सबसे बड़ा सुख-सन्तोष

June 1965

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जो वस्तु मनुष्य को सबसे अधिक दुःखी बनाती है उसका नाम है “ तृष्णा”। जीवन निर्वाह के आवश्यक साधनों के लिये न तो अधिक श्रम ही करना पड़ता है और न कोई दौड़-धूप करनी होती है। पशु-पक्षी तक उदरपोषण और निवास आदि की समुचित व्यवस्था कर लेते हैं पर मनुष्य की कामनायें बड़ी विशाल होती हैं। पूर्णतया अनियंत्रित कामनायें बड़ी विशाल होती है। पूर्णतया अनियंत्रित कामनाओं का नाम ही बड़ी तृष्णा है, इसी से मनुष्य जीवन में तरह-तरह की जटिलतायें, दुःख और परेशानियाँ आती हैं।

आवश्यकताओं की तात्कालिक पूर्ति में ही मनुष्य को सन्तोष नहीं होता। जितना अधिक उसमें बोलने, विचार करने की शक्ति तथा मन और बुद्धि का विकास हुआ है उतना ही उसकी आवश्यकतायें बढ़ी हैं। एक बार की इच्छा पूर्ति से उसे तृप्ति नहीं मिलती। वह हर दूसरी बार पहले से उच्चतर साधनों की माँग करता रहता है। आज साइकिल तो कल मोटर साइकिल हो, फिर मोटरकार -तात्पर्य यह कि इच्छाओं का तारतम्य नहीं टूटता। मनुष्य इसी गोरखधन्धे में फँसा विक्षिप्त, निराश्रित-सा बना रहता है। उसे कभी शान्ति नहीं मिलती, कभी सन्तोष नहीं होता।

बढ़ती हुई तृष्णा ही मनुष्य के दुःख का कारण है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। वर्तमान में ही खाने, पीने, शौक, मौज करने तक उसकी इच्छायें सीमित नहीं रहतीं। बहुत लम्बे समय के लिये पुत्रों और प्रपौत्रों के लिये संग्रह करके छोड़ जाने की मानवीय प्यास ही अस्त व्यस्तता और दुःख का कारण होती है। इससे न तो आत्म कल्याण ही होता है और न बच्चों का ही किसी प्रकार का विकास हो पाता है। बिना परिश्रम की कमाई से मनुष्य में अनेकों दुर्बलतायें आती हैं और विकास करने की योग्यता नष्ट हो जाती है।

अपने ही सम्बन्ध में बहुत दूर तक सोचना मनुष्य का स्वार्थी होना बताता है। इस स्वार्थ के परित्याग से जो सन्तोष शेष बचता है वही मनुष्य का सच्चा सुख है। महर्षि गौतम ने कहा है :-

असन्तोषं परं दुखं संतोषः परमं सुखम्।

सुखार्थी पुरुषस्तस्मात् संतुष्टः सततं भवेत्॥

अर्थात्-हे मनुष्य! इस संसार में दुःख का कारण असन्तोष है और सन्तोष ही सुख है। जिन्हें सुख की कामना हो वे सन्तुष्ट रहा करें। “

सन्तोष एक महान् आध्यात्मिक भाव है जो मनुष्य के हृदय की विशालता को व्यक्त करता है। धैर्य, सहनशक्ति, त्याग और उदारता ये सब सन्तोष का अनुगमन करते हैं। सन्तोषी पुरुषों में शेष सभी सद्गुण और शुभ संस्कार स्वतः आ जाते हैं।

मनुष्य ने यद्यपि ज्ञान-विज्ञान और शक्तियों का उपयोग करके सुख के अनेक साधन ढूंढ़े हैं, नव निर्माण के द्वारा उसे अनेक उपलब्धियाँ हस्तगत भी हुई हैं किन्तु सुख की कल्पना अभी तक नितान्त अधूरी पड़ी है। इच्छायें अनन्त हैं वे कभी समाप्त नहीं होती हैं। और जब तक किसी भी तरह की इच्छा मनुष्य के हृदय में शेष रहेंगी तब तक उसका ध्यान पारमार्थिक जीवन की ओर कदापि नहीं जायगा। मन की शक्ति एक ही है उसे चाहे भोग-विलास, खान-पान, और शौक- मौज के कार्यों में लगाये रहें या आत्मज्ञान के हित सम्पादन में लगादें। कामनाओं के कारण मनुष्य जीवन उलझनों में फँसता चला जाता है पर पारलौकिक जीवन की सुखानुभूति प्राप्त करने के लिये तो उनका त्याग ही करना पड़ता है। इच्छायें स्वतः कभी समाप्त नहीं होती, तृष्णाओं का अन्त कभी अपने आप नहीं होता, उन्हें मारने के लिये सन्तोष का भाव चाहिये। हर परि स्थिति में सुख अनुभव करना चाहिये।

विपुल धन-सम्पत्ति, रोजगार भोग और विलास हो ने पर भी लोगों के जीवन में शान्ति नहीं दिखाई देती। अमीर भी घोर-अशान्ति में पड़े देखे गये हैं। विश्व-सिद्धिवदित धन कुबेर हेनरी फोर्ड की दुःख भरी घटना सभी जानते हैं। साधन कभी सुख नहीं दे सकते यह पूर्णतया प्रमाणित हो चुका है। सुख तो सचमुच आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में ही है। पर आपको इसके लिये आत्म-शोधन ज्ञान की प्रक्रिया जरूर पूरी करनी पड़ेगी। आपको इसके डडडड साँसारिक जीवन में अधिकाँश में मुक्ति लेनी पड़ेगी और शोक थोड़े से साँसारिक साधनों में ही संतोष का भाव व्यक्त करना होगा। तभी तो इतना अवसर निकल सकेगा जब आत्म चिंतन कर सकेंगे। जीवन यापन के स्थूल साधनों तक ही सीमित रहे तो चित्तवृत्तियां भी उन्हीं का ज्ञान और अनुभव प्राप्त करने में जुटी रहेंगी और आपका विकास एकाँगी रह जायगा। आध्यात्मिक जीवन का प्रकाश आपके जीवन में न आया तो आप भौतिक सुखों के झमेले में ही भटकते, ठोकरें खाते फिरते रहेंगे।

इस संसार में स्थिर चित रहने के लिये एक मात्र संतोष का ही आश्रय लेना पड़ेगा। आपके पास बहुत धन है यह ठीक है किन्तु क्या परिजनों के बिछोह, बीमारी या मृत्यु से आप बच सकेंगे? कपूत बेटा, कुलक्षणी स्त्री, कलह-प्रिय परिवार और अत्याचारी तत्वों से समाज दूषित हो रहा हो तो क्या आपका वैभव, धन, शिक्षा आदि कुछ काम दे सकेंगे। प्रत्येक परिस्थिति में मुँह की खानी पड़ेगी, आप जरूर उद्विग्न होंगे, निराश होंगे और असीम दुःख का अनुभव करेंगे। पर दुःख एक ऐसा भाव है जो आपकी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी बना देता है इसी लिये कुसंयोग, विरह और अभावों का मानसिक कष्ट उसे नहीं होता।

बहुतेरे श्रमिकों को देखा है कि जितना दिन भर में कमाते हैं उसे शाम तक खा लेते हैं। कल के लिये उन्हें जरा भी चिंता नहीं होती। खूब सुख और शाँति देखकर यों प्रतीत होता है कि ये दुनिया में सब से अधिक सुखी हैं। यह सुख साधन-जन्य नहीं होता वरन् सन्तोष की मस्ती में ही वे इस तरह विनोद-रत होते हैं। चिन्तायें तो उन्हें ही घेरे रहती हैं जिनकी तृष्णायें विशाल होती हैं। पर जिन्हें आज की स्थिति से संतोष और कल की चिन्ता नहीं है दुःख भला उनका कर भी क्या सकेगा? सुख का मूल तो सन्तोष ही है।

विद्वान डब्लू सीकर का मत है मनुष्य को रखने के लिये सन्तोष एक सर्वोत्तम योग्य पदार्थ है रोगी को नीरोग करने के लिये सर्वोत्तम औषधि है। सन्तोष पूर्वक लाई गई रूखी सूखी रोटी का अभाव भी शरीर में दूध जैसा होता है, कड़वाहट, चिड़चिड़ापन आदि के कारण अभीष्ट व्यक्तियों का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहेगा।

संत तुलसी दास ने इसे—

बिनु सन्तोष न काम नसाहीं।

काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥

कहकर व्यक्त किया है। बिना सन्तोष आये कामनाओं का अन्त नहीं होता। कामनाओं डडडड का सुख संभव नहीं है।

चाणक्य ने लिखा है—

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा दैतरणौ नदी।

विद्या कामद्रुधा धेनुः सन्तोषो नंदनं वनम्॥

अर्थात्—मनुष्य का विनाश क्रोध के कारण और तृष्णा वैतरणी नदी के समान है जिसका कभी अन्त नहीं होता। विद्या कामधेनु के समान है तथा सन्तोष नन्दन वन के समान हैं :-

आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें अथवा भौतिक दृष्टि से दोनों ही अवस्थाओं में सन्तोषमय जीवन का महत्व सर्वोपरि है। इससे मनुष्य के सद्गुणों का विकास होकर आत्म ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। जो इस संसार का रहस्य और निजत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें सर्वप्रथम संतोषी बनना पड़ेगा। ईश्वर निष्ठा का प्रवेश द्वार डडडड डडडड डडडड डडडड


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