क्या सत्य, क्या असत्य?

December 1964

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संसार की प्रत्येक वस्तु और परिस्थितियों का स्वरूप सदैव बदलता रहता है। एक-सी स्थिति कभी भी नहीं रहती। छायापट के चित्रों की भाँति एक दृश्य बनता है दूसरा बिगड़ जाता है। ज्वालामुखी फटते हैं तो बड़े-बड़े पर्वत तराइयों में परिवर्तित हो जाते हैं। छोटे-छोटे द्वीप-समूहों का विस्तार होकर ही महाद्वीप बने हैं। वृक्ष-वनस्पति आदि सभी परिवर्तनशील हैं। प्रकृति अपने पञ्च-तत्वों से विविध खिलौने बनाती बिगाड़ती रहती है। इसी क्रम से सारा संसार चल रहा है। युग बीते, कल्प हुए और कई बार प्रलय हो चुकी किन्तु खेल रुका नहीं इसी भाँति सदैव दृश्यों का बनना और बिगड़ना जारी रहता है।

यह तथ्य सर्वमान्य है कि प्रत्येक क्रिया के पीछे कोई कारण या सिद्धान्त काम किया करता है। ऊपर से कोई वस्तु छोड़ते हैं तो पृथ्वी उस गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त से खींच लेती है। स्वर-कम्पनों को ईथर तत्व में गतिमान कर देने से यहाँ की आवाज सुदूर व्यक्ति तक पहुँचा देते हैं। संसार का क्रम भी किसी नियामक तत्व की इच्छा पर ही आधारित है। गीतकार ने इस बात को व्यक्त किया है :-

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

अर्थात्- माया का अस्तित्व कभी रहता नहीं और सत्य तत्व (ब्रह्म) का कभी अभाव नहीं रहता। तत्वदर्शी इस अन्तर पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं, और माया का परित्याग कर सत्य तत्व को धारण करते हैं।

माया का अर्थ, यहाँ परिवर्तनशील वस्तुओं के प्रति लगाव का भाव है। यह जानते हैं कि जन्म-मृत्यु यहाँ का नैसर्गिक क्रम है फिर भी दुःखी होते है, बाह्य अधिकार केवल जीवन धारण तक ही सीमित हैं, तो भी वस्तुओं के प्रति लोगों की आसक्ति इतनी प्रबल होती है कि उन पर अकारण लड़ते-झगड़ते रहते हैं। तत्व-ज्ञानियों ने इसीलिए इस रूप परिवर्तनीय माया को झूठा बताया है और उस अनादि तत्व ब्रह्म को जानने की प्रेरणा दी है।

विचार करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि काम, क्रोध, लोभ और मोह तथा इनसे सम्बन्धित अन्य क्रिया व्यापार का जहाँ भी विस्तार होता है, वहाँ असत् वस्तुओं के प्रति व्यक्तियों का लगाव, रुचि और आकर्षण अधिक होता है। इसी कारण यहाँ की दुःखपूर्ण परिस्थितियों में भी सुख का-सा आभास हुआ करता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य अपने को एक इकाई मान कर इतने से जीवन के क्षेत्र में ही चक्कर काटता रहता है। यह संसार और यहाँ की वस्तुएँ ही उसे प्रिय लगती हैं। पारलौकिक जीवन की चिन्ता तब तक नहीं होती, जब तक असत् का मोह मनुष्य के अन्तःकरण में छाया रहता है। इसलिये बार-बार कहा जाता है कि संसार और साँसारिक वस्तुओं से --उतना ही लगाव रखो, जितने में पारलौकिक जीवन की आवश्यकताओं पर आघात न लगे। अनावश्यक वस्तुओं का व्यामोह ही बार-बार जीवात्मा को खींच लाता है। जन्म मृत्यु का क्रम इसीलिए बना रहता है कि लोगों को असत् के प्रति अधिक आकर्षण होता है।

यह आकर्षण कभी स्वेच्छा से कम नहीं होता, वरन् एक से एक अधिक मोहक रूप सामने आते रहते हैं। एक बार के उपभोग से जितना सुख मिला था, दूसरी बार का सुख अपनी कल्पनाशक्ति और बढ़ा-चढ़ाकर लुभावने रूप में प्रस्तुत कर देती है। बस, दूसरे प्रयत्न में लग जाते हैं, हजार-पती होने की अपेक्षा लखपती होने में अधिक सुख, सम्मान और गौरव दिखाई पड़ता है, इसलिए उतने से भी तुष्टि नहीं होती। अधिक से अधिक प्राप्त करने की लोभ-वृत्ति छूटती नहीं। भगवान् कृष्ण ने कहा है :-

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णा संगसमुद्भवम्।

तन्निवघ्नाति कौन्तेय कर्म संगेनिदेहिनम्॥

अर्थात्-एक वस्तु का आकर्षण समाप्त नहीं होता कि दूसरी सामने आ उपस्थित हो जाती है, इस प्रकार संसार की वस्तुओं के प्रति आसक्ति और लोभ की वृत्ति ही मनुष्य को आवागमन के चक्कर में बाँधे रहती है।

मनुष्य की बुद्धि में जब स्वार्थ की संकीर्णता अधिक बढ़ जाती है तो उसकी प्रवृत्ति रजोगुण से तामसिक इच्छाओं की ओर बढ़ने लगती है। अर्थात् भोग ही जीवन का लक्ष्य बन जाता है। तब उचित और अनुचित का ध्यान भी नहीं रहता। ऐसी संकीर्णता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर होती है। आन्तरिक मलिनता के कारण व्यक्ति गत जीवन में क्षोभ, असन्तोष, कलह और पश्चाताप की निराशापूर्ण परिस्थितियाँ मनुष्य को प्रताड़ित करती हैं और समाज में भय, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध और अन्याय का परिमाण बढ़ने लगता है। एक व्यक्ति के पाप और अपराध अनेक व्यक्तियों के जीवन में उतरते चले जाते हैं। फलस्वरूप समाज में नारकीय यन्त्रणायें भीषण रूप से बढ़ जाती हैं। इस तरह जीवन का सात्विक सुख भी विनष्ट हो जाता है। चारों ओर ये ही लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं।

किसी भी अवस्था में बाह्य-जीवन की सफलता, साँसारिक सुख और उनके भोग की लालसा को जीवन का ध्येय नहीं मान सकते क्योंकि इनसे शारीरिक शक्तियों का पतन तीव्रता से होता है और वह समय जल्दी ही आ जाता है जिस समय मनुष्य के सम्पूर्ण दैहिक साधन अनुपयुक्त पड़ जाते है।

यह लगाव तभी तक सार्थक हो सकते हैं, जब तक देह है। मृत्यु के क्षणों में भी यह विचार संस्कार रूप से विद्यमान रहते हैं, इस कारण से जीवात्मा को घोर अशान्ति होती है, पर तब बनता कुछ नहीं। सत्य प्रकट होता है तो भारी पश्चाताप होता है, अपने विगत जीवन पर। किन्तु तब लाभ कुछ नहीं होता। हीरे का जीवन कौड़ियों के मोल बिक गया, फिर कैसी शान्ति और कैसा असन्तोष?

इसलिए जो समय रहते विचार करले, वही बुद्धिमान है। शास्त्रकार बार-बार कहता है :-

सत्यव्रतं सत्यपरं मिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।

सत्यस्य सत्यमृत सत्यनेत्र सत्यात्मकं त्वाँ शरणं प्रपन्नाः॥

अर्थात्-हे मनुष्यों! यह संसार जिस सत्य के समावेश होने के कारण जीवनमय जान पड़ता है, उस सत्संकल्प, सत्यस्वरूप, त्रिकाल सत्य और सत्य का अधिष्ठान करने वाले परम पिता परमेश्वर को जानो।” अर्थात् मनुष्य को इस बात का सदैव ध्यान बनाये रखना चाहिए कि वह सत्य से विलग होकर केवल असत्य कर्मों में ही न लगा रहे।

यह बात और अधिक स्पष्ट होती है। जीवन और मृत्यु की अवस्थाओं पर एक क्षण विचार कीजिए। अपनी तुलना सामने पड़े शव से करिये, देखिए-क्या आप में, इसमें समानता नहीं है। वही हाथ, पाँव, कान, आँख सभी कुछ ठीक अपने जैसे ही हैं, किंतु उसमें चेष्टा का जो अभाव है उसके कारण ही देहधारी को “शव” का विशेषण दिया है। प्राण और शरीर की विलगता क्या यह सोचने का विवश नहीं करती कि यह संसार दो भागों में विभक्त है, जड़ और चेतन। असत्य और सत्य। साधन और विचार की इस निर्जीविता और चैतन्यता पर जो ध्यान देता है, उसे यह वैज्ञानिक तथ्य स्पष्ट दिखाई दे सकता है। इसी को जानने की चेष्टा का नाम सत्य की खोज करना और पा लेने को जीवन सिद्धि मानते हैं।

इस संसार में परमात्मा की ही सत्ता सर्वत्र व्याप्त है। उसी की प्राण प्रक्रिया के परिणाम में यह दृश्य जगत बना है। यह मनुष्य के उपभोग के लिए नहीं है यह कहना उद्देश्य नहीं है। इन पंक्तियों में निहित तथ्य यह है कि मनुष्य के समक्ष जो अकारण दुःख, शोक और निराशा के परिणाम में आता है वे ईश्वर-कृत नहीं हैं। मनुष्य के सत्यासत्य के ज्ञान के अभाव के कारण और साँसारिक वस्तु और परिस्थितियों के कारण ही ऐसी स्थिति आती है। सत्य के अनुशीलन से मनुष्य के मोह-बन्धन टूटते हैं, कुत्सित आचरण से भय पैदा होता है, स्वार्थ की संकीर्णता समाप्त होती है। इन दुर्गुणों के दूर होने से ही शाश्वत शान्ति की उपलब्धि होती है। आत्म-सन्तोष प्राप्त करने का और कोई रास्ता इस संसार में है ही नहीं।


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