बात केवल रुख बदलने भर की है।

June 1965

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आनन्द प्राप्त करना हमारा मुख्य लक्ष्य है। दिन रात उसी की प्राप्ति में लगे रहते हैं। जो जिस स्थिति में है उसे उसी स्थिति में आनन्द की अनुभूति हो रही है। गाँव का रहने वाला इसलिये प्रफुल्ल है कि उसे मुक्त प्रकृति, स्वस्थ आव-हवा और अनेक प्राकृतिक साधनों का भोग भोगने को मिलता है। शहर का निवासी भी उससे कम प्रसन्न नहीं। उसे अपनी तरह के साधन प्राप्त हैं। शिक्षा, अस्पताल, सिनेमा, पार्क आदि कई तरह के प्रसाधनों की दृष्टि से वह अपेक्षाकृत अधिक सुख अनुभव करता है। कोई एक स्थान पर स्थायी रहकर सुखी है किसी को चलते रहने में आनन्द आता है। किसी को कृषि में आनन्द है, किसी को रोजगार में। सैनिक को अपना ही जीवन प्रिय है, दुकानदार को अपनी स्थिति। अपनी मौज की सामग्री हर कोई ढूंढ़ कर उसमें ही आनन्द का अनुभव करते रहते हैं। जानवर को भी अपनी स्थिति से असन्तोष नहीं है क्योंकि मृत्यु से उसे भी भय है, वह भी चोला बदलने से हिचकिचाहट जताता है। तात्पर्य यह है कि यहाँ सभी आनन्द का ही जीवन जी रहे हैं। आनन्द सार्थक है या नहीं, उचित है या अनुचित, सात्विक है या असात्विक-विचारने के लिये इतना ही शेष रह जाता है।

स्वाभाविक आनन्द से ही यदि आत्मतृप्ति हो जाती तो सम्भवतः यह प्रश्न उतना महत्वपूर्ण न होता, जितना लोगों के सामने है। स्वादिष्ट भोजन आनन्ददायक होता है इसलिये सभी की यह कल्पना रहती है कि तरह-तरह की मिठाइयाँ, नमकीन, पकवान आदि प्राप्त किये जायें। उनसे इन्द्रियजन्य सुख मिलता भी है किन्तु इस आनन्द में दोष है। “भोग से रोग उत्पन्न होते है” इस कहावत के अनुसार उन सभी सुखों को जिनसे इन्द्रियों के विषय तृप्त होते हों, वास्तविक आनन्द की कोटि में नहीं रखा जायेगा।

पूर्ण आनन्द वह है जहाँ विकृति न हो। किसी तरह की आशंका, अभाव या परेशानी न उठानी पड़ती डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडउसमें हमारा अभ्यास बन गया है इसलिये वह अनुचित हो तो भी वैसा नहीं लगता। इसलिये आनन्द की परख की कसौटी नियत की गई है। आनन्द से शुद्धतम आनन्द प्राप्ति के लिए दृष्टिकोण परिमार्जन की आवश्यकता अनुभव की जाती है।

लौकिक आनन्द सिद्ध दाता नहीं है। इससे जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता। विचार, बुद्धि, तर्क, विवेक की जो साधारण तथा असामान्य शक्तियाँ मनुष्य को प्राप्त होती हैं ये केवल भौतिक सुखों के अर्जन में ही लगी ‘रहें’ तो इसमें कुछ अनोखापन नहीं। देखने वाली बात यह है कि जीवन दीपक बुझाने के पूर्व क्या हमने अपने आपको पहचान लिया है कि “हम कौन हैं”? इस प्रश्न का सुलझ जाना ही तो सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। आत्मज्ञान आनन्द का मूल है। इस विषय में अज्ञान बना रहा तो लौकिक जीवन में ही भटकते रहना पड़ेगा। सिद्धि आत्मा की शरण में ही जाने से मिल सकती है। मनुष्य की अन्यान्य आशंकायें आत्म-ज्ञान के अभाव में दूर होना सम्भव भी नहीं हैं। इससे यह निर्विवाद सिद्ध है कि लौकिक सुखों में ही आनन्द की पूर्णता न होकर निजत्व के ज्ञान में उसका प्रतिभास होता है। यह बात दृष्टिकोण बदल देने से भली भाँति मालूम पड़ जाती है।

हम वह जो प्रतिदिन आनन्द प्राप्ति के साधनों में परिवर्तन और प्रयोग किया करते हैं उससे भी यह स्पष्ट है कि हमें थोड़े आनन्द की उपेक्षा अधिक शुद्ध और पूर्ण आनन्द की तलाश है। एक कपड़ा पहनते हैं तो दूसरी बार उस कपड़े की अच्छाइयाँ, बुराइयाँ ज्ञात हो जाती हैं और दुबारा कपड़ा खरीदते समय यह ध्यान रहता है कि इस बार का कपड़ा पिछले दोषों से रहित और कुछ अधिक आकर्षक डडडड डडडड हो। की भी शुद्धि होती है। आनन्द की भी शुद्धि होती है और हम एक ऐसा आनन्द चाहते हैं जो पूर्ण ओर स्थायी हो। ऐसा आनन्द लौकिक जीवन में उपलब्ध नहीं है। तब फिर पारलौकिक जीवन की डडडडडडडड डडडडड डडडडडड डडडड जगने लगता है। यह सिद्धि भगवान की शरण में जाने से मिल सकती है।

फिर भी लोगों की समझ में यह बात नहीं आती और वे लौकिक सुखों में ही आसक्त बने रहते हैं। कारण कि हमारा दृष्टिकोण जैसा बन गया है उसमें कुछ परिवर्तन नहीं करना चाहते। सूर्य प्रतिदिन अपने उसी क्रम से निकलता है उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण प्रतिदिन उगते रहने वाले सूर्य के जैसा ही होता है, किन्तु यदि अपना थोड़ा दृष्टिकोण बदलें और विराट जगत के महान् क्रिया-शील शक्ति तत्व के रूप में उस सूर्य का चिन्तन करें तो वह महाप्राण, अनेक विचित्रताओं से संयुक्त और जीवन दाता समझ में आयेगा। दृष्टिकोण के परिवर्तन से समझने की स्थिति बदलती है और क्रमशः अधिक आनन्द की ओर अग्रसर होने लगते हैं। दैनिक जीवन में ऐसी अनेकों बातें आती हैं जो यों सामान्य-सी लगती हैं किन्तु वे अपने भीतर बहुत बड़ा अनोखापन और विज्ञान छिपाये होती है। हमारा दृष्टिकोण बोधक न होकर उथला, रिपट जाने वाला होता है इसलिये अत्यन्त महत्व पूर्ण वस्तुओं को छोड़ जाते हैं और केवल उन्हीं सुखों के चिन्तन में लगे रहते हैं जो स्थूल प्रयोग में आ चुके होते हैं।

दृष्टिकोण बदलता है तो सारी चीजें बदली नजर आती हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य ने बताया है- “ यह संसार मरुभूमि है। इसमें सुख चाहते हो तो भगवान् की शरण लो। आयु, श्री, यश और साँसारिक सुखों की उपलब्धि ईश्वर परायणता या आत्म चिन्तन में ही है। यही दैवी सम्पत्ति है। पर यह बात समझ में नहीं आयेगी क्योंकि अभी तक हमने सुख और संसार के प्रति अपना रुख नहीं बदला। दृष्टिकोण बदल जायेगा तो सर्वत्र आनन्द ही बिखरा दिखाई देगा।”

हम भोग में आनन्द अनुभव करते हुये नहीं जानते कि इस संसार में और भी कुछ श्रेष्ठतायें हैं। विचार द्वारा यदि आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व की बात समझ में आये तो भोग की अपेक्षा त्याग में आनन्द का अनुभव करने लगेंगे और तब दिन प्रतिदिन मूल लक्ष्य की ही ओर बढ़ते भी चलेंगे। फिर यह शिकायत न रहेगी कि ईश्वर चिन्तन में आनन्द नहीं आता। दृष्टिकोण की उत्कृष्टता का सवाल है, जिस तरह सम्पूर्ण चेष्टायें भौतिक उन्नति में लगी हैं उसी तरह आध्यात्मिक उपलब्धियों में भी मन लग सकता है पर पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करना पड़ेगा। अपना हर कार्य इस दृष्टि से पूरा करना पड़ेगा कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं।

आध्यात्मिक आनन्द भौतिक और स्थूल आनन्द की अपेक्षा सहस्र गुना अधिक है। भोग से त्याग में अधिक आनन्द है। शरीर से आत्मा में आनन्द भाव अधिक है, इस लिये विज्ञजन सदैव ही यह प्रेरणा देते रहते हैं कि मनुष्य शारीरिक हितों को ही पूरा करने में संलग्न न बना रहे, वरन् मनुष्य जीवन जैसी असाधारण घटना पर भी आन्तरिक दृष्टि से कुछ विचार करे। वह जो सुख विषयों में अनुभव होता है वह उन्मुक्त नहीं है। इसमें साधनों की विवशता है, अज्ञान के कारण जिसे हम उचित समझते हैं, वही व्याधिकारक होती हैं, फलतः क्लेश और कठिनाइयों का वातावरण उमड़ आता है। आनन्द की कल्पना से किया हुआ कर्म यदि विक्षेप उत्पन्न करे तो उस आनन्द को शुद्ध, पूर्ण और मनुष्योचित नहीं समझा जायेगा।

प्रश्न यह नहीं है कि हम आनन्द की प्राप्ति की ओर बढ़ें। वह तो हम कर ही रहे हैं। हर घड़ी आनन्द की खोज में ही हमारी जीवन यात्रा पूरी हो रही है। जो शर्त है वह यह कि हमारा आनन्द शाश्वत, निरन्तर और पूर्ण किस तरह हो? इसके लिये कुछ बड़े परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। घर और गृहस्थ का परित्याग भी नहीं करना, विचित्र वेष भूषा भी नहीं बनानी, केवल इस जीवन का मूल्याँकन सच्चे दृष्टिकोण से करने की आवश्यकता है। हम शरीर के हित तो पूरे करें किन्तु शरीर में व्याप्त यह जो आत्मा है उसे विस्मृत न करें। आत्मा हमारे अज्ञान, आसक्ति और अभावों को दूर करने में सक्षम है। यह तीन परेशानियाँ विघ्न न पैदा करें तो जिस आनन्द की तलाश में हैं वह इसी जीवन क्रम से उपलब्ध हो सकता है। इसके लिये हमें और कुछ नहीं करना, केवल दृष्टिकोण को परिमार्जित करना है। हम इस तरह अपना दृष्टिकोण बदल सकें तो शाश्वत आनन्द की उपलब्धि इसी जीवन में हो सकती है।


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