन हीन प्रवृत्तियों से छुटकारा पाना चाहिये। उसके लिए अगले दिनों व्यापक योजनाएं बनाई जानी हैं और उन्हें कार्य रूप में परिणित किया जाना है। पर इसके लिए आवश्यक जन-शक्ति तो अपने पास होनी चाहिए। इस आवश्यकता की पूर्ति हमारी यह प्रथम प्रक्रिया ही पूर्ण करेगी। एक घण्टा समय, एक आना नकद की माँग को पूरा करने के लिए यदि हम साहस कर सकें तो इस अवसर पर बढ़ा हुआ शौर्य आगे की कठिन मंजिलों को भी पार कर सकने में समर्थ होगा। पर यदि इतना भी न बन पड़ा तो हमारी वाक्शूरता ऊसर में डाले गये बीज की तरह ही नपुंसक सिद्ध होगी।

अब समय कम ही रह गया है। इसलिए आज से ही विचारना आरम्भ कीजिए कि इस पुण्य पर्व के उपलक्ष में उपरोक्त प्रथम आवश्यकता की पूर्ति के लिये ‘एक घण्टा एक आना’ की माँग पूरी करेंगे क्या? यदि कर सके तो उसकी सूचना गुरुपूर्णिमा को श्रद्धाञ्जलि के रूप में समय से पूर्व ही भेज दें ताकि उस दिन उन्हें छाती से लगाकर अपार आनन्द प्राप्त किया जा सके।

आगामी गुरु पूर्णिमा हमारी परीक्षा लेने आ रही है। क्या करना है, क्या करेंगे, इसका निर्णय करने के लिये अभी से सोच विचार आरम्भ कर देना चाहिये।

धर्म प्रचारक शिक्षार्थियों को छात्रवृत्ति

इन दिनों गायत्री तपोभूमि में धर्म प्रचारकों का शिविर चल रहा है। नया बना हुआ गीता प्रशिक्षण भवन शिक्षार्थियों से ठसाठस भरा रहता है। एक महीने में सामान्यतः वह शिक्षा देने का प्रयत्न किया जा रहा है कि यहाँ से निकलने के बाद शिक्षार्थी राष्ट्रीय नव-जागरण का उद्देश्य पूर्ण करने वाली गीता-कथा तथा अन्य धर्मानुष्ठानों के माध्यम से नव-निर्माण की भावनाएं जन-जन में जागृत कर सकें।

एक महीने में बताया सिखाया तो बहुत कुछ जायगा, पर उस प्रशिक्षण का अभ्यास अपने-अपने घर जाकर ही करना होगा। जो लोग प्रस्तुत विषयों का—अभ्यास भी करना चाहें उन्हें इसके लिए कम से कम छह महीने यहाँ ठहरना चाहिए। इतने अधिक विषयों का—जिनमें संगीत भी सम्मिलित है—अभ्यास करने के लिए उसमें निष्णात होने के लिए इतना समय तो चाहिए। धर्म प्रचारक बनने का अभ्यास इतने से कम समय में पूरा नहीं हो सकता।

जिन्हें धर्म प्रचार की लगन है पर आर्थिक कठिनाई के कारण इतने दिन यहाँ रह नहीं सकते। उनके लिए 15) मासिक छात्रवृत्ति की व्यवस्था कर दी जायगी। अपने हाथ से बनाने पर इतने पैसे में गरीबों जैसा भोजन बन सकता है। इस सुविधा से जिन्हें लाभ उठाना हो, अपना आवेदन भेजें और स्वीकृति प्राप्त करने के उपरान्त मथुरा चले आवें।

पाक्षिक पत्रिका का वर्ष पूरा हो गया

गत वर्ष ‘युग-निर्माण योजना’ पाक्षिक का निकलना 7 जुलाई से आरम्भ हुआ था। अब 22 जून के अंक के साथ उसका एक वर्ष पूरा हो जाता है। उसके अधिकाँश ग्राहक प्रथम अंक से ही बने थे। उनका चंदा समाप्त होता है। उन्हें अगले वर्ष के लिए 6) मनीआर्डर से भेज देने चाहिये।

‘युग-निर्माण योजना’ अखण्ड-ज्योति परिवार का एक शानदार एवं ऐतिहासिक कार्य है। उसका मार्ग-दर्शन, एवं प्रचार ठीक तरह होता रहे इसके लिए यह पाक्षिक एक अनिवार्य माध्यम है। इसे भी अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक पाठक को पढ़ना चाहिए। जहाँ यह अभी तक न पहुँचती हो वहाँ इस वर्ष उसे अवश्य ही मँगाना आरम्भ कर दिया जाना चाहिए।


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