रामायण पारायण करिये पर उसे जीवन में उतारिये भी।

June 1965

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वेद भारतीय धर्म के मूल हैं। हिन्दू संस्कृति का आदि स्रोत उन्हीं से प्रवाहित होता है बाद में प्रस्तुत सम्पूर्ण शास्त्र उनकी व्याख्या मात्र हैं। सैद्धान्तिक जीवन की प्रेरणा देने वाले धर्म ग्रन्थों की, शास्त्रों की हमारे यहाँ कमी नहीं है किन्तु इस युग के अनुरूप व्यावहारिक जीवन की शिक्षा देने वाले ग्रन्थों में रामायण से बढ़कर उपयोगी दूसरा ग्रन्थ नहीं है। इसकी व्याख्यायें इतनी सरल हैं कि शिक्षित अशिक्षित सभी उसे आसानी से समझ लेते हैं। भाषा और गति की दृष्टि से वह रोचक है और कथा का प्रवाह इतना मधुर और सुव्यवस्थित है कि पाठक अन्त तक उसे रुचि, आह्लाद, और जिज्ञासापूर्वक पढ़ता है। इसमें कहीं नीरसता नहीं है।

रामायण की इस उपयोगिता को देखते हुए उसके पारायण और अखण्ड पाठ लाभ-दायक तो हैं किन्तु उसका वास्तविक उपयोग तब है जब मनुष्य उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करे। केवल पाठ कर जाना उतना आवश्यक नहीं जितना उसे पढ़ना, पढ़कर उस पर चिन्तन करना और उसकी व्यावहारिक बातों पर आचरण करना महत्वपूर्ण है। रामायण को जीवन में उतारने से मनुष्य अधिक सरलतापूर्वक धर्म-तत्व का अवगाहन कर सकता है, वही कारण है कि अनेक धार्मिक नेता, सुधारक तथा संतजन रामायण के माध्यम से ही लोगों को सन्मार्ग की प्रेरणा देते हैं। ऐसे पाठ, पारायण तथा प्रवचनों का लाभ निःसंदेह बहुत अधिक है पर वह मिलेगा तभी जब उन्हें जीवन में अवतरित होने का अवसर भी मिलेगा।

अध्यात्म के प्रत्येक आवश्यक एवं उपयोगी अंग की विवेचना रामायण में हुई है। वह एक तरह का सर्वांगपूर्ण धर्मग्रन्थ है और मनुष्य जीवन को सुखी, समुन्नत तथा युक्त बनाने वाले सभी सिद्धान्तों का उसमें समावेश है।

भारतीय शैली के अनुरूप ही कथा का प्रारम्भ ईश वन्दना से होता है। परमात्मा के स्मरण, चिन्तन और गुण कीर्तन के साथ किसी कार्य का शुभारम्भ करने से मनुष्य को सच्चा आत्म-बल मिलता है। वह बुराइयों से सावधान होता है और साँसारिक बन्धनों में लिप्त न होकर सम्पूर्ण कर्त्तव्यों का पालन एक दार्शनिक की भाँति करता है। रामायण का प्रारम्भ इसी शैली में हुआ है। यह व्यावहारिक प्रशिक्षण है कि प्रत्येक शुभ कर्म में पहले ईश्वर-आराधना की जाये ताकि मनुष्य का कदम दोषपूर्ण ने हो जाय। वह स्थिरतापूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चले।

आस्तिकता मनुष्य जीवन की प्रारम्भिक शर्त है किन्तु उसका ज्ञान किसी को स्वयमेव नहीं होता। कविवर तुलसी दास जी ने सत्संग को ईश्वरीय ज्ञान का माध्यम बताया है। उन्होंने लिखा है :—

सुनि आचरज करै जनि कोई।

सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

जलचर थलचर नभचर नाना।

जे जड़ चेतन जीव जहाना॥

मति कीरति गति भूति भलाई।

जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई॥

सो जानव सत्संग प्रभाऊ।

लोकन्हुँ वेद न आन उपाऊ॥

सत संगत मुद मंगल मूला।

सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

अर्थात्—सत्संग की महिमा पर जो प्रकाश डाला जाता है वह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं हैं। सत्संग का महत्व असाधारण है। जल, थल या आकाश में रहने वाले किसी भी प्राणी को बुद्धि, यश, मोक्ष, वैभव तथा भलाई की प्राप्ति केवल संतजनों के सान्निध्य से ही संभव है। सत्संग सब सिद्धियों का दाता है इससे बढ़कर और कुछ दूसरा उपाय नहीं है।

सठ सुधरर्हि सतसंगति पाई ।

पारस परसि कुधातु सुहाई ॥

विधिवश सुजन कुसंगत परहीं ।

फनि मनि समनिज गुण अनुसरही ॥

अर्थात्—इस संसार में स्वतः कोई बुरा नहीं, संयोग वश लोग बुरी संगति में पड़कर सद्गुणों का परित्याग कर देते हैं। वे सत्संगति से फिर वैसे ही ठीक हो जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कम मूल्य की धातु भी सोना बन जाती है।

मनुष्य को इस तरह की उच्च स्थिति मिल सकती है। संतजनों के प्रभाव से जब ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश अन्तःकरण में प्रस्फुटित होता है तब उसकी शक्ति और सीमा ब्रह्ममय हो जाती है। पुरुष स्वयं ही वृहद् शक्ति पुँज है किन्तु वह स्वार्थवश, मायावश, संकीर्णतावश अल्पशक्ति वाला, सब प्रकार से दीन और दुःखी बना हुआ है। माया कोई साकार वस्तु नहीं वरन्-

मैं अरुमोर तोर तैं माया।

जेहि सब कीन्हें जीव निकाया॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई।

सो सब माया जानेहु भाई॥

एक दुष्ट अतिसय दुख रुपा।

जाबस जीव परा भव कूपा॥

एक रचइ जग गुन बस जाकें।

प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥

अर्थात्—इस संसार में “मैं” और “मेरे” का अभिमान ही माया है, इसी के वश होकर जीव बन्धनों में पड़ते और दुःख भोगते हैं। एक व्यक्ति यह समझता है कि यह जो कुछ है उसका कर्त्ता मैं हूँ, इस अभिमान के कारण संसार में जो कुछ है वह सब उसके लिये बन्धन रूप बन जाता है। दूसरा यह समझता है कि यह जो कुछ है वह ईश्वरीय प्रसाद है। वह व्यक्ति संसार को कल्याण रूप में देखता और सुखोपभोग प्राप्त करता है।

उपरोक्त पंक्तियों में निष्काम कर्म योग की गूढ़ व्याख्या हुई है। अर्थात् मनुष्य उन सभी मंगल कार्यों को करे जिससे लोक हित होता हो किन्तु उसे कर्तापन का अभिमान नहीं होना चाहिये अन्यथा वह कर्म के फल से बँध जायेगा और दुःख भुगतता रहेगा।

इसलिये धर्मवान् बनो ताकि संसार में लिप्त न हो, योग के द्वारा ज्ञान प्राप्त करो इससे मोक्ष मिलेगा और परमात्मा के प्रति भक्ति जागृत होगी। ईश्वर की साक्षी प्राप्त कर लेना, भक्त और शरणागत होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। भगवान् राम ने भक्ति के साधनों और उसके प्रभाव पर प्रकाश डालते हुये बताया—

प्रथमहि विप्र चरन अति प्रीती।

निज निज कर्म निरत श्रुति नीति॥

एहिकर फल पुनि विषय विरागा।

तब मम धर्म उपज अनुरागा॥

श्रवणादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं।

मम लीला रति अति मन माहीं॥

संत चरण पंकज अति प्रेमा।

मन क्रम वचन भजन दृढ़ नेमा॥

गुरु पितु मातु बंधु पति देवा।

सब मोहिं कहँ जाने दृढ़ सेवा॥

काम आदि मद दंभ न जाकें।

तात निरन्तर बस मैं ताकें॥

वचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निष्काम।

तिन्ह के हृदय कमल महँ करऊँ सदा विश्राम॥

अर्थात्—”ब्राह्मण [तत्व वेत्ता] का समागम प्राप्त करना, अपने-अपने कर्म में नीति धर्म के अनुसार लगे रहना ही साँसारिक विषयों से दूर रहने का उपाय है। ऐसा करने से धर्म के प्रति श्रद्धा व प्रेम बना रहता है। जिससे श्रवण, मनन आदि ईश्वर-चिन्तन में मनुष्य की बुद्धि सुख का अनुभव करती है। इस तरह मेरी उपासना करते हुये जो लोग गुरुजन, माता, पिता, भाई, पत्नी एवं देवताओं की समुचित सेवा करते रहते हैं, ऐसा करते हुये जिन्हें तनिक भी अभिमान नहीं होता वे निष्काम भाव से मुझे ही भजते हैं, तब मैं भी सदैव उन्हीं के हृदय में विश्राम किया करता हूँ। सदैव उस कर्मयोगी के अन्तःकरण में ही ओतप्रोत रहता हूँ।”

इसके विपरीत यदि मनुष्य धर्म से विमुख होता है और स्वार्थ को, अपने सुख को ही प्रमुखता देता है तो उसे दुःख मिलता है। तुलसी दास जी कहते हैं :—

इमि कुपंथ पग देत खगेसा ।

रह न तेज, तनु बुद्धि लव लेसा॥

जो बुरी राह चलते हैं उनके शरीरों का तेज नष्ट हो जाता है और बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है इसी से उन्हें इस संसार में दुःख ही दुःख मिलता है।

उपरोक्त उद्धरणों में मनुष्य जीवन में धर्म की आवश्यकता एवं बुराइयों के प्रति सावधान रहने की प्रेरणा दी है। इसे व्यावहारिक जीवन में ढालने वाले व्यक्ति को साँसारिक सुखों की भी कोई कभी न रहेगी यह सुनिश्चित है।

अब अवगुणों पर प्रकाश डालते हैं। उनसे दूर रहने के लिये ईश्वर निष्ठा की आवश्यकता प्रतिपादित की है—

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरुलोभ।

मुनि विज्ञान धाम मन करहिं निमिष महुँ क्षोभ॥

लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केवल नारि।

क्रोध के परुष वचन बल मुनिवर कहहिं विचारि॥

क्रोध मनोज लोभ मद माया।

छूटहि सकल राम की दाया॥

अर्थात्—काम, क्रोध और लोभ यह तीन ही दुष्ट विकार हैं यही लोगों के मनों को क्षण भर में विभ्रमित कर देते हैं। वासना से दीनता उत्पन्न होती है, क्रोध के कारण कठोर वचन निकलते हैं। यह सब दुःख और बन्धन रूप हैं। इनसे छुटकारा पाने का उपाय ईश्वर की शरणागति ही है और उनके लिये यह मनुष्य शरीर बन्धन का कारण नहीं होता जो—

षट विकार जित अनघ अकामा।

अचल अकिंचन सुचि सुख धामा॥

अमित बोध अनीह मित-भोगी।

सत्यसार- कवि कोविद जोगी॥

सावधान मानद मद हीना ।

धीर धर्म गति परम प्रवीना ॥

गुनागार संसार दुख रहित विगत संदेह।

तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥

साधु पुरुषों के लक्षण वर्णन करते हुये अरण्य काण्ड में तुलसी दास जी ने लिखा है :—

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं।

पर गुन सुनत अधिक हरपाहीं॥

सम सीतल नहिं त्यागाहिं नीती।

सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती॥

जप तप व्रत दम संजम नेमा।

गुरु गोविंद विप्र पद प्रेमा॥

श्रद्धा क्षमा मयत्रो दाया।

मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥

विरति विवेक विनय विग्याना।

बोध जथारथ वेद पुराना।

दंभ मान मद करर्हि न काऊ।

भूलि न देहि कुमारग पाऊँ॥

उन्हें अपनी प्रशंसा सुनने से हर्ष नहीं होता। दूसरों की प्रशंसा से वे सुखी होते हैं। सरल स्वभाव, सबसे प्रेम और नीति का पालन करते हैं। जप, तप, व्रत, दुर्गुण निवारण संयम-नियम के साथ, गुरुदेव ईश्वर और ब्राह्मणों से प्रेम करते हैं। वे श्रद्धावान, क्षमावान, मित्रवान तथा दयावान् होते हैं। विवेकी, विनम्र वैरागी तथा विज्ञानी होते हैं। स्वाध्याय में उनकी रुचि होती है। उन्हें दंभ पाखंड नहीं आता। वे भूलकर भी कुमार्ग में पाँव नहीं देते।

जीवन शोधन का उपदेश रामायण में अनेक स्थलों पर मिलता है। तुलसी दास की यह शैली भी कम मोहक नहीं है। बड़े ही सरल सुस्पष्ट शब्दों में वे बताते हैं कि किस तरह दुर्गुणों द्वेषों के स्थान पर सद्गुणों का अभ्यास किया जाय। किष्किन्धा काण्ड में ऐसा ही वर्णन है जिसमें लोभ को सन्तोष से, मद मोह को सहृदयता से, ममता को ज्ञान से जीतने की प्रेरणा दी है और दुष्कर्मों के प्रभाव का भी वर्णन करते हैं लिखा है—

उदित अर्गास्त पंथ जल सोखा।

जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥

सरिता सर निर्मल जल सोहा।

संत हृदय जस गत मद मोहा॥

रस रस सूख सरित सर पानी।

ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥

जानि शरद ऋतु खंजन आये।

पाइ समय जिमि सुकृत सुहाये॥

पंक न रेनु सोह असि धरनी।

नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥

जल संकोच बिकल भई मीना।

अबुध कुटुम्बी जिमि धन हीना॥

चक्रवाक मन दुख निमि पेखी।

जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी॥

भूमि जीव संकुल रहे गये सरद रितु पाइ।

सदगुरु मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥

उपमाओं के माध्यम से इस तरह की शिक्षा न केवल पाठक का हृदय मोह लेती है वरन् उससे अन्तःकरण में ध्यान का अभ्युदय होता है। यद्यपि विचार और व्यवहार में न लाने से वह आदर्श चिरस्थाई नहीं रह पाता। पर यदि इन प्रेरणाओं को व्यवहृत होने का अवसर मिले तो मनुष्य-जीवन की समुन्नत शैली का प्रवाह रामायण में ही मिल जाता है, अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं होती। अध्यात्म जिन सिद्धान्तों की प्रेरणा देता है ठीक वही रामायण में भी प्रतिपादित हुआ है। जिस तरह अध्यात्म बुराइयों की निन्दा करता और भलाई का समर्थन करता है वैसा ही रामायण में भी कथोपकथनों के माध्यम से वर्णन हुआ है। दुष्कर्म निरत मनुष्य को जीवित ही मृत्युतुल्य बताया है। लंकाकाण्ड में अंगद और रावण के संवाद में आता है :—

कौल काम बस कृपिन बिमूढ़ा।

अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥

सदा रोग बस संतत क्रोधी।

विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी॥

तनु पोषक, निंदक अघ खानी।

जीवन शव सम चौदह प्राणी॥

अर्थात्—दुराचारी, विषयी, कृपण, मूर्ख, दरिद्र, दुष्कर्मी, रोगी, क्रोधी नास्तिक, दुर्जन, निंदक पापी और केवल अपना ही पेट भरने वाले प्राणी जीवित रहते हुये भी मृततुल्य हैं अर्थात् उनसे व्यक्ति , समाज और राष्ट्र का कोई हित नहीं होता। वे केवल भार रूप ही इस संसार में जीते और मर जाते हैं।

इस तरह मनुष्य-जीवन के सर्वांग समन्वय युक्त स्वरूप का वर्णन रामायण में मिलता है। गूढ़ दार्शनिक तत्वों के विश्लेषण के साथ-साथ व्यावहारिक जीवन के आचरणों पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जिसकी व्याख्या रामायण में न हुई हो। स्त्रियों के लिये पग-पग पर उपदेश मिलते हैं। श्रेष्ठ साध्वी नारियों के मुँह से उन्हें गृह-कर्त्तव्य और पातिव्रत धर्म की शिक्षा दी जाती है। उन्हें नारियाँ अपने जीवन में ढालें तो वे घरों का वातावरण स्वर्गीय बना सकती हैं। ऐसा ही एक प्रसंग अत्रि ऋषि के आश्रम का है। महासती अनुसुइया जी ने सीता जी को समझाया—

कह रिषि बधू सरस मृदुबानी।

नारि धर्म कछु ब्याज बखानी॥

मातु पिता भ्राता हितकारी।

हितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥

अमित दानि भर्ता वयदेही।

अधम सो नारि जो सेव न तेही॥

उत्तम के अस बस मन माहीं।

सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं॥

मध्यम पर पति देखइ कैसे।

भ्राता पिता पुत्र निज जैसे॥

बिनु श्रम नारि परम गति लहई।

पतिव्रत धर्म छाडि छल गहई॥

इस तरह रामायण में मनुष्य और उससे सम्बन्धित कोई भी क्षेत्र नहीं जिसकी समुचित व्याख्या न की गई हो। अन्य ग्रन्थों की ही भाँति वह हिन्दुओं का प्रिय धर्म ग्रन्थ है इसमें किंचित मात्र संदेह नहीं है और उसे हिन्दू समाज में जो स्थान मिला वह उसके व्यक्तित्व के अनुरूप ही है। पर उसका जो लाभ व्यावहारिक जीवन में होना चाहिये वह नहीं दिखाई देता तो निराशा होती है। केवल पाठ और पारायण से वह लाभ नहीं मिलता जो अध्यात्म चाहता है। रामायण यदि आध्यात्मिक जीवन का प्रशिक्षण करने वाला ग्रन्थ है तो उससे मनुष्य के जीवन में प्रकाश भी आना चाहिये। यह संभव भी है किन्तु तभी जब कि उसे व्यवहार में उतरने का अवसर मिले। रामायण की शिक्षा है कि ऐ मनुष्य! तू राम बनने का प्रयत्न कर। राम के आदर्शों को जीवन में ढालने का प्रयत्न कर। ऐसा कर सका तो सुखपूर्वक उस स्थिति को प्राप्त कर लेगा जिसके लिये नर-तनु धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।


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