वर-वधू का चुनाव कैसे करें?

June 1965

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विवाह मानव जीवन की एक बहुत बड़ी घटना है। इससे मनुष्य के जीवन में एक बहुत बड़ा मोड़ आता है। विवाह सम्बन्धों पर जन साधारण के जीवन की सफलता, असफलता, सुख, शान्ति, उन्नति, विकास आदि निर्भर करते हैं। पति पत्नी का ठीक-ठीक चुनाव होगा तो वे एक दूसरे के लिए सहायक सिद्ध होंगे। उनका जीवन आनन्दमय रहेगा। दोनों अपने सम्मिलित प्रयत्नों से उन्नति की ओर अग्रसर हो सकेंगे। इसके विपरीत वर कन्या के चुनाव में असमानता, अनियमितता रहेगी तो, दोनों का जीवन दूभर हो जायगा। उनके जीवन में नारकीय वातावरण बन जायगा। परस्पर एक दूसरे के लिए बोझ बन जायेंगे। उन्नति के लिए बाधक सिद्ध होंगे। इसलिए वर कन्या का ठीक ठीक चुनाव एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी, सूझबूझ का काम है। इसमें की गई तनिक-सी भूल दोनों के जीवन को बिगाड़ देती है।

एक समय था जब हमारे यहाँ विवाह वर कन्या की बहुत छोटी अवस्था में ही कर दिया जाता था। इससे एक लाभ था कि कन्या बचपन से ही पति गृह में रहने की और वहाँ के वातावरण के अनुकूल बनने की अभ्यस्त हो जाती थी। लेकिन इससे लड़के, लड़कियों के जीवन विकास की सम्भावनायें ही प्रायः नष्ट हो जाती थीं। लड़कियाँ केवल घर की व्यवस्था करने की मशीन मात्र बन कर चहारदीवारी में घिरी रहती थी, लड़के भी असमय में ही गृहस्थी के भार से दब जाते थे।

आज की बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों व्यवस्थाओं, मान्यताओं के कारण पुराने आधार प्रायः अनुपयुक्त होते जा रहे हैं। शिक्षा, औद्योगिक विकास, संसार की विभिन्न संस्कृतियों के सम्मेलन के कारण विवाह सम्बन्धों के आधार भी बदलते जा रहे हैं। टूटती हुई सम्मिलित परिवार व्यवस्था के कारण यह आवश्यक हो गया है कि लड़के लड़की योग्य और समर्थ हों अपना भार स्वयं वहन करने में। बढ़ते हुए बुद्धिवाद, विचारशीलता के कारण यह भी आवश्यक हो गया है कि लड़के-लड़की एक दूसरे को समझा कर विवाह सूत्रों में बँधे। अन्यथा अब वह समय नहीं रहा जब कि एक के अयोग्य होने पर भी दाम्पत्य जीवन-निभता रहता था। आजकल पति-पत्नी का मतभेद, कलह, अशान्ति, तलाक, आत्महत्या तक के परिणाम उपस्थित कर देता है। हमारे यहाँ अभी यह प्रणाली चल रही है कि विवाह सम्बन्ध माता पिता या अभिभावकगण तय कर लेते हैं लेकिन इसके दूरगामी परिणाम निकलते हैं और उनके दाम्पत्य जीवन की गाड़ी का चलना मुश्किल हो जाता है। पति पत्नी के स्वभाव, विचार, रहन-सहन में एकरसता नहीं रहती। इसी तरह बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सभ्यता संस्कृति की मर्यादाओं को भूल कर विदेशी परम्पराओं का अनुगमन करते हैं। लड़के लड़कियों में तनिक प्रेम हुआ कि विवाह का प्रस्ताव पैदा हुआ। चटपट विवाह भी हो गये। लेकिन ऐसे प्रेम विवाहों की सफलता अभी तक संदिग्ध रही है। अधिकाँश का परिणाम तलाक और पारस्परिक संघर्ष के रूप में ही मिलता है। इसी तरह विवाह सम्बन्धों में वर वधू के चुनाव के आधार, मान्यतायें बहुत कुछ बदल गई हैं किन्तु अभी इन्हें स्पष्ट और सर्वसम्मत नहीं माना जा सकता। पुरानी परम्पराओं का ही न तो आँख मींच कर अनुसरण किया जा सकता है, न नई मान्यताओं को ही एक दम अपनाया जा सकता है। वर कन्या के चुनाव में हमें मध्यम मार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा। प्राचीन और अर्वाचीन मान्यताओं को ध्यान में रखकर इस पर निर्णय करना होगा।

क्या वर कन्या का चुनाव माँ बाप अथवा अभिभावकगण करें या यह प्रश्न केवल लड़के लड़कियों पर छोड़ दिया जाय? ये दोनों ही व्यवस्थायें अपने आप में अपूर्ण हैं। क्योंकि गृहस्थ की गाड़ी लड़के लड़कियों पर ही चलेगी माँ बाप पर नहीं। इसलिए उन्हें एक दूसरे को समझने बूझने की आवश्यकता है। विवाह सूत्र में बँधने से पूर्व विवाह का उद्देश्य, महत्व, उसका उत्तरदायित्व समझने की क्षमता भी उनमें होनी चाहिए। जब माँ बाप अपनी रुचि के अनुसार वर कन्या का चुनाव कर देते हैं तो आगे चलकर इनमें से बहुतों का दाम्पत्य जीवन विषाक्त हो जाता है, पति पत्नी के स्वभाव, संस्कार, विचार, भावनायें आगे चलकर नहीं मिलते। लेकिन यह भी निश्चित है कि अनुभवहीन लड़के लड़की अक्सर भावनाओं के आवेग में बह जाते हैं वे एक दूसरे को नहीं समझ पाते और गलत निर्णय कर डालते हैं। और इस तरह के विवाह भी आगे चलकर परिणाम में अहितकर ही सिद्ध होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों के मध्य का मार्ग अपनाया जाय।

लड़के लड़कियों को परस्पर एक-दूसरे को समझने बुझने का अवसर दिया जाय यह आवश्यक है। यह अच्छा है कि वे एक दूसरे का समझलें, जानलें। परस्पर के विचार आदर्शों से परिचित हो जायें किन्तु यह स्वतन्त्र न होकर माता पिता की सहमति से ही होना चाहिए।

इस सम्बन्ध में देवदास गाँधी (महात्मा गाँधी के पुत्र) के विवाह की घटना प्रेरणास्पद है। निकट संपर्क में रहने पर देवदास जी और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पुत्री में प्रेम हो गया, जो आगे चलकर दोनों के अभिभावकों के समक्ष विवाह प्रस्ताव के रूप में आया। गाँधी जी और राजाजी ने इस सम्बन्ध में विचार करके निर्णय किया कि पाँच साल तक यदि इनका प्रेम स्थायी रहा तो विवाह कर देंगे। दोनों ने पाँच साल तक प्रतीक्षा की और पवित्र जीवन बिताया। इस परीक्षा के बाद भी जब इनका प्रेम स्थायी पाया गया तो विवाह कर दिया गया। इसी तरह जब तक प्रेम की परीक्षा न हो जाय, वह आन्तरिक और शुद्ध न हो तब तक प्रेम विवाहों को टाल देना ही श्रेयस्कर होता है। स्मरण रहे भावावेश का नाम प्रेम नहीं है।

ऐसे विवाह तो हमारी संस्कृति और आदर्शों तथा भावी दुष्परिणामों की दृष्टि से सर्वथा त्याज्य हैं जिनमें अनुभवहीन बालक बालिकायें माँ बाप की नजर बचाकर अपने पड़ोस में या कहीं संपर्क में आने पर परस्पर प्रेम कर बैठते हैं। इससे कई लड़कियाँ अनघड़, असंस्कृत, आवारा लड़कों के प्रेम में फँस जाती हैं तो कई लड़के चरित्रहीन, उच्छृंखल लड़कियों के चक्कर में उलझ जाते हैं।

विवाह सम्बन्धों में धन को कभी महत्व न दिया जाय। वर वधू का चुनाव इस दृष्टि से करना कि वर अधिक धन सम्पत्तिवान् है, या वधू के यहाँ से दहेज अधिक मिलेगा तो यह बड़ी भूल है। धन को प्रतिष्ठा देकर वर वधू के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वास्थ्य आदि के प्रति उपेक्षा बरतना उनका भावी जीवन नष्ट करना है। क्योंकि धनवान होकर भी लड़का चरित्रहीन, लम्पट, बदमाश, गुण्डा हो सकता है। उधर अधिक दहेज का लोभ देकर कई शारीरिक दृष्टि से अयोग्य, खराब स्वभाव की लड़कियाँ सरलता से ब्याही जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त धनी घरानों की लड़कियों के रहन सहन का स्तर, उनकी माँगें बहुत महँगी होती हैं जिन्हें पूरा करने की गम्भीर समस्या आगे चलकर पैदा हो आती है। अतः वर वधू के चुनाव में धन का मूल्यांकन गलत है। इस सम्बन्ध में इतना तो देखना चाहिए कि लड़का खाता कमाता हो, अपने जीवन निर्वाह में सक्षम हो। इससे अधिक माली हालत को गौण समझना चाहिए।

विवाह कब किया जाय? इसका एक ही उत्तर है कि जब लड़के लड़की सयाने हो जायें, अपने जीवन, उत्तरदायित्व का भार स्वयं वहन करने में समर्थ हो जायें। वयस्क हों किन्तु अपना भार स्वयं उठाने में असमर्थ हों तो ऐसे लड़के लड़कियों का विवाह भी आज के युग में अनुपयुक्त ही है। बाल विवाह, अल्प वयस्कों के विवाह के लिए तो कोई गुंजाइश ही नहीं है। इस तरह के विवाह तो सभी भाँति बुरे हैं।

वर वधू के चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण बात स्वास्थ्य के विषय में देखने की है। दोनों में से कोई भी शारीरिक दृष्टि से अयोग्य अथवा रुग्ण हो तो विवाह नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे उन दोनों का ही नहीं दो परिवारों का जीवन दुःखद बन जाता है। उनकी सन्तान भी रुग्ण पैदा होती है जिससे इन बच्चों को तथा सारे समाज को उनके भार का वास ही सहना पड़ता है। शारीरिक या मानसिक दृष्टि से अशक्त अक्षम लोगों को विवाह नहीं ही करना चाहिए। हर बालक का विवाह अवश्य ही किया जाना चाहिये यह मनुष्य की भारी भूल है। जो गृहस्थ की जिम्मेदारियों को शारीरिक मानसिक या आर्थिक कारणों से ठीक तरह उठा सकने में असमर्थ है उनके लिए विवाह से बचे रहना, अविवाहित रहकर आनन्द से जीवन यापन करना ही उचित है।


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