नारियाँ गुण-सौंदर्य बढ़ायें, आभूषण नहीं

June 1965

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भारतीय जीवन में नारी-आदर्श की शानदार परम्परा रही है। पुरुषों की अपेक्षा सद्गुण शील और सच्चरित्रता में स्त्रियाँ अग्रणी रही है। यही कारण था कि उन्हें देवी” नाम से सम्बोधित करने की परम्परा डाली गई थी जो अब तक इसी तरह से चल रही है। भारतवर्ष में धर्म, संस्कृति और नैतिकता की सर्वोपरिता का अधिकाँश श्रेय हमारी माताओं, बहनों तथा बेटियों को प्राप्त है। समाज निर्माण में उनका सहयोग पुरुषों से कम न था। भौतिक विकास में ये पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती थीं। स्त्री पुरुषों की पारस्परिक अभिन्नता के कारण ही यह सब देश समृद्धि की चरम सीमा तक पहुँचा हुआ था। नारियाँ सदैव से ही पुरुषों के लिये प्रेरणा का प्रकाश रही हैं। यही कारण है कि शक्ति की उपासना का प्रतीक भी नारी को ही माना गया है।

हमारी जीवन-पद्धति में बुराइयाँ बढ़ने लगी तो नारी जीवन भी उससे अछूता न रह सका और वे अस्ततः पुरुषों की दासी, भोग विलास की सामग्री और न जाने कैसी हेय वस्तु सी बन कर रह गईं। अशिक्षा, पर्दा, अन्ध विश्वास, आलस्य, विलासिता, फैशनपरस्ती आदि अनेकों बुराइयाँ उनमें बढ़ी। इन सबसे बड़ी बुराई रही उनकी आभूषण प्रियता, जिसने न केवल हमारे आर्थिक-सन्तुलन को बिगाड़ा वरन् उससे अनेकों सामाजिक बुराइयों का प्रचलन हुआ। स्त्रियों की कार्यक्षमता घटी और मानसिक कमजोरियाँ बढ़ने लगी। यह बहुत बड़े दुःख की बात है कि हमारी बहू-बेटियाँ अब गुणों से दूर होती जा रही हैं और नित्य नये शृंगार आभूषणों की माँगकर राष्ट्रीय ढाँचे को असंतुलित बनाने में लगी हैं।

भारतीय सम्पत्ति का इतना बड़ा भाग जेवरों के रूप में बँधा पड़ा कि यदि उसे खोल दिया जाय तो राष्ट्र की आर्थिक समस्या का हल सुविधापूर्वक हो जाय। दुःख की बात है कि यह क्रम अब भी उसी तरह चल रहा है। अशिक्षितों की बात दूसरी थी पर अब तो पढ़े लिखे और विचारवान् व्यक्ति भी सिद्धान्त रूप में भले ही विरोध करते हों किन्तु व्यवहार में सब इस गन्दी प्रथा को अपनाये हुये हैं और हमारी आय का आधा भाग केवल स्त्रियों के गहने बनाने में चला जाता है। यह बात नारी और राष्ट्र दोनों ही के लिये नितान्त दुर्भाग्यपूर्ण है।

धन के अभाव में लोग कोई उत्तम उद्योग नहीं कर पाते, बालकों को शिक्षित नहीं बना पाते, पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं कर पाते, जीवन स्तर ऊँचा नहीं कर पाते। पर यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो हमारे पास ऐसा कोई अभाव है नहीं। हमने जानबूझ कर ही यह समस्या खड़ी की है। हिन्दुस्तान में शायद ही ऐसा कोई अभागा घर हो जिसमें इतना जेवर न हो जिससे सामान्यतः एक परिवार के उदर पोषण के उपयुक्त आर्थिक धन्धा चलाया जा सके। पर स्त्रियों के असहयोग के कारण यह आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती। वे बुरी तरह से इन मिट्टी के ढेलों को छाती से चिपकाये हुये अपने बच्चों को, पतियों को आर्थिक विषमता की चक्की में पिसता हुआ देखती रहती हैं किन्तु इस हानिकारक कुप्रथा को छोड़ने के लिये तैयार नहीं।

आभूषणों से सौंदर्य बढ़ता हो, सम्मान मिलता हो ऐसी कोई बात तो समझ में आती नहीं। उलटे शरीर के अंग दुखते हैं। चोरों का भय बना रहता हैं। आपस में ईर्ष्या-द्वेष और पारिवारिक कलह ही बढ़ता है। परिवार के पालन करने लायक आय से, बच्चों का पेट काटकर इस मूढ़ता में फँसा दिया जाना बुद्धि संगत बात नहीं। यह हमारी बेटियों के अविवेक का ही लक्षण है।

आभूषणों से स्त्रियाँ नहीं सजतीं, यदि ऐसा रहा होता और इससे कुछ लाभ रहे होते तो हमारे पूर्व पुरुषों में भी इस प्रथा का प्रचलन रहा होता। साधारण मंगल आभूषणों के अतिरिक्त भारी सोने, चाँदी के जेवरों का प्रचलन हमारी अपनी संस्कृति से नहीं हुआ वरन् यवनों ने यह विकृति भारतीय जीवन में पैदा की है। स्त्रियाँ सरल और स्वाभाविक शृंगार फूल और पत्तों से कर लेती थीं उनमें वासना को बढ़ाने वाला कोई दोष नहीं होता था और न उनसे सामाजिक तथा राष्ट्रीय व्यवस्था में किसी तरह की गड़बड़ी पैदा होती थी। स्त्रियाँ अपने गुणों से सजती हैं। मन की निर्मलता और स्वभाव की पवित्रता से ही उनका सच्चा शृंगार होता है।

सच पूछा जाय तो नारी का सतीत्व ही वह आभूषण है जिसके द्वारा वे अपने पतियों को अपना आज्ञानुवर्ती बनाये रख सकती हैं। इससे वे समाज की भावी पीढ़ी, अपने बालकों का निर्माण अधिक पवित्रता, एकाग्रता एवं निपुणता के साथ कर सकती हैं। इस तरह वे अपने व्यक्तिगत कर्तव्यों का यथाविधि पालन करती रह सकती हैं।

पुरुष वर्ग यदि आभूषणों की चिन्ता से मुक्त किया जा सके तो उनकी कार्य क्षमता बढ़ सकती है और रहन सहन का स्तर ऊँचा उठ सकता है। यह कार्य बहू-बेटियाँ ही कर सकती हैं।

लज्जा और विनय भारत की देवियों के आभूषण कहे गये हैं। यह उनके गुण विकास की दृष्टि से ही कहा जाता है। कोई भी गुणशील स्त्री अपनी अपनी गृहस्थी को अधिक संयत और सुखी रख सकती है। वेद-नियंता का आदेश है—

अघोर चक्षुर पतिघ्नी स्योना शग्मा सुशेवा सुयमा गृहेभ्यः।

वीर सूर्देवृकामा सं त्वयैधिषीमहि सुमनस्य माना॥

—अथर्व 14। 2। 17

हे वधू! तू प्रियदर्शिनी होकर शुद्ध अन्तःकरण से परिवार जनों का हित कर। इससे घर में सुख और सम्पत्ति की वृद्धि होगी।”

हमारी संतानें ज्ञानवान्, धर्मवान्, धनवान और शक्ति सम्पन्न बनें इसके लिये स्त्रियों का जीवन विलासिता की सामग्री से नहीं गुण और कष्ट सहिष्णुता से ओत-प्रोत होना चाहिये। स्त्रियाँ शिक्षित हों, विचारवान् हों तभी उनसे राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रमों में सहयोग की आशा की जा सकती है। इसके लिये सर्व प्रमुख आवश्यकता तो यही है कि वे ऐसी संकीर्ण विचारधाराओं से उन्मुक्त हों और कर्त्तव्य पालन की ओर उनका ध्यान अधिक से अधिक रहे। कर्त्तव्य में वह सारे उत्तरदायित्व आ जाते हैं जिनका पारिवारिक सुव्यवस्था से सम्बन्ध है। पर आभूषणों से अधिक लगाव होना यह एक ऐसी समस्या है जिससे शेष सभी क्षेत्रों पर कुप्रभाव पड़ता है। अर्थ-व्यवस्था में ही नहीं मनुष्य का नैतिक जीवन भी इस कुरीति के कारण विकृत हुये बिना नहीं रहता। समाज और राष्ट्र की व्यवस्था में भी इससे गड़बड़ी ही उत्पन्न होती है।

नारी जाति स्नेह और सौजन्य की देवी है, वह पुरुष की निर्मात्री है। किसी भी राष्ट्र का उदय नारी जाति के उत्थान से ही होता है इसलिये अब इस कुरीति का उन्मूलन कर उन्हें निर्माण क्षेत्र में आगे बढ़ाने की बड़ी तीव्र आवश्यकता अनुभव की जा रही है। पर इसमें कोई बाह्य हस्तक्षेप कारगर नहीं हो सकता। इस कुरीति को कोई दूसरा नहीं दूर कर सकता। जेवर और गहनों के प्रति अरुचि उनमें समझ उत्पन्न करने से ही हो सकती है। विचारवान् स्त्रियों को स्वयं ही इस दिशा में कुछ करने के लिये प्रोत्साहन मिलना चाहिये। जिनकी समझ में आभूषणों की निरर्थकता की बात आ जाये, उन्हें इस शिक्षा का प्रसार तेजी से करना चाहिये।


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