भोजन का जीवन तत्व जला मत डालिये

June 1965

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कच्चे भोजन में जो जीवन तत्व होता है वह तले-उबले, सूखे-भुने, पकाये और तपाये पदार्थों में सम्भव नहीं, यह सर्वमान्य व निरापद तथ्य है। खाद्य पदार्थों को आग पर पकाने से उसके प्रकृति दत्त तत्वों में कमी आ जाती है। कई बार तो एक तरह से सम्पूर्ण जीवन तत्व ही समाप्त हो जाता है। तीव्र आँच में औटाया हुआ दूध खोया बना लेने पर कितना गरिष्ठ, भारी व पाचन क्रिया को खराब करने वाला होता है इसे सभी जानते हैं। अधिक मिठाई सेवन का परिणाम शरीर की स्थूलता से प्रकट होता है। भुने चने, घी, तेल में तले व्यंजन एक अंश तक स्वाद की प्रक्रिया तो पूरी कर देते हैं किन्तु अन्ततोगत्वा मल-विकार बढ़ा देने, पेट के श्लैष्मिक संयंत्रों को शिथिल कर देने जैसी प्रक्रियाओं के अतिरिक्त कुछ और हाथ नहीं आता। आहार की इस कलापूर्ण प्रवृत्ति, व्यंजन बनाने की पद्धति के कारण लोग किसी भी खाद्य को नैसर्गिक रूप में ग्रहण नहीं कर पाते।

दूसरे अन्य जीव जन्तु जो प्रकृति के अधिक सान्निध्य में रहते हैं अपना आहार पूर्ण प्राकृतिक रूप में लेते हैं और उस उदरस्थ आहार का तीन चौथाई से लेकर 90 प्रतिशत तक पचा डालते हैं। अधिक कठोर, शारीरिक श्रम करने वाले मनुष्य भले ही 50 प्रतिशत अन्न पचा लेते हों अन्यथा आज की स्थिति ऐसी हो गई है जिसमें 70-80 प्रतिशत तक जीवन तत्व मल के रूप में निरर्थक चला जाता है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से कच्चे पदार्थों का बड़ा महत्व है। सच तो यह है कि हम जिसे कच्चा भोजन कहते हैं प्राकृतिक साधनों द्वारा ग्रहण करने योग्य पहले ही बना दिये जाते हैं। फल डाल से तब तक नहीं टूटता जब तक उसका रस पूर्ण परिपक्व नहीं बन जाता, सूर्य के ताप द्वारा पूर्ण रूप से पक जाने के बाद ही फसलें काटी जाती हैं। टमाटर, मोसम्मी, सन्तरा, अनार, अमरूद आदि जब तक पक नहीं जाते पेड़ से बँधे रहते हैं। इस प्रकार के अन्न, दालें तथा फलों का जीवन तत्व ज्यों का त्यों बना रहता है।

कच्चे भोजन की सेवन विधि को सर्वांगपूर्ण आहार-क्रिया कहें तो अत्युक्ति न होगी। इसे स्वाभाविक आहार भी कहा जा सकता है। किन्तु फिर भी इसे व्यावहारिक रूप में शतशः स्थान दे पाना आज की परिस्थितियों को देखते हुए कठिन दिखाई पड़ता है। बिना पकाये रोटी नहीं खाई जा सकती। बिना पीसे गेहूँ नहीं खाया जाता। यदि कोई ऐसा साहस करे भी तो उसे अधिक दिन निर्वाह नहीं कर सकता। इसलिये सही मार्ग यही हो सकता है कि प्राकृतिक आहार और उसकी पाक पद्धति में समन्वय बना रहे। कुछ वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें बिना किसी परिवर्तन किये ग्रहण कर सकते हैं तो उन्हें वैसे ही रूप में लें या कम से कम परिवर्तन के बाद ले सकते हैं। जैसे गाय या बकरी का दूध है। इसे यदि धारोष्ण रूप में पीलें तो उस समय उसका वही तापमान होता है जो “पास्ट्यूरीकरण” क्रिया से अथवा लगभग 50-60 सेन्टीग्रेड तापक्रम तक करने से होता है। ऐसे दूध में रोगों के संक्रमण की बिलकुल सम्भावना नहीं रहती। प्राकृतिक रूप से पके पदार्थों में रोग के कीटाणु नहीं होते। उनका आविर्भाव तो सड़ जाने या बासी हो जाने पर ही होता है।

खाद्य पदार्थों में शक्ति और स्निग्धता, प्राण और लावण्य उसमें रहने वाला रस अर्थात्-जल तत्व होता है। यह जल वृक्ष अपनी जड़ों के द्वारा धरती के गर्भ से चूस-चूस कर फल की कोशिकाओं में जमा करता रहता है। यह पके हुये फलों का सौंदर्य है। सन्तरा तभी तक अच्छा लगता है जब तक उसकी कोशिकाओं का यह जल सूख नहीं जाता। बेर को सुखा लेने का रिवाज है जिससे दूसरे मौसमों में भी उसे उबाल कर खाने का स्वाद ले सकें। दुबारा पानी के संसर्ग में लाने से सूखी हुई कोशिकायें पानी खींचती तो हैं किन्तु वह अपने प्राकृतिक रूप से किसी भी अवस्था में नहीं आ पातीं। जिस पदार्थ के इस जल तत्व को पका सुखा कर जितना ही कम कर देंगे उस का जीवन तत्व उसी अनुपात में समाप्त हो जाता है तलने या चिकनाई से तो पदार्थ की कोशिकाओं का संबन्ध ही जल से टूट जाता है, फलतः ऐसे पदार्थ निष्प्राण ही माने जा सकते हैं। ऐसी वस्तुएं पेट में अधिक विष उत्पन्न करती हैं।

कृत्रिम तरीकों से खाद्य पदार्थों में रंग डालने या मिर्च मसाले मिलाने से वस्तु कभी भी अपने प्राकृतिक स्वरूप को कायम नहीं रख पाती। हरे व स्वाभाविक रूप से पके नींबू, मूली, गाजर, टमाटर, खीरे, ककड़ी, अमरूद, नारंगी, सेब, चीकू अथवा अंगूर की तुलना में बंगाली या पंजाबी मिठाइयाँ भला कहाँ टिक सकती हैं? इनमें दिखावा, जायका और आकर्षण भले ही हो, आहार का मूल उद्देश्य तो उनसे पूरा हो नहीं पाता है।

आहार का दूसरा महत्वपूर्ण खाद्याँश ‘स्टार्च’ है। कच्चे अनाज में निस्सन्देह स्टार्च अधिक होता है, जिस से अनाजों, चावल, आलू, अरबी आदि को उबाल कर ले लें तो कोई हानि नहीं। किन्तु अधिकाँश खाद्य पदार्थ ऐसे हैं, जिनके मूल रूप में सेवन से ही 25 प्रतिशत तक स्टार्च बड़ी सुगमता से प्राप्त किया जा सकता है। इन्हें कुछ खाद्य पदार्थों को समूहों में इस प्रकार विभक्त कर सकते हैं।

1) प्रकृति द्वारा पकाये गये फल आम, अमरूद, टमाटर, सेब, संतरा, बेर, ककड़ी, खरबूजा आदि।

2) मेवे जैसे छुहारा, बादाम, पिस्ता आदि जो सुखाकर खाने योग्य बना लिए जाते हैं।

3) साग-सब्जी, गाजर, मूली, हरी वनस्पतियाँ गोभी पालक, लौकी आदि इन्हें केवल उबाल कर पर्याप्त मात्रा में लिया जा सकता है। इसी वर्ग में चने का साग, बथुए का साग, धनिया पोदीना आदि भी लिये जा सकते हैं। इन्हें उबाल लेने मात्र से स्टार्च झुलसता नहीं और सरलता से पच भी जाते हैं। ऐसे पदार्थों को अधिक चिकनाई देने या मसाले डाल कर खाने से स्टार्च की वह मात्रा नहीं प्राप्त की जा सकती तो कच्चा या उबाल कर खाने में अपेक्षित थी।

4) कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जिन्हें उबालकर या हलकी आँच में भूनकर भी ले सकते हैं जैसे हरे गेहूँ, चने, टमाटर, ज्वार या बाजरे की बालें, हरा दूधिया मक्के का भुट्टा।

उपरोक्त चारों वर्गों के पदार्थ ऐसे होते हैं जिनमें अधिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती, इसलिये इन्हें जितना अधिक से अधिक उनके नैसर्गिक रूप में लिया जाय स्टार्च की उतनी ही मात्रा शरीर के लिए प्राप्त हो सकती है। इनसे शरीर को प्रोटीन, विटामिन्स और चर्बी की मात्रा भले ही अल्प मात्रा में मिले पर ये शरीर के विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल देने में भारी सहायता पहुँचाते हैं। 2-3 तोले प्रतिदिन अंकुरित चना लें तो इससे स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। रुचि भी बनी रहती है। सिंघाड़ों से पकवान बनाने की क्रिया भी ऐसी गलत है इन्हें भी यदि कच्चा ही खायें तो अधिक उपयुक्त है।

ऐसे पदार्थों में जिनमें चिकनाई होती है उनका मक्खन निकाल कर छाछ या मट्ठे के रूप में लेना गुणकारी होता है। मट्ठा स्वास्थ्य के लिये अतीव लाभदायक है। दूध को कई उबाल देने और मलाई की मोटी पर्त जम जाने से स्वाद तो मिल सकता है किंतु जितनी सरलता से छाछ या मट्ठा पच जाता है उतना यह औटाया हुआ दूध कहाँ पचता है?

लौकी, तोरई, कद्दू आदि के बीज लोग प्रायः फेंक देते हैं किन्तु इन्हें पीसकर या कुचल कर ठंडाई जैसे रुचिकर पेय बनाये जा सकते हैं। इन्हें अधिक रुचिकर बनाने के लिये शहद, दूध, शक्कर या मिश्री मिला सकते हैं। गर्मियों के दिनों में नींबू की “शिकंजवी” लाभदायक पेय माना गया है। गाजर, कुम्हड़ा या काशीफल की काँजी को भी स्वाद युक्त बनाकर लेने में दूध या छाछ जैसी ही सरलता प्राप्त होती है। कच्चे गाजर की काँजी में किण्वन क्रिया से ‘यीस्ट’, जैसा विशेष तत्व उभर आता है जो विटामिन्स के अभाव को पूरा करता है।

खाद्य पदार्थों का रूपांतर करने या जला भून कर खाने का एक ही अर्थ होता है कि उसमें अधिक रुचि या स्वाद उत्पन्न हो और सेवन में मुँह, दाँत, दाढ़ों को विशेष बल न लगाना पड़े किन्तु स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मतानुसार किसी भी वस्तु को इतना चबाया जाना चाहिये कि सम्पूर्ण आहार गले में उतरने के पूर्व पूर्णतया रस में परिवर्तित हो जाय। रस बनाने की क्रिया जीभ से निकलने वाली ‘लार’ करती है पर खाद्य अप्राकृतिक पाक पद्धति से पकाया गया तो वह स्वाद की हड़बड़ी में जल्दी ही गले से नीचे उतर जायगा। ठीक तरह चबाये न जाने पर पाचन क्रिया में विद्रूप खड़ा हो जाता है। कच्चे पदार्थों के सेवन से यह शिकायत अपने आप दूर हो जाती है। अधिक देर तक खाने से हर घड़ी एक नये स्वाद की अनुभूति होती है डडडड के अवयवों का व्यायाम हो जाता है, पर्याप्त लार मिल कर सुविधापूर्वक रस बनकर पेट में पहुँचता है, आंतें उसे आसानी से पचा देती हैं।

कच्चे भोजन का अभ्यास हो जाने पर मन उसे ही पसंद करता है और चटोरपन की ओर से रुचि हट जाती है। इससे स्वास्थ्य का सुधार तो होता ही है साथ ही मनोविकारों का, काम, क्रोध के दुर्गुणों का भी शमन होता है और मनोबल बढ़ता है। इस दृष्टि से कच्चे आहार का आध्यात्मिक महत्व भी है। इससे सद् विचारों को बल मिलता है। सादगी, सरलता एवं सदाचरण के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है। आँशिक उपवासों में कच्चे उबले या पेड़ों पर ही पके फल खाने की उपयोगिता भी इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर प्रचलित हुई है।

कच्चा भोजन सेवन करना भी एक कला है। इसे स्वाभाविक भोजन कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। आज कल प्रचलित मनुष्य कृत पाक-कला की तुलना में यह कला कुछ किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं है।

इससे आपके शारीरिक एवं मानसिक सभी प्रकार के स्वास्थ्य की सम्भावना बढ़ेगी। इसलिये आहार ग्रहण के नैसर्गिक सिद्धान्तों का अनुसरण करना ही हमारे लिये परम श्रेयस्कर होगा।


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