मधु-संचय (Kavita)

December 1964

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भूतल स्वर्ग एक करने को बहे कर्म की गंगा, श्याम घनों में निकले प्यारा इन्द्र धनुष बहुरंगा। जीवन में हो ज्योति-ज्योति में प्रतिभा जगमग जागे, प्रतिभा कर दिग्विजय झूमती आये अपने आगे। सुगम हमें हो हिम बरसाती तूफानों की राह। जन-जन में उमड़े भारत माँ के प्रति प्रेम प्रवाह॥

नानाथ ‘दिनेश’

सत्कर्मों पर चलना ही तुम,

अपना जीवन जानो।

जितना चले कि चरण चूमने,

स्वर्ग आ गया मानो॥

मन से, वचन,कर्म से जिसने,

सद् पथ को अपनाया।

उसने निज चरणों के नीचे,

सौ स्वर्गों को पाया॥

—रामेश्वर दयाल ‘दुबे’

जिस तरफ उठे नजर उधर धुआँ,

और रोशनी बहुत उदास है।

जिस तरफ बढ़े कदम उधर कुआँ,

शान्ति का न ठाँव आस-पास है।

तुम बना रहे महल टिकाव के,

स्वार्थ की प्रकृति उन्हें कुचल रही।

प्यार का दिया न जब जला यहाँ,

व्योम का उदर वहाँ निरख रहे।

दृष्टि के लिये मिली न मंजिलें,

सृष्टि के लिये जगा अलख रहे।

सूर्य चन्द्र थे जहाँ, रहे वहीं,

पर धरा निसर्ग को निगल रहे॥

—वीरेन्द्र ‘सरल’

अन्धकार दूर हो, प्रकाश आज चाहिये। प्रेम और प्रतीति का विकास आज चाहिये। जो मिटा सके सड़ांध दैन्य और दुराव की, सत्य और धर्म की सुवास आज चाहिये। जाग इसलिये सपूत कर्म है बुला रहा। खोल वक्ष डर न आज मर्म है बुला रहा। ज्ञान का प्रवाह जो बहा सके त्रिलोक में, आज फिर वही तुझे स्वधर्म है बुला रहा॥ —सुमित्रा देवी ‘परिहार’

लो जागो! अब उठो! मनस्वी,

नव-युग का निर्माण करो।

अकर्मण्यता छोड़ प्रगति के पथ पर पाँव बढ़ाना है। वैभव और विजय का सूचक धर्म केतु फहराना है। फिर लेना आनन्द सुधा का प्रथम गरल का पान करो। नव-युग का निर्माण करो॥

—दुर्गेश ‘दीक्षित’

दुर्दिन में भी जो पीछे पाँव न धरते,

सह स्वयं कष्ट औरों की पीड़ा हरते।

काँटों की सेज बनाकर जो सोते हैं-

वे पुरुष सिंह मरकर भी कभी न मरते। लिखते हैं वे इतिहास समय के पट पर।

लाते जो मोती बीन मृत्यु के तट पर॥

—वीरसिंह ‘राठौर’

आरुढ़ सत्य पर शूर-वीर होते हैं। कायर तो जग का अधम भार ढोते हैं। चट्टानों को जो तोड़ बना दें पानी- ऐसे इस जग में विरले ही होते हैं। है रही सदा वीरों की यही निशानी। पत्थर को भी जो तोड़ बना दें पानी॥ —जगतनारायण शर्मा

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

हमारे प्रतिनिधि एवं उत्तराधिकारी

अब हर जगह अपने उत्तरदायित्व सँभाल लें

धर्म प्रचार करते हुए—जन-जागरण का शंख बजाते हुए—’अखण्ड-ज्योति’ को पूरे पच्चीस वर्ष बीत गये। इस अंक के साथ ‘अखण्ड-ज्योति’ अपने जीवन-काल के पूरे पच्चीस वर्ष समाप्त करती है।

पच्चीस वर्ष की एक अवधि पूरी करके उसने प्रचार एवं संगठन का कार्य पूरा किया है। भारतीय संस्कृति के अनुरूप जन-मानस विनिर्मित करने के लिए उसने अपने स्वल्प साधनों के द्वारा घनघोर प्रयत्न किया है। लाखों नहीं, करोड़ों व्यक्तियों तक अपना सन्देश पहुँचाया है। नव-निर्माण की विचारधारा से प्रभावित किया है। अगणित व्यक्तियों की जीवन दिशाओं को मोड़ा है। लोक-निर्माण के लिए सहस्रों जन-सेवी उत्पन्न किये हैं और एक ऐसे सुसंगठित परिवार की रचना की है जिसमें तीस हजार व्यक्ति मधु-मक्खियों के छत्ते में रहने वाले अण्डे-बच्चों की तरह एक सुदृढ़ आस्था अपना कर, बहुत कुछ करने की तैयारी में संलग्न हैं।

किन्तु हमारा-इन पंक्तियों के लेखक का-शरीर दिन-दिन थकता जाता है। कार्य करने के सात वर्ष -जो और शेष हैं वे अब धीरे-धीरे घटते चले जा रहे हैं। आगे हमें राष्ट्र को नई शक्ति दे सकने वाली प्रचण्ड तपश्चर्या भी करनी है। ऐसी दशा में अब वह समय आ पहुँचा जब कि हम अपना उत्तरदायित्व उन कन्धों पर डालना आरम्भ कर दें जिन्हें समर्थ और सामर्थ्यवान् देखे हैं। हम अपनी आँखों से यह देखकर सन्तुष्ट एवं आश्वस्त होना चाहते हैं कि जो मशाल जलाई गई थी, उसे आगे से चलने का क्रम ठीक प्रकार चल रहा है। अगले सात वर्ष इसी प्रक्रिया को पूर्ण करने में लगाने का निश्चय कर लिया है। इसे ‘सत्ता हस्तान्तरण कार्यक्रम’ कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इसे ‘उत्तराधिकार घोषणा’ भी कह सकते हैं। ‘अखण्ड-ज्योति’ के जीवन के पच्चीस वर्ष इसी दिसम्बर में पूरे हो रहे हैं। रजत-जयन्ती की शानदार अवधि उसने पूरी कर ली। अब वह स्वर्ण-जयन्ती वाले दूसरे अध्याय में प्रवेश करती है। अतएव इस सन्धि-वेला में उसे तदनुरूप कार्यक्रम भी बनाना पड़ रहा है। इन पंक्तियों में उसी की चर्चा की जा रही है।

युग-निर्माण-योजना, शत सूत्री कार्यक्रमों में बँटी हुई है। वे यथा-स्थान, यथा-स्थिति, यथासम्भव कार्यान्वित भी किये जा रहे हैं पर एक कार्यक्रम अनिवार्य है और वह यह कि इस विचारधारा को जन-मानस में अधिकाधिक गहराई तक प्रविष्ट कराने—उसे अधिकाधिक व्यापक बनाने—का कार्यक्रम पूरी तत्परता के साथ जारी रखा जाय। हम थोड़े व्यक्ति युग को बदल डालने के लिए पर्याप्त नहीं—धीरे-धीरे समस्त मानव समाज को सद्भावना सम्पन्न एवं सन्मार्ग मार्गी बनाना होगा और यह तभी सम्भव है जब यह विचारधारा गहराई तक जन मानस में प्रविष्ट कराई जा सके। इसलिए अपने आस-पास के क्षेत्र में इस प्रकाश को व्यापक बनाये रखने का कार्य तो परिवार के प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को करते ही रहना होगा। अन्य कोई कार्यक्रम कहीं चले या न चले पर यह कार्य तो अनिवार्य है कि इस विचारधारा से अधिकाधिक लोगों को प्रभावित करने के लिए निरन्तर समय, श्रम, तन एवं मन लगाया जाता रहे। जो ऐसा कर सकते हैं, जिनमें ऐसा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई है, उन्हें हम अपना उत्तराधिकारी कह सकते हैं। धन नहीं, लक्ष्य हमारे हाथ में है, उसे पूरा करने का उत्तरदायित्व भी हमारे उत्तराधिकार में किसी को मिल सकता है। उसे लेने वाले भी कोई बिरले ही होंगे। इसलिए उनकी खोज तलाश आरम्भ करनी पड़ रही है।

जन-साधारण को विचारणा एवं प्रेरणा नियमित रूप से देते रहने का कार्य सब से पहला है। यह प्रबन्ध हो जाता है, तो अन्य सार्वजनिक प्रवृत्तियाँ पनपती रहती हैं। जिनमें स्वयं का स्थायी उत्साह हो वे ही दूसरे शिथिल लोगों में नव-जीवन संचार करते रह सकते हैं। जो स्वयं ही शिथिल हो रहे हैं उन्हें दूसरों की शिथिलता के कारण प्रगति रुक जाने का बहाना ढूँढ़ना व्यर्थ है। एक वेश्या सारे मुहल्ले में दुर्बुद्धि पैदा कर देती है, तो एक प्रेरणाशील प्राणवान् व्यक्ति भी दीपक की तरह अपने क्षेत्र को प्रकाशवान बनाये बिना नहीं रह सकता। आग जहाँ रहेगी, वहाँ गर्मी पैदा करेगी ही। भावनाशील व्यक्ति जहाँ भी रहें वे वहाँ भावनाओं का प्रवाह करने ही लगेंगे। इसमें न तो सन्देह की गुंजाइश है और न आश्चर्य की। प्राणवान् व्यक्तियों द्वारा दूसरों में प्राण फूँका जाता है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।

आजकल हम ऐसे ही अपने प्राणवान् उत्तराधिकारी ढूँढ़ने में लगे हैं। जहाँ भी ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्य हैं उन सभी स्थानों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करना चाहते हैं। इन प्रतिनिधियों पर युग-निर्माण के अनुरूप चेतना उत्पन्न करते रहने का उत्तरदायित्व रहेगा। हमारे जीवन का बाह्य कार्यक्रम भी यही रहा है। हमारे उत्तराधिकारी भी अपनी परिस्थितियों के अनुसार इन्हीं गतिविधियों को अपनायेंगे। वे अपनी रोजी-रोटी कमाते हुए भी अपने निजी आवश्यक कार्यों की तरह जन-जीवन में चेतना उत्पन्न करने के लिए यदि थोड़ा भी प्रयास करते रहेंगे तो निश्चय ही उस क्षेत्र में आशा-जनक प्रकाश जलता और बढ़ता रहेगा।

इन दिनों जहाँ भी ‘अखण्ड-ज्योति’ जाती है उन स्थानों में हम अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर रहे हैं। एक प्रधान प्रतिनिधि और दो सहायक प्रतिनिधि होने से तीन व्यक्तियों की वह मण्डली पर्याप्त हो सकती है। जहाँ अधिक सक्रिय लोग है, वहाँ यह संख्या पाँच तक भी बढ़ सकती है। जहाँ परिवार के लोग बहुत कम है, वहाँ एक प्रतिनिधि से भी काम चल सकता है। नव-निर्माण की विचारधारा को प्रसारित करने और उस प्रभाव-क्षेत्र में आये हुए लोगों को संगठित रखने तथा सक्रिय बनाने के लिए इन प्रतिनिधियों को विशेष रूप से प्रयत्न करना होगा ताकि जहाँ अपना बीजाँकुर पहुँच चुका है, वह सूखने न पावे वरन् खाद पानी प्राप्त करके बढ़े, विस्तार करे, फले-फले और धीरे-धीरे सुरम्य उद्यान के रूप में परिणत हो जाय। इस भावना को जो हृदयंगम कर सके, इस प्रयास में जो सक्रिय सहयोग दे सके, वही हमारे प्रतिनिधि बनने का अधिकारी हो सकता है।

यों अनेक स्थानों पर युग-निर्माण की शाखाएँ स्थापित हैं। उनके कार्यकर्त्ता भी चुने और बदले जाते रहते हैं। यह चलता ही रहना चाहिए। नये-नये लोगों को काम सिखाना, उन्हें पदाधिकारी बनाकर अनुभव एवं श्रेय देना आवश्यक है। उनमें हेर-फेर होते रहने में हर्ज नहीं। लगन के निष्ठावान् व्यक्ति कहीं-कहीं कोई बिरले ही होते हैं और उन्हीं के बलबूते पर सारी गतिविधियाँ सजीव रहती हैं। स्थिर गति और प्रगति निष्ठा हर किसी में नहीं होती, जिनमें होती है, वे ही कुछ चिरस्थायी कार्य कर सकते हैं। हमें ऐसे ही लोगों की तलाश है।

कष्ट पीड़ित, कामनाग्रस्त, ऋद्धि सिद्धि के आकाँक्षी, स्वर्ग मुक्ति के फेर में पड़े हुए, विरक्त , निराश व्यक्ति भी हमारे संपर्क में आते रहते हैं। ऐसे कितने ही लोगों से हमारे सम्बन्ध भी हैं, पर उनसे कुछ आशा हमें नहीं रहती। जो अपने निजी गोरखधन्धे में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि ईश्वर, देवता, साधु, गुरु किसी का भी उपयोग अपने लाभ के लिए करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं, वे बेचारे सचमुच दयनीय हैं। जो लेने के लिए निरन्तर लालायित हैं, उन गरीबों के पास देने के लिए है ही क्या? देगा वह—जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है। समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य-बुद्धि जम गई होगी—वही लोक-कल्याण की बात सोच सकेगा और वही वैसा कुछ कर सकेगा। आज के व्यक्ति वादी, स्वार्थ परायण युग में ऐसे लोग चिराग लेकर ढूँढ़ने पड़ेंगे। पूजा उपासना के क्षेत्र में अनेक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्म-वादी कहते मानते रहते हैं पर उनकी सीमा अपने आप तक ही सीमित है। इसलिए तत्वतः वे भी संकीर्ण व्यक्ति वादी ही कहे जा सकते हैं।

हमारी परम्परा पूजा उपासना की अवश्य है पर व्यक्ति बाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और प्रस्ताव की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा एवं परमार्थी को खरा कहा है। अखण्ड-ज्योति परिवार में दोनों ही प्रकार के खरे-खोटे लोग मौजूद हैं। अब इनमें से उन खरे लोगों की तलाश की जा रही है जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधे पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें। ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे। इस छाँट में जो लोग आ जावेंगे उनसे हम आशा लगाये रहेंगे कि मिशन का प्रकाश एवं प्रवाह आगे बढ़ाते रहने में उनका श्रम एवं स्नेह अनवरत रूप से मिलता रहेगा। हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं। और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है। हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं।

लोक सेवा की कसौटी पर जो खरे उतर सकें, ऐसे ही लोगों को परमार्थी माना जा सकता है। आध्यात्मिक पात्रता इसी कसौटी पर परखी जाती है। हमारे उस देव ने अपनी अनन्त अनुकम्पा का प्रसाद हमें दिया है। अपनी तपश्चर्या और आध्यात्मिक पूँजी का भी एक बड़ा अंश हमें सौंपा है। अब समय आ गया जब कि हमें भी अपनी आध्यात्मिक कमाई का वितरण अपने पीछे वालों को वितरित करना होगा। पर यह क्रिया अधिकारी पात्रों में ही की जायगी, यह पात्रता हमें भी परखनी है और वह इसी कसौटी पर परख रहे हैं कि किस के मन में लोक सेवा करने की उदारता विद्यमान है। इसी गुण का परिचय देकर किसी समय हमने अपनी पात्रता सिद्ध की थी अब यही कसौटी उन लोगों के लिए काम आयेगी जो हमारी आध्यात्मिक पूँजी के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत करना चाहेंगे।

आगामी बसन्त-पंचमी से गायत्री उपासना की कुछ प्रक्रिया कुछ विशेष व्यक्तियों को आरम्भ कराने जा रहे हैं। इसमें हमारा व्यक्तिगत सहयोग और अनुदान भी उन साधकों को मिलेगा। यों साधारण साधना सभी उपासक करते हैं। पंचकोशी उपासना भी कितने ही लोग कर रहे हैं। यह शास्त्रीय विधान है जिसे बताना हमारे लिए आवश्यक ही था। कुछ विशेष उपलब्धियाँ इस क्षेत्र में ऐसी भी हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए साधकों को स्वयं तो प्रयत्न करना ही होगा, साथ ही हमारा प्रयास भी कम न होगा। दोनों मिलकर ही उसे सफलता एवं पूर्णता की मंजिल तक पहुँचा सकेंगे। इस साधना प्रयास में लगे हुए व्यक्ति हमारे आध्यात्मिक प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी कहे जा सकेंगे।

सेवा और साधना दोनों ही हमारे कार्य क्षेत्र रहे हैं। हम जानते हैं कि जिनके कन्धों पर हम अपनी परम्परा को आगे ले चलने का उत्तरदायित्व सौंपें वे दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से निष्ठावान् हों। उपासना की भाँति ही उन्हें लोकसेवा में भी अभिरुचि हो। एकाँगी अभिरुचि वाले व्यक्ति हमारी दृष्टि से आधे अध्यात्मवादी हैं उन्हें एक टाँग का, एक हाथ का, एक आँख का, अर्धांग, बात पीड़ित ही कहा जायगा। फौज में डाक्टरी मुआयने में ‘फिट’ युवक ही भर्ती होते हैं। हमारा उत्तराधिकार उन्हें मिलेगा, हमारे प्रतिनिधि वे होंगे जो साधना में ही नहीं लोक सेवा में भी समुचित अभिरुचि लेंगे। युग-निर्माण योजना इसी प्राथमिक परीक्षा के रूप में हमने अपने परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत की है। उस कसौटी पर खरे-खोटे सहज में परख में और पकड़ में आते चले जा रहे हैं।

इन दिनों उसका अन्तिम निराकरण होने जा रहा है। हमने अपने लोक सेवा कार्य काल के ‘अखण्ड-ज्योति’ के जीवन के पच्चीस वर्ष पूरे करते ही यह कदम उठाया है कि अपने सहयोगी विशिष्ट कार्यकर्ताओं की अन्तरंग गोष्ठी अलग से विनिर्मित करना आरम्भ कर दें और जो परिपक्व लोग हों उनके कन्धों पर वह सब कुछ सौंपना आरम्भ करदें जो आज हमें करना है। प्रश्न केवल कुपात्र की परख का है। सो उसके लिए आरम्भिक जाँच की जा रही है। जो उपयुक्त सिद्ध होते जायेंगे उन्हें अपनी व्यक्ति गत अभिरुचि के साथ आध्यात्मिक प्रगति के क्षेत्र में बढ़ना उतनी तत्परता के साथ आरम्भ कर देंगे जितनी कि संभव होगी।

इस प्रयोजन के लिए ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्यों से आवश्यक पूछ-ताछ आरम्भ कर दी है। अलग से परिपत्र भेजकर यह मालूम किया जा रहा है कि किस स्थान पर किन्हें प्रतिनिधि नियुक्त किया जाय। जहाँ भी ‘अखण्ड-ज्योति’ पहुँचती होगी वहाँ हमें अपने प्रतिनिधियों की नियुक्ति करनी है। कम से कम एक तो हर जगह होगा। जहाँ अधिक संख्या में सदस्य हैं वहाँ तीन जहाँ बहुत अधिक सदस्य हैं वहाँ पाँच तक का एक प्रतिनिधि मण्डल रह सकेगा। अपने स्थानों में वे नवनिर्माण के लिए हमारे प्रतिनिधि के रूप में कार्य करेंगे। और अपनी व्यक्ति गत उपासना को बढ़ाते हुए उसी प्रकार आध्यात्मिक मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त करेंगे जैसा कि हमें प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता रहा है।


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