रीति-प्रीति सब सों भली

June 1965

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“मेरे लिये अपने हृदय का द्वार खोल दो जिससे मैं उनमें प्रवेश कर सकूँ। डडडड जैसे ही मेरा तुम्हारे साथ संपर्क हुआ कि तुम देखोगे कि ज्ञान का असत्य का अन्धकार विलीन हो रहा है, अनपेक्षित ज्ञान विलुप्त हो रहा है और तुम्हारी दृष्टि स्पष्ट तथा समझ निर्भ्रांत हो रही है” सर रिचर्ड डडडड शिरहल की इन दिव्य भावनाओं में प्रीति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या हुई है। प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का डडडड,शाँत, स्थिर एवं उद्गार विहीन समावेश है, जिसमें मनुष्य, जीवन के सारे दुःख, धर्म, अभाव भूल जाता है। धन और वैभव हृदय की प्यास नहीं बुझा सकते, उसके लिये निर्मल प्रेम की आवश्यकता है। प्रेम पाकर मनुष्य का जीवन रस विभोर हो जाता है।

मनुष्य जीवन में एक सर्वोत्कृष्ट बल है, वह है- प्रीति का बल। इसके प्रयोग से प्रत्येक मनुष्य उसे ही प्राप्त कर लेता है। जिसे वह अपने लिये सुखद मानता है। प्रेम वशीकरण मन्त्र है, जो शत्रु को भी मित्र बनाने की क्षमता रखता है। प्रीतिमात्र वस्तु अथवा व्यक्ति के मिलने में पुण्य कर्म सहायक होते हैं तथा पाप कर्म-बाधक बनते हैं। सच्ची प्रीति में समस्त बाधाओं, कठिनाइयों तथा दुःखों को पार कर जाने की शक्ति होती है।

मनुष्य जब तक प्रेम का आश्रय ग्रहण नहीं करता तब तक उसे स्वतन्त्रता का बोध नहीं होता। अर्थात् वह अपने शारीरिक स्वार्थ और भोग की लालसा में ही पड़ा हुआ डडडड डडडड आत्म-ज्ञान डडडड बना रहता है। किन्तु प्रेम के उदय होते ही त्याग, तप, दान के डडडड समस्त सद्गुणों का विकास होने लगता है। सच्चा प्रेमी पूर्ण डडडड, तपस्वी और दानी होता है, उसे डडडड आत्मा की सच्ची डडडड इमानडडडड होने लगती है तभी तो वह डडडड आत्मोत्सर्ग कर देने के लिये समुद्यत होता है। आगे-पीछे का चिन्तन वह क्यों करेगा? भय उसका क्या करेगा जिसके मन हृदय और आत्मा में प्रेम का प्रकाश उदय हो गया है। वह दूसरों में दोष दुर्गुण नहीं सच्चे सौंदर्य के दर्शन करता है। मनुष्य जीवन की प्रेम ही सच्ची दृष्टि है।

जिस तरह इस संसार में सर्वत्र प्रकाश है पर जहाँ वह नहीं, वहीं अन्धकार दिखाई देने लगता है। अन्धकार दिखाई देने लगता है। अन्धकार का अस्तित्व प्रकाश का न होना ही है, उसी तरह सम्पूर्ण मनोविकारों का अस्तित्व केवल इसलिये है कि हृदय में प्रीति का प्रकाश नहीं हैं। दया के सामने दुष्टता का नाश हो जाता है वैसे ही प्रेम और सहानुभूति के सामने बुरे मनोविकार अपने आप भाग जाते हैं। प्रेम का वरदान मिलते ही जीवन का सौंदर्य निखर उठता है। मनुष्य पहले की तरह ही सार्थकता और सफलता अनुभव करता है। उदासी कोसों दूर भाग जाती है। प्रेम की मधुरता में जीवन के सम्पूर्ण आनन्द समाये हुये हैं।

मनुष्य में सारी योग्यता प्रीति के सदुपयोग से आती है। दोष इसी के दुरुपयोग से बढ़ते हैं। प्रेम का एक रूप छल भी है। इसे वासना भी कह सकते हैं। धूर्त लोग इसे अपनी स्वार्थ-पूर्ति का साधन बना कर भोले लोगों को दिग्भ्रांत कर देते है। प्रत्यक्ष में देखने पर ऐसे व्यक्ति क्षणिक सुख भले ही प्राप्त कर लें पर अंततः उन्हें डडउडडरौख नरक ही भोगना पड़ता है। प्रेम-परमेश्वर का स्वरूप है। जिस प्रकार दूसरे लोग अपमान सहन नहीं कर पाते, परमात्मा भी इस जालसाजी को पसन्द नहीं करता और धूर्तों को कड़ा दण्ड देता है। सावधान! कभी प्रेम का आश्रय लेकर किसी सज्जन व्यक्ति को ठगें नहीं किसी सुशीला, साध्वी का पथ-भ्रष्ट न करें, अन्यथा परमात्मा के कोप का भाजन बनना पड़ेगा। वह पाप-फल मिलेंगे जिनसे सारे जीवन भर आँसू बहाने, तड़पने, और कलपने के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।

प्रीति, धन, शरीर, अधिकार-वैभव या ऐश्वर्य के प्रति न कीजिये, प्रेम तो प्रेम स्वरूप की प्राप्ति के लिये किया जाता है। प्रेम अपनी हस्ती मिटाने के लिये किया जाता है। जलती ज्योति पर जल जाने वाले शलभ की प्रीति सच्ची है। उसे कभी डडडडड विलगला में आनंद नहीं आता। स्थूल प्रेम में विलगला डडडड से दुःख होता है अतः यह डडडड परवशता हुई। प्रेम तो चिर-उन्मुक्त है, उसे इसी रूप में प्राप्त किया जाना चाहियें । प्रेम को परमात्मा का प्रतीक मान कर उसकी उपासना की जानी चाहिये। प्रेम में मृत्यु की सी यन्त्रणा है पर उसमें स्वर्गीय आनंद है, जो प्रेम करता हैं वही सच्चा सुखी और भाग्यवान है।

प्रेम शान्ति-रूप, कल्याण स्वरूप है उसे प्राप्त कर मनुष्य की अशान्ति भाग जाती है क्योंकि उसे वास्तविक ज्ञान तथा अलौकिक दर्शन मिल जाता है। उसे इस सुख को शब्दों से व्यक्त करने की आवश्यकता भी नहीं होती। सेवा, सेवा, सेवा, त्याग, त्याग, त्याग। सब कुछ अपने प्रेमी की इच्छा पर न्यौछावर कर देने का महान् सुख भोगता है वह। उसे अपने प्रिय-तम की सेवा का असीम आनन्द मिलता है। कौन जानता है इस अवस्था को? वही जिसने प्रेम किया है, प्रेम रस का रसास्वादन किया है।

दुःख कातरता की औषधि है प्रेम। वह हृदय में संचरित होता है और सारे शरीर को स्वस्थ तथा सजीव कर देता है। शरीर और मन की सारी थकावट मिट जाती है प्रेम से। प्रेम मनुष्य जीवन का सर्व श्रेष्ठ वरदान है। वह मनुष्य के अन्दर समझने वाली, प्रेम करने वाली तथा उल्लास उत्पन्न करने वाली शक्ति है। वह जीवन को रचनात्मक प्रवाह की ओर गतिशील करने वाली शक्ति है। प्रेम मनुष्य की दुर्बलता, दरिद्रता और दुख को शक्तिमत्ता,पता, सम्पन्नता और सुख में परिवर्तित कर देता है।

मनोवैज्ञानिक अनुसंधानकर्त्ताओं का मत कि आगे चल कर अपराधी बनने वाले मनुष्य प्रायः वे होते हैं जिन्हें बाल्यावस्था में प्रेम नहीं मिला होता है। इससे उनकी हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ भड़क उठती हैं और सद्भावों के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। इसीलिये उनका मन बुरी भावनाओं से घिरा रहता है और वे अनैतिक आचरण किया करते हैं। सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था का प्रमुख आचार यह है कि मनुष्य मात्र एक दूसरे के प्रति दयाभाव एवं सहिष्णुता रखा करे पर यदि देखा जाय तो दया और सहिष्णुता का उद्रेक प्रेम ही है। जिन्हें प्रेम नहीं मिलता उनके हृदय के कोमल भाव मुरझा कर नष्ट हो जाते हैं और द्वेष पूर्ण प्रवृत्तियाँ शक्ति शाली होकर अभद्र कार्यों की ओर प्रेरित करने लगती हैं। प्रेम न मिलना मनुष्य के अधःपतन का प्रमुख कारण है।

बालकों की डडडड उद्दंडता और पारिवारिक कलह मिटाने के लिये प्रेम पूर्ण व्यवहार की अत्यन्त आवश्यकता होती है। सौहार्द्र पूर्ण वातावरण में बालकों का मानसिक विकास तेजी से होता है और उनमें स्वावलम्बन भी डडड आता हैं। जिस परिवार डडडडड में परिजनों में एक दूसरे का दुःख का दर्द अनुभव करने की आत्मीयता होती है, उन डडडड कुटुम्बों में स्वर्गीय सुख से दर्शन किये जा सकते हैं। डडडडड प्रेम हृदय की विशालता का लक्षण है। उसमें स्वार्थ और संकीर्णता का जरा भी स्थान नहीं होता। सभी के सुख में ही अपना सुख अनुभव करने की उदारता किसी प्रेमी हृदय में ही हो सकती है। केवल अपने सुख, अपनी सुविधायें चाहने वाले लोगों के हृदय बिलकुल ओछे होते हैं, वे जहाँ भी रहते हैं सारी शान्ति और सुव्यवस्था को बिगाड़ कर रख देते हैं।

इस प्रकार के विचारों से जब हमारा जीवन ओत-प्रोत हो जायगा, तभी हम संसार को एक नए रूप से देखने लगेंगे। हमारी सेवाओं की इस धरती को बहुत जरूरत है, हर-कण हमें डडडड अतृप्त और प्यासी निगाहों से देखकर पूँछ रहा है क्या तुम मुझे प्रेम दे सकोगे? तब हम विश्वात्मा के साथ हृदय-मिलन का सुख पा सकते हैं, पर हमारा हृदय इतना विशाल होना चाहिये कि एक छोटा सा पंछी भी निर्भीक बनकर पास बैठ सके।

अपनी मर्जी के अनुसार इस विश्व के लोग लोकाचार में संलग्न हैं पर सचमुच उनमें से वास्तविक सुख के भागीदार बहुत थोड़े हैं। सुख उन्हें मिलता है जो प्रेमी हैं। प्रीति की रीति का अनुसरण करने वालों को ही परमात्मा का प्रकाश मिलता है। सत्य हमसे दूर नहीं, ईश्वर अपने ही अन्तस्तल में समाया हुआ है उसे जानने के लिये और उसका दर्शन करने के लिये केवल नेक बनने की जरूरत है। प्रेमी होकर ही आप उसके दर्शन कर सकते हैं। आप अपने आप से प्रेम कीजिये, परिजनों से प्रेम कीजिये, नगर गाँव और राष्ट्र से प्रेम कीजिये। प्रेम की भावना इतनी विस्तृत हो कि प्राणिमात्र में प्रेम स्वरूप की झाँकी होने लगे, उसी दिन आप भी परमात्मा के दर्शन के अधिकारी बन जायेंगे। उसी दिन ईश्वर आपकी रग-रग में समा जायेगा।


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