क्षमता का विस्तार (Kavita)

June 1965

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है, असीम क्षमता मनुष्य में जो चाहे वह ही बन जाए।

पौरुष जागे पार्थ बने नर, मन का अँधियारा मिट जाए॥

भरी अथक संघर्ष-शक्ति है, सहिष्णुता-विश्वास वहाँ है।

और कहो, सन्तुलित-समन्वित जीवन का आवास कहाँ है॥

धरती के कुल भोग वीर हो, निश्चयतः भोगा करते हैं।

दुर्बल दीन-हीन रोने में, ही जीवन खोया करते हैं॥

नहीं वीर; जो शस्त्र उठा लेता है निःशस्त्रों पर कर में।

वह कायर है जो हथियारों को लखकर घुस जाता घर में॥

बात-बात पर आपस में ही, कट-मरने वालो—ठहरो तो!

मूल्याँकन कुछ करो प्राण का, प्रेम-सरोवर में—लहरो तो!!

निर्मल मानस से निकली, मुसकान शत्रुता से बढ़कर है।

जिसके आगे विश्व पराजित, वश हो जाता जगदीश्वर है॥

निस्सन्देह उजागर, शाश्वत-सत्य सदा अविचल रहता है।

मानव क्यों, विषमय विषयों की, धारा में अविरल बहता है॥

युवकों, अब सारा भारत ही, प्रभु का मन्दिर बना जा रहा।

नये-नये तीर्थों-पर्वों का, नित नूतन उल्लास छा-रहा॥

जाग रहा है कर्म देश में, कण-कण है श्रमगीत गा रहा।

जन-जन में भगवान जग रहे, नव जीवन सुविकास पा रहा॥

लो, कृतित्व उभराया फिर से, प्रज्ञावादी भगे जा रहे।

सार्व-भौम निर्माण कार्य में, भारतवासी लगे जा रहे॥

उठो, बढ़-चलो ज्योति मार्ग-पर, भारत माता है पुकारती।

प्राणों के निर्मल कुसुमों से, एक बार फिर सजे आरती॥

सखे, शौर्य भाव से भर कर, नव शंख-ध्वनि गुँजित कर दो।

मातृ भूमि को रक्त दान दो, पुण्य-धरा अनुरंजित कर दो॥

—आचार्य सर्वे

*समाप्त*


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