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June 1965

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यत्पृथिव्याँ ब्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।

एकस्थापिन पर्य्याप्तं तस्मातृष्णाँ परित्यगेत्॥

जितना भी इस पृथ्वी पर ब्रीहि, यव तथा अन्न है और जितना भी सुवर्ण, पशु, या स्त्रियाँ हैं इतना मिलने पर भी किसी मनुष्य की तृप्ति नहीं होती। यह एक के लिये भी अपर्याप्त रहता है इसलिये तृष्णा का त्याग कर देना चाहिये।

अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोषः कथं न ते।

धर्मार्थं काम मोक्षाणाँ प्रसह्य परिपन्थिनि॥

यदि तू अपकारी पर क्रोध करता है तो इस क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मार्ग पर चलते हुये तेरा सदा अपकार ही करता है, क्रोध सर्वदा तेरा शत्रु है उसी पर क्रोध करके उसे ही वश में कर।


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