कर्म कुशल होना ही योग है।

June 1965

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योग कर्म में कुशलता प्राप्त करने का नाम है। अच्छी भावपूर्ण कविता लिख लेने वाले को कहते हैं कि वह एक कुशल कवि है। अच्छा मकान बना लेने वाला कुशल कारीगर, नाटक में कुशल भाव अभिनय प्रदर्शन कर सकने वाला उसे कुशल कलाकार मानते हैं। किसी काम की दक्षता प्राप्त कर लेना ही उस कर्म की कुशलता हुई। आध्यात्मिक भाषा में इसे ही योग कहते हैं।

नट तरह-तरह की कलाबाजी दिखाता है, बाँस पर चढ़ने, तार पर नाचने, उछलने कूदने की क्रियाओं का सफल प्रदर्शन करता है वह। इन कार्यों में उससे राई रत्ती भर चूक नहीं होती है। जिस कार्य में कर्त्ता को पूर्ण दक्ष कहे जाने का यश मिले यह उस की कुशलता हुई। काम न बिगड़े और सामान्य व्यक्तियों से उसमें कुछ अधिक सफलता दिखाई दे तो कहेंगे इसे इस कार्य में कुशलता प्राप्त है। इसे यों भी कह सकते हैं कि वह अमुक कार्य का योगी है।

काम करते समय हमारी कर्मेंद्रियां, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन या चित्त ये सब एक ही दिशा में क्रियाशील रहते हैं। किसी दीवार की चूने से पुताई करनी हो तो एक हाथ से बाल्टी पकड़ते हैं, पैरों से सीढ़ी पर खड़े होकर दूसरे हाथ से पुताई करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्य होते हुए भी हाथ, पाँव, उंगलियों आदि अवयवों का लक्ष्य एक ही था, पुताई करना। आंखें यह बताती जाती थीं कि अभी यह जगह छूट गई है इतनी जगह बाकी है, यहाँ बाल्टी है यहाँ चूना है। चित्त की दिशा भी उसी में थी कि चूना गाढ़ा है, ठीक है, पानी कम तो नहीं, पुताई कितनी सुन्दर है इस तरह से चित्त वृत्तियाँ सजग योग थी। क्रियात्मक, निरीक्षणात्मक और विश्लेषणात्मक तीनों प्रक्रियाओं के साथ चलते रहने के कारण दीवार की सुन्दर पुताई संभव हो सकी। इनमें से एक विभाग भी काम करने से इनकार कर देता तो काम में गड़बड़ी फैलती और उसका पूरा किया जाना सम्भव न होता।

इन्द्रियाँ कार्य को पूर्ण करने में स्वतः समर्थ नहीं होती मन उसका संचालन और नियंत्रण करता है इसलिए सफलता या असफलता का कारण उसे ही मानते हैं, सवार बैलगाड़ी को ले जाकर किसी खड्डे में डाल दे तो दोष गाड़ी का नहीं। बैलगाड़ी को क्योंकि उसे ज्ञान नहीं होता, वह स्वतः चालित नहीं होती। बेलों को भी दोष नहीं दे सकते- उनका बेचारों का कसूर भी क्या था जिधर नकेल घुमादी उधर चल पड़े। ‘डडडडनाथ’ पड़ी थी उनके नथुनों में, जिधर का इशारा मिलता था उधर ही चलते थे। दोष यदि हो सकता है तो वह सवार का है। क्योंकि गाड़ी चलाने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी उसी की थी। शरीर द्वारा किसी काम को सफल बनाने में मन का ही उत्तरदायित्व अधिक माना जाता है क्योंकि वह संचालक है। उसी से आज्ञा पाकर दूसरे अवयव डडडड काम पर जुटते हैं।

डडडड दोष युक्त कर्म डडडड यों असफलता का कारण होता है- मन की विखंडित दशा। अस्त-व्यस्त, अनेकाग्र होकर काम करने से ही प्रायः गलत परिणाम निकलते हैं। जब भी काम अपूर्ण रहेगा तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मन ही दोषी ठहराया जायेगा। ज्ञान और अनुभव की कमी के कारण या दत्त-चित्त न होकर यों ही बिखरे-बिखरे रह कर काम करेंगे तो कार्य की यथोचित पूर्णता सन्दिग्ध ही रहेगी। कार्य का न होना, पूर्णतया चित्त की अस्थिरता और असावधानी के कारण ही होता है।

जिस काम को जानते ही न हो उसमें भूल सम्भव है, उसे सीखना पड़ता है किन्तु सीखने के बाद भी काम की सारी जटिलतायें दूर हो जायेंगी ऐसा नहीं कहा जा सकता। इन कठिनाइयों का हल भी स्थिर चित्त और मन को पूर्ण एकाग्र करने से हो जाता है। भिन्न हल करने का नियम एक ही है। विद्यार्थी जानते हैं कि पहले -”मोटी लकीर” फिर “कोष्ट” फिर “का” “भाग“ “गुणा” और तब “धन” तथा “ऋण” को हल करते हैं। “भिन्न” हल करने का यह सामान्य नियम प्रत्येक विद्यार्थी याद कर लेते हैं किन्तु नियमों की तोड़-फोड़ करते समय एक विद्यार्थी गलती कर जाता है, दूसरा उसे नियमानुसार हल करता जाता है। दूसरा उसे नियमानुसार हल करता जाता है। एक का उत्तर सही होता है दूसरे का गलत। नियमों का ठीक-ठीक जिसने पालन किया सवाल उसी का सही था। अस्थिरता के कारण दूसरे ने सही ढंग से काम नहीं किया बीच की क्रियायें गलत कर दीं, फलस्वरूप सवाल गलत हो गया। यह सिद्धाँत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। जिस उद्देश्य को पूर्ण तन्मयता के साथ हल करते हैं वह जरूर सिद्ध होता है। बिना लगन, बिना तत्परता काम करने की सही दिशा का निर्माण नहीं होता। एकाग्रता कार्य की सफलता के लिए सदैव अपेक्षित है, इसके बिना परिणाम प्रायः सही नहीं निकलते।

किसी वस्तु के स्वरूप के विषय में मनुष्य अनजान हो सकता है किन्तु कर्म में असफलता का कारण मनुष्य की अनस्थिरता को ही कहा जायेगा। चित्त का निरोध न करके पागलपन से जो काम किये जाते हैं उनमें असफलता मिले तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?

पातंजलि योग में आया है-”योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात् चित्त की वृत्तियों को वश में रखना ही योग है। दूसरे शब्दों में इसे पूर्ण तन्मयता भी कह सकते हैं। हल ढूंढ़ने में पूर्ण रूप से तन्मय हो जाना ही योग है। गीता में इसी भाव को इस तरह प्रस्तुत किया गया है “योगः कर्मसु कौशलम्” अर्थात् कर्म में कुशलता प्राप्त करना ही योग है। दोनों बातें एक-सी हैं। चाहे कर्म की कुशलता को योग कहें या चित्त वृत्तियों के निरोध को। चित्त वृत्तियों के निरोध से, एकाग्रता से ही कर्म की पूर्ण सफलता प्राप्त होती है, इसलिए दोनों बातें एक जैसी ही हैं। भाव प्रत्येक अवस्था में यही है कि किसी भी विषय की सफलता के लिए चित्त की स्थिरता या पूर्ण तन्मयता होनी चाहिए।

भूल प्रायः अशाँत चित्त होने से ही होती है। एकाग्र चित्त होकर काम करने से वह अच्छे से अच्छे ढंग से होता है। भूल करने का पता भी तभी चलता है जब चित्त शान्त होता है। अशान्त मन से काम करने में संचालन की स्थिति ही कहीं अन्यत्र होती है इसलिए फल के विषय डडडड जागरुक नहीं रहते। ऐसी दशा में बनते भी उलटे सीधे डडडड परिणाम ही हैं। अन्यमनस्कता के कारण कोई काम ढंग से सहूर से नहीं होता। सही स्थिति से किये कार्यों के ही सही परिणाम निकलते हैं।

सीखने और जानने के लिए भी सही तरीका यही है कि बताने या सिखाने वाले की बातों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं या नहीं। स्वाध्याय में जो केवल पढ़ जाने की क्रिया पूरी करता है उससे किसी तरह का मानसिक या चारित्रिक विकास नहीं होता। कोई विद्यार्थी यह कहे कि उसने दो-दो बार सारी पुस्तक पढ़ी है फिर किस तरह उसे फेल कर दिया गया, तो यही समझना चाहिए कि उसने पढ़ा है, मनन नहीं किया। शब्द दुहराते चले जायें और आशय कुछ न निकालें तो उस अध्ययन का लाभ ही क्या होगा? जो कुछ पढ़ें, उसे भली प्रकार मनन करें तो वह बात परिपक्व होकर ज्ञान का रूप धारण करती है। विचारों को तदनुरूप कर्मों में प्रसारित करें “स्वाध्याय” शब्द तब कहीं सार्थक होता है। अक्षरों को शब्द रूप दे देना ही काफी नहीं है। उनका अर्थ भी समझें तो आपका सीखना सही माना जायेगा।

बिना विश्राम से किया हुआ कर्म, अनिच्छा पूर्वक तथा पाप की भावना से किए गये कृत्य कभी मनुष्य को सुखी नहीं रख सकते। व्यग्रता बढ़ाने वाले कर्म भला किसी को सन्तोष दे पायें हैं? शान्ति प्राप्त करने के लिए सत्कर्मों में कुशल होना अनिवार्य है।

भोगवाद मनुष्य के दुष्कर्मों को बढ़ावा देता है। ऐसी अभिनय-शीलता आज लोगों में प्रचुर मात्रा में आ गई है, इसलिये इस समाज को योग-भ्रष्ट समाज कहना ही उपयुक्त होगा। शरीर और मन की शक्याँ विशृंखलित होकर समाज में बुराइयाँ पैदा कर रही हैं मनुष्य के दुःखों का डडडडशतशः कारण यही है।

शान्ति पाने के लिए हमें अतीत को जागृत करना पड़ेगा। अतीत का अर्थ उन विचारणाओं से है जिनमें राष्ट्र का डडडडकी सद्वृत्तियाँ जागृत हो। लोगों का विवेक ज्ञान और वैभव समृद्ध बने तो बडडडड सच्चे योग के दर्शन दिखाई देने लगेंगे। चिर शाँति को आधार डडडड मनुष्यों में सत्कर्मों के प्रति गहन और डडडड इस विश्वास को जगायें तो हमारी वह कमियाँ दूर हो सकती हैं जिनसे आधुनिक जीवन में उदासीनता और निग्राणता छाई हुई है।


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