आश्रम व्यवस्था पर एक सापेक्ष दृष्टि

June 1965

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विचारपूर्वक देखा जाय और मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का गहन अध्ययन किया जाय तो मनुष्य की अवस्था चार भागों में विभाजित होती है। (1) डडडड और विकास की अवस्था। (2) उद्योग और डडडड की अवस्था। (3) ज्ञान और अनुभव में सामंजस्य काल। (4) आत्म कल्याण की धारणा। इन्हीं बातों को लेकर यह जीवन पूर्ण होता है। इन अवस्थाओं में नियन्त्रण न रखा जाय तो मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति अधोगामी बन सकती है, इस विचार से ही इन्हें कर्त्तव्यों की सीमा में बाँधने का प्रयत्न किया है। ये विभाग वास्तव में मानव की शक्ति और उसके कामों को ही अनुसरण करके बनाये गये हैं। इस जीवन में कहीं कोई विकार नहीं है। मनुष्य इन चारों अवस्थाओं का रसास्वादन करता हुआ कल्याण की स्थिति प्राप्त कर सकता है। यदि इस तरह से भारतीय जीवन को प्रेरित न किया गया होता तो यहाँ भी अन्य देशों की तरह भोगवाद प्रधान रहा होता। जो शुद्धता, पवित्रता, डडडड, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, शक्ति और विशेषता यहाँ के जीवन में रही है वह न होती। यहाँ के लोग वह समृद्धि, सुख और आनन्द प्राप्त न कर सके होते जिसके लालच में जीवनमुक्त आत्मायें भी यहाँ लौट-लौटकर आई हैं। इस जीवन पद्धति में कोई त्रुटि नहीं, कोई शिकायत नहीं। सम्पूर्ण व्यवस्थित जीवन का नाम है आश्रम-व्यवस्था। यह जीवन पद्धति की उत्कृष्ट कला का विकास है।

हिन्दू धर्म में मनुष्य जीवन को लक्ष्य सिद्धि का परम पुरुषार्थ माना गया है। इस क्रम में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आते हैं। इन चारों अवस्थाओं का क्रमशः लाभ प्राप्त करता हुआ मनुष्य शाश्वत, बन्धन मुक्ति , सिद्धि, स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त कर ले इस हिसाब से जीवन को भी चार भागों में विभक्त किया गया है जो अवस्था और विकास से संगत और क्रमशः है। धर्म, अर्थ काम और मोक्ष, इन चार उद्देश्यों का विस्तार ही (1) ब्रह्मचर्य। (2) गृहस्थ, (3) वानप्रस्थ और (4) संन्यास है। नीचे उस अवस्था और स्थिति पर प्रकाश डालेंगे, जिससे यह पता चलेगा कि भारतीय जीवन पद्धति का विकास कितनी बुद्धिमत्ता के साथ हुआ है और आज की अवस्था में उसकी कितनी आवश्यकता है।

प्रारम्भ काल में बालक की जिज्ञासायें अशान्त होती हैं। वह संसार और यहाँ के अनेक पदार्थों का रहस्य जानने के लिये उत्सुक होता है। साथ ही चूँकि वह प्रकृति के अत्यधिक समीप होता है अतः उसे भले-बुरे का ज्ञान भी नहीं होता। इन्द्रियाँ भी विकास की ओर उन्मुख होती है इसलिये शक्ति-संचय और संयम के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता होती है। जिज्ञासाओं की तृप्ति के लिये साधन, अवस्था, स्वाभाविक प्रवृत्तियों को सुनियोजित और नियन्त्रित रखने के लिये, शक्तियों के संचय के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता होती है। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल इन्द्रिय संयम ही नहीं वरन् ब्रह्म प्राप्ति के सम्पूर्ण आचरणों का नाम ब्रह्मचर्य है। यह साधनावस्था है इसलिये गम्भीर देख−रेख तथा पूर्ण नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है।

प्रारम्भिक अवस्था में बालक के विचार, संस्कार और संकल्प बहुत कोमल होते हैं, इसलिये उनके पिछले जीवन के कठिन संस्कारों को भी मोड़ा जाना संभव होता है। किन्तु यह संस्कार यदि स्वभाव की गहराई में धँस गये तो उनको उखाड़ कर बाहर निकालना कठिन हो जाता है। बालकों में श्रद्धा की मात्रा इतनी पर्याप्त है कि वह संस्कारों के विकास में गुरुओं के कठोर नियन्त्रण में बने रह सकें और आत्मसिद्धि की कठोर साधनायें पूर्ण निष्ठा के साथ करते रहें।

ब्रह्मचर्य का दूसरा उद्देश्य है साँसारिक सुखोपभोग के लिये शक्ति -संचय। ब्रह्म-ज्ञान हो जाने पर जो विशुद्ध कर्त्तव्य पालन शेष रह जाता है उसे सुविधाजनक स्थिति में चलते रहने देने की दृष्टि से शारीरिक शक्ति अपेक्षित है। जीव की शेष जीवन यात्रा शरीर द्वारा ही पूरी होती है इसलिये उसका सुदृढ़ और मजबूत होना नितान्त आवश्यक है। गुरुकुलों के जीवन में इन्द्रिय असंयम के कोई भी कारण शेष नहीं रहते थे। उन वातावरणों को यज्ञादि से और भी बल प्रदायक बनाया जाता था। फलस्वरूप एक निश्चित समय तक वहाँ रहने से ब्रह्मचारी का मन, बुद्धि, शरीर सब पूर्ण पुष्ट और परिपक्व हो जाता था। ज्ञान की दृष्टि से, शारीरिक दृढ़ता की दृष्टि से वह पूर्ण होकर आश्रम से निकल कर आते थे और एक उत्तरदायी जीवन-गृहस्थ जीवन के लिये सारी तैयारियाँ पूर्ण कर लेते थे।

दूसरा आश्रम गृहस्थ है। वह उद्योग, अर्थोपार्जन और सुखोपभोग का जीवन होता है। साँसारिक सुखों का भी एक निश्चित सीमा में औचित्य है। उनका उपभोग किया जाना भी अधर्म नहीं है। सन्तानोत्पत्ति की दृष्टि से पति−पत्नी का संयोग दोषपूर्ण नहीं है। इससे वंश चलते हैं, समाज, राज्य और राष्ट्र का निर्माण होता है। लौकिक जीवन में मनुष्य का सहयोग भी धर्म है। राष्ट्र को सबल और सुशिक्षित, सुदृढ़ और चरित्रवान नागरिक देने की आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ गृहस्थ जीवन में परिपूर्ण होती हैं। ब्रह्मचर्य काल में व्रतधारी को जो शिक्षायें मिली होती हैं व्यवहार में उनका अनुभव गृहस्थ में होता है। प्रेम, दया, करुणा, मैत्री, उदारता, क्षमा, सहिष्णुता कष्ट परायणता आदि की व्यावहारिक रसानुभूति गृहस्थ जीवन में ही पूरी होती है। स्त्री पुरुष मिलकर निर्माण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, और राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति में सहयोग करते हैं। गृहस्थ इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना जागृत है और कर्त्तव्यपालन के लिए उसमें समुचित साहस है। अपनी भावनाओं का विकास भी इसी क्षेत्र में रह कर होता है। कष्ट और कठिनाइयों में मनुष्य की आत्मा विकसित होती चली जाती है।

बोधायन धर्म सूत्र में गृहस्थाश्रम के अनेक प्रयोजनों को पूरा करने वाला सर्वोच्च आश्रम माना है। इसमें सुखोपभोग के साथ-साथ धर्म का भी समन्वय होने से महर्षि गौतम ने गृहस्थाश्रम को सब आश्रमों का मूल कहा है। जिन लोगों का यह कथन है कि गृहस्थ जीवन जंजाल है, व्यर्थ है, इसमें रहकर ईश्वर उपासना का लाभ नहीं उठाया जा सकता, उन्हें जानना चाहिये कि महर्षि कण्व, जमदग्नि, विश्वामित्र, वशिष्ठ, भरद्वाज, गौतम, शंख, दक्ष आदि अनेक ऋषि गृहस्थ ही थे और गृहस्थ में रहकर ही उन्होंने उच्च तत्वों की शोध की थी। वस्तुतः मनुष्य के विकास में परिवार पहली और सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। अनेक कष्ट और कठिनाइयाँ भी गृहस्थ जीवन में हँसी खुशी के साथ काट ली जाती हैं। दूसरे तीनों आश्रमों के संचालन की व्यवस्था भी इसी से पूरी होती है।

तैरना सीखने की आवश्यकता जल में ही पूरी होती है। जमीन में लेटकर कोई तैरना नहीं जान सकता। जीवन में परोपकार और धर्मपालन की आवश्यकता भी इसी तरह पारिवारिक जीवन से अलग रह कर नहीं की जा सकती। अर्थ का आचरण भी उतना ही आवश्यक है, यदि इसका कोई प्रयोग न किया जाय तो यह जो साँसारिक गतिविधियाँ चल रही हैं यह सब बन्द हो जायें और यह संसार बिलकुल, शुष्क, नीरस और जनहीन हो जाय। तब यह संसार ही जड़वत् दिखाई देने लगे।

वानप्रस्थ :—गृहस्थ में रहते हुये एक अवस्था ऐसी आती है जब उसके लिये अपनी आवश्यकता घटने लगती है। गृहस्थी के संचालन का उत्तराधिकार सन्तान ले लेती है। अर्थ और काम्य प्रयोजनों को पूरा कर लेने से इन्द्रियों के विषय भी काफी तृप्त हो चुके होते हैं। शास्त्रों में यह अवस्था 50 के लगभग मानी जाती है, जब लोगों को अपने कन्धों का भार उतार कर परिवार के ज्येष्ठ प्रतिनिधि को सौंप देना चाहिये और लोक हित के कार्यों में अधिक रुचि लेना चाहिये। अधिक आयु के पुरुषों तथा युवकों के विचारों में प्रायः साम्य नहीं होता इसलिये पारिवारिक जीवन को अकारण कलह से बचाने के लिये भी यह आवश्यक है कि उतरती उम्र के व्यक्ति अपना जीवन समाज के लिये समर्पित कर दें। उदर-पोषण के लिये या जब तक उत्तराधिकारी पूर्ण रूप से विकसित न हो जाय और उस व्यक्ति के मार्गदर्शन की आवश्यकता बनी रहें तब तक कोई व्यक्ति पारिवारिक संपर्क में बना रह सकता है पर उसे केवल अपने आपको व्यवस्थापक रह कर ही चलना चाहिये और जीवन का अधिकाँश भाग आत्म चिन्तन तथा लोकोपकारी साधनाओं में खर्च करना चाहिये। अनावश्यक आसक्ति और मोह के कारण प्रायः लोग परिवार को छोड़ना नहीं चाहते, उसी से चिपटे रहना चाहते हैं। उन्हें यह गलतफहमी होती है कि यदि वे नहीं रहेंगे तो शायद बालकों का जीवित रहना कठिन हो जायगा। यह मोह-बुद्धि परिवार में अनेक बखेड़ों का कारण बनती है। गृहस्थी का संचालन सुचारु रूप से चलते रहने देने की दृष्टि से अपना शरीर परिवार से हटा लेना कुछ बुरा नहीं, वरन् यह एक नैतिक धर्म कर्त्तव्य है। नये की स्थापना के लिये पुराने को वहाँ से हट ही जाना चाहिये।

संन्यास :—संसार में रहते हुये धर्म अर्थ, काम के त्रिविध प्रयोजन पूरे हो जाने के बाद आत्म कल्याण की स्थिति आती है। मनुष्य शरीर में जीवात्मा का अवतरण बन्धन से मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति के लिये होता है। समाज और संसार में रहते हुये मानसिक उलझनें, उत्तेजनायें आदि रहनी स्वाभाविक थीं। अधर्म की पहिचान होते हुये भी कई बार औरों के हित की दृष्टि से उसे करना पड़ जाता है इससे अकारण आत्म-वेदना मिलती है। अतः चौथी अवस्था में प्राणी को संसार के शेष बन्धनों को भी त्यागकर अपने आपको पूर्णतया परमात्मा की इच्छा के सहारे छोड़ देना चाहिये। उस समय मनुष्य का ज्ञान पक जाता है और इन्द्रियाँ अशक्त हो जाती हैं, अतः विषयों से भी छुटकारा मिल जाता है। अकारण पैदा होने वाली दुर्भावनायें भी सामाजिक संपर्क से दूर हो जाने से छूट जाती हैं। न कुछ मोह रह जाता है न आसक्ति । किसी तरह का कोई कर्त्तव्य भी शेष नहीं रह जाता। परमात्मा के चिन्तन में विचरण करता हुआ मनुष्य अन्त में संन्यास की स्थिति में प्राण त्यागकर आनन्द की अन्तिम स्थिति में विलीन हो जाता है।

यह आश्रमों की परम्परा जब तक हमारे देश में जीवित रही तब तक यश, श्री और सौभाग्य में यह राष्ट्र सर्व शिरोमणि बना रहा। श्रेय और प्रेय का इतना सुन्दर सामञ्जस्य किसी अन्य जाति या धर्म में मिलना कठिन है। हमारी कल्पना है कि मनुष्य आनन्द में जन्म लेता है, आनन्द से जीवित रहता और अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाता है। मनुष्य का लक्ष्य भी यही है। इस आवश्यकता की पूर्ति आश्रम व्यवस्था में ही सन्निहित है। समाज की सुदृढ़ रचना और मनुष्य के जीवन ध्येय की पूर्ति के लिये आश्रम-व्यवस्था का पुनर्जागरण अत्यन्त आवश्यक है।


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