जीवन में साहचर्य और एकान्त का समन्वय हो।

June 1965

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कुछ वस्तुयें इस जगत में ऐसी हैं जो अत्यधिक सुखद, आकर्षक और प्रिय होती हैं, कुछ ऐसी हैं जिन्हें मनुष्य पसन्द नहीं करता। किन्तु उपयोग की दृष्टि से प्रिय-अप्रिय दोनों ही परिस्थितियाँ आवश्यक हैं। दिन भर काम करने के उपरान्त मनुष्य जब थक कर चकनाचूर हो जाता है तो उसे निद्रादेवी की गोद में विश्रान्ति मिलती है। सोने में सुख मिला है, पर किया क्या जाय उसे भी त्यागना पड़ता है और पुनः कर्म में जुटना पड़ता है। स्वाद-युक्त भोजन, सुखद स्पर्श, प्रिय-मिलन, आदि की ओर मनुष्य की स्वाभाविक रुचि होती है किन्तु उसे यह सभी सर्वदा उपलब्ध नहीं। मिल भी जायँ तो जीवन अधिक दिन तक ठहर नहीं सकता। सुखवादी व्यक्तियों का दृष्टिकोण प्रायः ऐसा स्थूल होता है किन्तु इससे वे जीवन के एक पक्ष, बाह्य भाग को ही देख पाते हैं। आन्तरिक दृष्टि, सच्ची दृष्टि के लिये मनुष्य को संयोग और वियोग, सुख और दुःख, सुविधाओं और कठिनाइयों की संगति परमावश्यक है। यह स्थिति बनाये रखना निष्काम कर्मयोग की आवश्यक शर्त है।

अन्य परिस्थितियों की तरह मनुष्य के सामाजिक जीवन में भी यह उभयनिष्ठ स्थिति आवश्यक है। जीवन-विकास और जीवन-लक्ष्य के कार्यक्रम साथ-साथ चलें तभी मनुष्य जीवन की सार्थकता है। सदैव सामाजिक जीवन, प्रिय परिजनों में ही लिप्त, आसक्त बने रहने में स्थूल दृष्टि से सुख अधिक है किन्तु साहचर्य आत्मा के लिये कभी सर्वाधिक प्रेरणादायक होता है, और कभी-कभी आत्म-कल्याण की सर्वाधिक प्रेरणा एकान्त में रहने से मिलती है। अतएव मनुष्य का जीवन इस तरह का होना चाहिये कि वह अपने कर्त्तव्यों का पालन साहचर्य में रहकर करता रहे किन्तु आत्म चिन्तन के लिये कुछ एकान्त की भी व्यवस्था बनाये रखें ताकि वह जीवन साफल्य के आवश्यक प्रश्नों पर गहराई से छानबीन कर सके।

ऋषियों का जीवन हमारे लिये अनुकरणीय है। सब की तरह वे भी गृहस्थ थे। पारिवारिक जीवन में रहते हुये भी जो उन्होंने आत्म-तत्व की विशद व्याख्या की है, उसका कारण वही था कि वे एकान्त-चिन्तन और आत्म शोधन के लिये भी पर्याप्त समय निकालते थे। वह उत्तर जो हमें भी आन्तरिक शान्ति दे सकती है उसे बाह्य वस्तुओं में पाया जाना असम्भव है। आत्म-जगत, परमात्मा और जग को अधिक समीप से देखने के लिये कोलाहलपूर्ण वातावरण नहीं, एकान्त चाहिये, जहाँ मनुष्य निर्विघ्न, उदासीनतापूर्वक प्रश्न की गहराइयों में डूब जाय और विचारों के उमड़ते हुये समुद्र में से सत्य की सीपी ढूँढ़ कर बाहर निकल आये। आने वाली रात को सुन्दर बनाने वाले तारागणों की, ग्रह-नक्षत्र और उल्काओं की वैज्ञानिक शोध हमारे ऋषियों ने घाटियों, पहाड़ियों की निस्तब्ध निर्जनता में ही की थी।

भावनात्मक विकास के लिये नितान्त एकान्त भी अच्छा नहीं है। संगति और साहचर्य भी मनुष्य के विचारों को विशाल बनाने के लिये आवश्यक है। आत्मतत्व की खोज भले ही एकान्त में हो सकती हो किन्तु मानवोचित सद्गुणों का परिष्कार तभी सम्भव है जब वह समाज में रहकर अपनी भावनाओं को व्यावहारिकता प्रदान करे। एकान्त ईश्वर निष्ठा के लिये चाहिए पर प्रेम की सीख एकान्त में कैसे हो सकती है उसके लिए कुछ आधार भी होना चाहिये। स्नेह, उदारता, आत्मीयता, सहिष्णुता, सौम्यता आदि का विकास साहचर्य में सम्भव है। सेवा-सहानुभूति, दान-दया के मंगलदायक सत्कर्म समाज में रहकर ही सम्भव हैं। अतः साहचर्य और एकान्त में एक प्रकार का ताल-मेल होना चाहिये। दोनों के समन्वय से एक सच्ची जीवन-सिद्धि की कल्पना की जा सकती है।

तप और तितिक्षा के औचित्य से जहाँ इनकार नहीं किया जा सकता है वहाँ यह भी कहना गलत नहीं है कि सुख और भोग निरर्थक हैं। दोनों अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण स्थितियाँ हैं इन्हें स्वाभाविक और स्वस्थ साधनों से ही शान्त किया जाना चाहिये। बलपूर्वक किसी कार्य में रुचि नहीं पैदा की जा सकती। भोग की इच्छा चल रही है तो उस समय तप नहीं किया जा सकता। इसी तरह आन्तरिक प्रेरणाओं को निरस्त कर भोगवादी दृष्टिकोण रखना भी उचित नहीं है।

अवसर का उपयोग मनुष्य के हाथ की बात और उसकी सबसे बड़ी चतुराई है। मनुष्य को नियन्त्रण का कार्य करना चाहिये। उसे आत्मा की आवश्यकता के अनुरूप ही जीवन को गति देना चाहिये। जीवन निर्माण का अनुभव इतना ठोस नहीं है। अनुभव साथियों, सहचरों की संगति में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। परीक्षा के प्रश्न पत्र हल करने के लिये जिस तरह विद्यार्थी एक वर्ष तक पढ़ता है और फिर उसे तीन घन्टों में व्यक्त करते हुये अपनी सफलता या असफलता का प्रमाण-पत्र प्राप्त करता है उसी तरह एकान्त में आत्म-चिन्तन और जीवन शोध के लिये सामाजिक जीवन का अनुभव और अध्ययन जरूरी है। इसी के आधार पर आत्म-शोध और ईश्वर प्राप्ति की पात्रता प्राप्त कर पाता है।

जीवन के प्रति एक स्वस्थ, स्वाभाविक व सामान्य दृष्टिकोण स्त्री-पुरुषों के साहचर्य से निकल कर आता है। एक साथ रहने और पारस्परिक आदान-प्रदान की क्रिया जारी रखने से सच्ची गम्भीरता एवं पवित्रता आती है। आत्म-प्रेरणाओं की अधिक मात्रा एकत्र कर उनसे विधिवत् लाभ प्राप्त करने के लिये साहचर्य जरूरी है। बिलकुल एकान्त में रहकर अपनी इच्छायें भले ही शान्त करलें किन्तु वासनाओं का पूर्ण दमन इस तरह सम्भव नहीं है। अनुरूप परिस्थितियाँ प्राप्त होने पर योगियों की चित्तवृत्तियाँ तक स्खलित हो जाती हैं पर पारिवारिक जीवन में ऐसी कोई भी आशंका नहीं रहती। विषयों में अनुरक्त न हो और थोड़ा-थोड़ा समय एकान्त चिन्तन के लिये भी मिलता रहे तो आत्म-ज्ञान की उच्च-कक्षा मनुष्य स्वाभाविक तौर पर उत्तीर्ण कर सकता है।

साहचर्य पर इतना बल देने का तात्पर्य यह नहीं कि मनुष्य का जीवन पूर्णतया आसक्त और भोगी ही बन जाय। छूट और स्वाधीनता, साहस और शक्ति की परीक्षा के लिये है जिनमें उत्तीर्ण होने का विश्वास मनुष्य कुछ क्षण एकान्त में व्यतीत करने से ही प्राप्त कर सकता है। उस समय यदि स्थिर चित्त रहकर आत्मा के विषयों को मनन कर सकें, काम, क्रोध, लोभ, और मोह के रागात्मक भाव यदि मन में न आयें तो ही यह मानना चाहिये कि हम ईश्वर प्राप्ति या जीवन-लक्ष्य सिद्धि के अधिकारी हैं। किन्तु यदि मन उस अवस्था में जाकर भी विचलित हो तो केवल एकान्त में रहना छल मात्र है। इस स्थिति का सुधार पुनः व्यावहारिक जीवन में आकर भावनाओं के परिष्कार द्वारा ही किया जा सकता है।

इस प्रकार का अनुभव मस्तिष्क और चरित्र के विकास के लिये निताँत आवश्यक है। व्यक्ति का विकास पूर्ण रूप से उसको प्राप्त प्रेरणाओं पर ही निर्भर है इसलिये एक अत्यन्त स्वस्थः, सुदृढ़, तथा विवेकपूर्ण सामाजिक स्थिति की तो जरूरत है पर पूर्ण रूप से असामाजिक रहकर सच्चे विकास की उतनी सुविधायें प्राप्त नहीं होती। प्रेरणाएँ सहवास से मिलती हैं। संगति से मनुष्य का जीवन निर्मित होता है अतः उसे भले लोगों का साहचर्य प्रत्येक अवस्था में चाहिये ही। इसके बिना मनुष्य का सर्वतोन्मुखी विकास कठिन रहेगा।

साहचर्य में इच्छाओं की मधुरता का आनन्द मिलता है, पर इच्छायें अपने आप में अतृप्त हैं। उनमें एक स्वाभाविक कमी यह भी है कि वे क्रमिक रूप से बढ़ती जाती हैं, सम्भवतः इसीलिये उनसे आँशिक सुख का ही अनुभव हो पाता है। इस अवस्था में यदि मनुष्य का दिमागी सन्तुलन बिगड़ जाय तो उसका पतन बहुत ही दुःखद स्थिति में होता है। भौतिक सुखों की लालसा को ही बढ़ाते जाना तथा आध्यात्मिक भूख का उपचार न करने का परिणाम दुःख और विपत्तियों के रूप में प्रकट होता है। आत्मा को वास्तविक सुख और सच्ची शान्ति आध्यात्मिकता में ही मिलती है। इसके लिये इच्छाओं के माधुर्य का परित्याग कर भावनाओं की उच्च स्थिति प्राप्त करना जरूरी है। आन्तरिक प्रसन्नता, विचार एवं पारस्परिक मेल मिलाप या क्रिया-संघर्ष से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिये एकान्त भी चाहिये। यह आवश्यकता शरीर को निद्रा द्वारा स्वस्थ बनाने के समान ही है। एकान्त में विचारों को एक ही स्थिति में छोड़ देने से मानसिक-संघर्ष रुकता है जिससे मनुष्य को हलकापन महसूस होता है। आध्यात्मिक जीवन को नियमित रखने के लिये अतः एकान्त भी बहुत आवश्यक है।

स्वास्थ्य की सुरक्षा का सामान्य नियम है कि शक्ति संवर्द्धन के लिये आहार भी ग्रहण करें और भीतरी अवयवों की सफाई के लिये कभी-कभी आहार का परित्याग भी करते रहें। दोनों प्रक्रियायें समान रूप से आवश्यक हैं जिसे छोड़ेंगे उधर ही गड़बड़ी पैदा होगी। आध्यात्मिक जीवन को नियमित रखने के लिये गुण-विकास की क्रिया साहचर्य में रहकर पूरी की जाती है। आत्मचिन्तन के नितान्त आन्तरिक, आरम्भिक और अलौकिक सत्य तक पहुँचने के लिये कुछ समय एकान्त में भी बिताना चाहिये। इसी तरह के जीवन क्रम से अपनी पवित्रता और शान्ति को स्थायी रख सकना सम्भव होता है।

मनुष्य की जिन्दगी उमंगों की एक दरिया है। नदी की बाढ़ की तरह भावनाओं में उत्तेजना भी आनी स्वाभाविक है पर यदि इन भावनाओं को नियन्त्रण में न रखा जाय और आन्तरिक पवित्रता को अक्षुण्ण न रखा जाय जो व्यक्तिगत जीवन में अनेकों बुराइयाँ पैदा होंगी। भावनाओं को धारावाहिक रूप देने के लिये और अपवित्रताओं से संघर्ष करने के लिये मनुष्य के जीवन में अच्छी-बुरी दोनों परिस्थितियों का समन्वय जरूरी है। हम सुख भोगों पर दुखों का सहर्ष स्वागत करने के लिये तैयार रहें, सुविधायें प्राप्त करें पर कठिनाइयों से जूझने की हिम्मत भी रखें। समाज और साहचर्य में रहकर जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाने का क्रम जारी रहे और एकान्त में आत्म-चिन्तन, आत्म निरीक्षण की साधना भी चलती रहे तो मनुष्य स्वस्थ और स्वाभाविक जीवन जीते हुये भी अपना जन्म उद्देश्य पूरा कर सकता है, शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकता है।


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