मन मान जाता है, मनाइये तो सही

December 1964

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प्रायः लोगों की यह शिकायत होती है कि हमारा मन बुराई से हटता नहीं। इच्छा तो बहुत करते हैं, धर्मानुष्ठान भी चलाते हैं, जप और उपासना भी करते हैं किन्तु मन विषयों से हटता नहीं। बुराइयाँ हर क्षण मस्तिष्क में आती रहती हैं। जब ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं तो लगता है मन ही सब कुछ है, वही जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों का सञ्चालन करता है।

यह बात अगर मान भी लें तो यह नहीं कह सकते कि मन स्वभावतया अधोमुखी है क्योंकि सन्त-सहृदय पुरुषों के मन की भी गति होती है। उनकी प्रवृत्तियाँ, रुचि और क्रिया व्यापार जब सदाचार मूलक होते हैं तो यह कैसे कह सकते हैं कि मन स्वतः बुराइयों की ओर चला जाता है।

वस्तुतः हमारी रुचि जिन विषयों में होती है उन्हीं का चिन्तन करते हैं और उन्हीं में तृप्ति अनुभव करते हैं। मन को जब किसी विषय में रुचि नहीं होती तभी वह अन्यत्र भागता है। विषयों की ओर भटकता हुआ मन ही दुख का कारण होता है। इस अवस्था से तब तक छुटकारा नहीं पा सकते जब तक मन की लगाम नहीं खींचते और उसे कल्याणकारी विषयों में नहीं लगाते। प्रसिद्ध दार्शनिक बर्क का यह कथन बिलकुल सत्य प्रतीत होता है— ‘मनुष्य पानी जैसी चञ्चलता से ऊपर नहीं उठता है’ इन शब्दों में मन के इधर-उधर भागते रहने के फलस्वरूप जो मनुष्य का पतन होता है उसी की ओर संकेत है।

मन तो आपकी इच्छानुसार रुचि लेता है। जिन व्यक्तियों को तरह-तरह की स्वादिष्ट वस्तुयें खाते रहने में रुचि होती रहती है वे इसी में भटकते रहते हैं। स्वादिष्ट चीजें बार-बार खाते रहते हैं पर किसी से तृप्ति ही नहीं होती। एक के बाद दूसरे पदार्थ में अधिक स्वाद प्रतीत होता है। इस स्वाद-स्वाद में उन्हें न तो अपने स्वास्थ्य का ध्यान रहता है, न भविष्य का। पाचन-प्रणाली बिगड़ जाती है, स्वास्थ्य खराब हो जाता है तो कहते हैं हम क्या करें, हमारा तो मन नहीं मानता। मन तो आपका सहायक मात्र है वह जिस वस्तु में आपकी रुचि देखता है उसी ओर कार्य किया करता है।

दूसरे व्यक्ति की स्वस्थ रहना अधिक पसन्द होता है। दंगल में कुश्तियाँ पछाड़ने, सेना में भरती होकर शौर्य प्रदर्शन की इच्छा होती है तो वह कसरत करता है, कुश्ती लड़ता है , मालिश और पौष्टिक पदार्थों के लिए समय और श्रम और धन जुटाता है। अनेकों क्रियायें केवल इसीलिए करता है कि उसे स्वास्थ्य अधिक प्रिय है। मन इस तरह आपकी रुचि आपकी इच्छाएँ पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण साधन है इसे शत्रु नहीं मित्र समझना चाहिए।

अतः मन को किसी उत्तम और उपयोगी विषय पर टिकाए रहना सुगम है। जिस विषय में आप अपनी उन्नति या श्रेय समझते हैं उसमें अपने मन को प्रवृत्त कीजिए मन आपको बताएगा कि आप उसकी सफलता के लिए क्या करें।

आपका मन कल्याणकारी विषयों में लगा रहता है इसका ध्यान रखिए। “हमारे किए कुछ न होगा।” ऐसा निराशापूर्ण दृष्टिकोण ही मनुष्य की असफलता का कारण है। जब हम यह मान लेते हैं कि इस कार्य को हम करके ही छोड़ेंगे तो वह कार्य जरूर सफल होता है। आशा और आत्म-विश्वास में बड़ी उत्पादक शक्ति है। आप इन्हें अपने जीवन में धारण कीजिए आपका मानसिक निरोध किसी प्रकार कामयाब नहीं होगा।

जिस विषय में ध्यान दीजिये उसके अच्छे बुरे पहलुओं का एक सर्वांगपूर्ण रेखाचित्र अपने मस्तिष्क में बनाते रहिए। जिधर कमी या अनुपयुक्तता दिखाई दे उधर ही मन की दीवार खड़ी कर दीजिए और अपनी रुचि की दिशा को सन्मार्ग की ओर मोड़े रहिए। निरन्तर अभ्यास से वह स्थिति बन जाती है जब मन स्वयं कोई विकल्प उत्पन्न नहीं करता। सत्संकल्पों में ही—अवस्थित बनने के लिए गीताकार ने भी यही प्रयोग बताया है।

लिखा है :—

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेनतुकौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

हे अर्जुन! निश्चय ही यह मन चञ्चल और अस्थिर है। इसको वश में करना निश्चय ही कठिन है, किन्तु अभ्यास और वैराग्य भावना से वह भी वशवर्ती हो जाता है।

अभ्यास का अर्थ है आप जिस विषय में रुचि रखते हैं बारबार अपने मन को उसी में लगाइये। मान लीजिये आपको विद्याध्ययन करना है तो आपका ध्यान इस प्रकार रहे कि कहाँ से पुस्तकें प्राप्त करें? कौन सी पुस्तक अधिक उपयुक्त है? किसी से सहायता भी लेनी पड़ेगी। अच्छे नम्बर प्राप्त करने के लिये परिश्रम भी वैसा ही करना है। इससे आपके विचारों की आत्मनिर्भरता, सूझ और अनुभव बढ़ेंगे और उसी विषय में लगे रहने से आप को सफलता भी मिलेगी।

अपनी इस हीन प्रवृत्ति के कारण ही मनुष्य प्रायः अशुभ विचारों और अप्रिय अवस्थाओं का चिन्तन करते रहते हैं। इसी कारण उनके मस्तिष्क में निरन्तर द्वंद्व छिड़ा रहता है। कामुकतापूर्ण विचारों वाला व्यक्ति सदैव वैसे ही विचारों से घिरा रहता है, थोड़े से विचार आत्म-कल्याण के बनाता भी है तो अनिश्चयात्मक बुद्धि के कारण तरह-तरह के संशय उठते रहते हैं। जब तक एक तरह के विचार परिपक्व नहीं होते, तब तक उस दिशा में अपेक्षित प्रयास भी नहीं बन पाते। यही कारण है कि मनुष्य किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर पाता।

सद्विचार जब जागृत होते हैं तो मनुष्य का जीवन स्वस्थ, सुन्दर और सन्तोषयुक्त बनता है। अपना संकल्प जितना बलवान् बनेगा उतना ही मन की चंचलता दूर रहेगी और संयम बना रहेगा। इससे शक्ति जो मनुष्य को उत्कृष्ट बनाती है विश्रृंखलित न होगी और मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने निश्चय पथ पर बढ़ता चला चलेगा।

आप सदैव ऐसे ही काम करें जिससे आपकी आत्मा की अभिव्यक्ति हो। जिन कार्यों में आपको सन्तोष न होता हो उन्हें अपने जीवन का अंग न बनाइये। जब तक मनुष्य अपने कार्यों में मानवोचित स्वतन्त्रता की भावना का विकास नहीं करता तब तक उसकी आत्मा व्यक्त नहीं होती। दूसरों के लिये सही मार्ग-दर्शन वही दे सकता है जिसमें स्वतन्त्र रूप से विचार करने की शक्ति हो। इस शक्ति का उद्रेक मनुष्य के नैतिक साहस और उसके प्रबुद्ध मनोबल से ही होता है। बलवान् मन जब किसी शुभकर्म में संलग्न होता है तो मनुष्य का जीवन सुख और सम्पदाओं से ओत-प्रोत कर देता है। उसकी भावनायें संकीर्णताओं के बन्धन तोड़कर अनन्त तक अपने सम्बन्धों का विस्तार करती हैं। वह लघु न रहकर महान बन जाता है। अपनी इस महानता का लाभ अनेक दूसरों को दे पाने का यश-लाभ प्राप्त करता है।

इसलिये जीवन साधना का प्रमुख कर्तव्य यही होना चाहिये कि हमारी मानसिक चेष्टायें पतनोन्मुख न हों। मन जितना उदात्त बनेगा, जीवन उतना ही विशाल बनेगा। सुख और शान्ति मनुष्य जीवन की इसके विशालता में ही सन्निहित हैं दुःख तो मनुष्य स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण पाता है।

अतः अपने आपको सुधारने का प्रयत्न कीजिए। वश में किया हुआ मन ही मनुष्य का सहायक है और उससे बढ़कर अपना उद्धारकर्त्ता संसार में शायद ही कोई हो। इस परम हितैषी मन पर अनुकूल न होने का दोषारोपण लगाना उचित नहीं लगता। जिस मन पर ही मनुष्य की उन्नति या अवनति आधारित है उसे सुसंस्कारित बनाने का प्रयत्न सावधानी से करते रहना चाहिये। मन को विवेकपूर्वक समझायें तो वह माना जाता है और कल्याणकारी विषयों में रुचि लेने लगता है। यह प्रक्रिया अपने जीवन में प्रारम्भ हो तो हम जीवन लक्ष्य प्राप्ति के सही मार्ग पर चल रहे हैं, यही मानना चाहिये।


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