आप अकेले तो हैं नहीं?

December 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अबोध मनुष्य दूसरों के ऊपर विश्वास रखकर उनके सहारे आशा के ऊँचे-ऊँचे महल बनाता है। कल्पना के सुनहले रंगों से स्वर्गीय भविष्य को सजाता सँवारता है। दूसरों के ऊपर अपने सुख-प्रसन्नता के महल बनाता है। उन्हें अपना मान कर चलता है और उनके बल पर न जाने क्या-क्या सोचता विचारता रहता है। लेकिन एक दिन मनुष्य के जीवन में ऐसा आता है कि उसके ये समस्त आशा-विश्वास सारहीन और खोखले सिद्ध हो जाते हैं। उसकी कल्पना के महल धराशायी हो जाते हैं, इनकी सुख-समृद्धि प्रसन्नता की योजनायें, मरीचिका मात्र हो जाते हैं । जब अपने कहने वाले लोग मनुष्य का साथ छोड़ देते हैं। वह जीवन पथ पर असहाय स्थिति में अकेला रह जाता है, तब अपनी अबोधता और अज्ञान पर रोने पछताने के सिवा कुछ भी उसके हाथ में नहीं होता।

कौन किसका प्रिय है? कौन किसका साथी है? इसका कोई सही, निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। फल और शीतल छाया के नष्ट होने पर पक्षीगण वृक्ष छोड़ जाते हैं, नदी-सरोवर के सूख जाने पर सारस उड़ जाते हैं, पशु-पक्षी जलते हुए वन को छोड़कर भाग जाते हैं, प्रभुता—श्री समृद्धि नष्ट होने पर सेवक स्वामी को छोड़ जाते हैं, परिजन भी स्वार्थ पूर्ति समाप्त हो जाने पर मनुष्य का साथ छोड़ देते हैं। वृद्ध माता-पिता सन्तान को भारस्वरूप मालूम होने लगते हैं। रुग्ण-अपाहिज, असुन्दर हो जाने पर प्रियतमा स्त्री मनुष्य को भार लगने लगती हैं तो कमाने में असमर्थ घर की आवश्यकता पूर्ण न करने वाला पति स्त्री को बुरा लगने लगता है। परिस्थितिवश आरोग्य-असमर्थ हो जाने वाला सेवक भी स्वामी को बोझा लगने लगता है।

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसी स्थिति अवश्य आती है जब जिन्हें वह अपना कहकर चला वही उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। जिनके ऊपर आशा आकाँक्षायें रखकर चला वही उसकी आशाओं आकाँक्षाओं, के लिए बाधक बन जाते हैं। हरेक मनुष्य के जीवन में एक ऐसा क्षण अवश्य आता है जब संसार में वह अपना स्वयं आपको ही पाता है।

कैसी विडम्बना है, कि हम अबोध होकर दूसरों के भरोसे अपनी आशा के स्वप्न संजोते रहते हैं। और फिर दूसरे ही दिन उनके कटु—असहानुभूतिपूर्ण, व्यवहार देखकर दुःखी होने लगते हैं, उनकी आलोचना करने लगते हैं। दोष देते हैं। यह दूसरी बड़ी भूल करते हैं।

हर मनुष्य को देर सवेर में यह हृदयंगम करना पड़ेगा कि वह संसार में अकेला आया है। अकेले ही उसे अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करनी पड़ेगी। संसार के लोगों का साथ तो तभी तक मिलेगा जब तक आप उनके काम करने के योग्य हो, उनके स्वार्थों की पूर्ति में सहायक हो सकते हो या उनकी हाँ में हाँ मिलाकर उनके पीछे चलते रह सकते हो। जिस दिन आप काम के अयोग्य हो जायेंगे संसार वाले आपको अनावश्यक, कूड़ा समझकर दूर उठा फेंकने के लिए तैयार हो जाएंगे। आप उन्हें बुरा लगने लगेंगे। तब आपको, उपेक्षा, अपमान तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं मिलेगा उन तथाकथित अपने लोगों से। संसार के लोग उसी की सराहना करेंगे उसे ही महत्व देंगे, यहाँ उसी का बोल बाला होगा जो उनकी स्वार्थ सिद्धि में सहायक होगा जो उनके काम आयेगा।

संयोगवश जब आप जीवन में अकेले और कठिन स्थिति में पड़ जायेंगे तब कोई आपकी ओर देखेगा भी नहीं। किसे समय है जो आपको आँसू पोंछेगा? कौन आपकी वेदनाओं को सुनेगा कौन आपकी सहायता कर सकेगा? इसका एक ही उत्तर है, कोई नहीं। आपको अकेले अपने आप ही अपनी वेदनाओं के कष्टों का हलाहल पीना पड़ेगा। स्वयं को ही अपनी समस्याएँ सुलझानी होंगी। स्वयं ही पथ पर चलना होगा चाहे आपके पैरों में असह्य वेदना ही क्यों न हो।

प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक बनावट होती है अपनी प्रकृति होती है। एक सी बनावट—रुचि, प्रकृति के व्यक्ति नहीं मिल सकते। इसलिए किसी भी रूप में हम अन्य किसी को अपना साथी नहीं समझ सकते। जीवन की अन्तिम यात्रा तक कोई भी अपना पूरा-पूरा साथ नहीं निभा पाता। कालान्तर में अपने कहे जाने वाले पराये बन जाते हैं। सहायक, बाधक बनकर निकलते हैं। पोषक, शोषक सिद्ध होते हैं। आपको स्वतन्त्र और सहज रूप में जीवन जीने दें, ऐसे साथी मिलना असम्भव है। साथ के नाम कर आपको किसी न किसी रूप में अपने स्वत्व का बलिदान करना पड़ेगा या दूसरे के स्वत्व का शोषण। और यह दोनों ही स्थितियाँ अधिक दिनों तक नहीं रहतीं, परिणाम स्वरूप मनुष्य को एक न एक दिन अकेले रहना ही पड़ता है। अकेलेपन का अनुभव करना ही पड़ता है।

सबको पाकर भी, असंख्यों मनुष्यों से घिर कर भी, आप अकेले हैं। क्योंकि यह साथ तो चन्द दिन का है। ये अल्प समय के सहयात्री हो सकते हैं लेकिन बहुत जल्दी ही पथ में आप अकेले छोड़ दिए जायेंगे। ये सहयात्री अपने-अपने स्थानों पर आपका साथ छोड़ देंगे।

जो लोग दूसरों के ऊपर अपनी सुख-शान्ति को निर्भर रखते हैं जो दूसरों के सहारे अपनी उन्नति की आशा रखते हैं, जो दूसरों के सहारे अपनी गाड़ी चलाना चाहते हैं उनकी ये समस्त आशायें अनुभव की यथार्थ चट्टान पर जाकर जब टकराती है तो चूर-चूर हो जाती हैं। मनुष्य के लिए शेष रह जाती है घोर वेदना, पश्चाताप असन्तोष और अशान्ति। जो व्यक्ति दूसरों के सहारे जीवन यात्रा तय करना चाहते हैं उन्हें बहुत जल्दी ही अकेला-असहाय रह जाना पड़ता है।

विचार कीजिए जिस व्यक्ति के सहारे आपने सुख-शान्ति के उन्नति-प्रगति के स्वप्न संजो रखे हैं यदि वह किसी बात पर आप से रुष्ट हो जाये-आपसे मुँह मोड़ ले चल बसे तो आपके स्वप्नों का क्या होगा? आपकी आशाओं के महलों का क्या होगा?

स्मरण रखिए आप सभी भाँति अकेले है। यदि आपका स्वास्थ्य खराब हो जाय तो उसके पूर्ति आपका दूसरा कोई भी साथी नहीं कर सकता। आपकी मानसिक उलझनों को कोई भी हल नहीं कर सकता। आपका दिमाग विकृत हो जाय तो उसके स्थान पर दूसरे का दिमाग आपके कोई काम नहीं आ सकता। आप जो पाप पुण्य का कार्य करते हैं उसमें दूसरा कोई आपका साझीदार नहीं हो सकता। इनका अच्छा या बुरा परिणाम आपको ही मिलेगा, दूसरे को नहीं।

जो व्यक्ति यह समझने की भूल करते हैं कि दूसरों के कन्धों पर चढ़कर वे जीवन की यात्रा पूरी कर लेंगे या कोई बड़ी सफलता हासिल कर लेंगे उन्हें एक दिन अपनी भूल का नुकसान उठाना पड़ेगा। प्रथम तो कोई भी व्यक्ति बिना समुचित मूल्य लिए आपको कोई लाभ नहीं पहुँचा सकता। और कई बार तो यह मूल्य इतना होता है कि यदि मनुष्य स्वतन्त्र रूप से प्रयत्न करे तो उससे अधिक सफलता प्राप्त कर सकता था। फिर दूसरे कृपा से प्राप्त लाभ में मनुष्य की मौलिक शक्तियाँ कुँठित हो जाती है। उनका स्वतन्त्र विकास रुक जाता है। मनुष्य की सबसे बड़ी थाती-उसका जन्मसिद्ध अधिकार है-जीवन की स्वतन्त्रता का अनुभव करना। जो किसी रूप में दूसरे के सहारे रहता है, उसे अपनी इस प्रवृत्त स्वतन्त्रता का हनन करना पड़ता है। दूसरे के सहारे रहने वाला कभी स्वतन्त्र रह ही नहीं सकता। उसे अपने विचार अपनी भावनाओं का बलिदान करना पड़ता है दूसरों के लिए। और यही सच्ची परतन्त्रता है। पराधीनता जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है पाप है।

कदाचित दूसरे की कृपा या सहारे से मनुष्य को बहुत बड़ा लाभ मिल भी जाय तो वह उस क्षमता से वंचित रह जाता है जिससे प्राप्त की रक्षा और उसका सदुपयोग कर सके। एक दिन ऐसा आता है जब उससे सब कुछ छीन लिया जाता है या वह उसे सम्हाल नहीं पाता और अन्त में वह अकेला रह जाता है जीवन की प्रारम्भिक सीढ़ी पर अपने पहले के साथियों से भी बहुत पीछे।

इस तरह हम देखते हैं कि मनुष्य के लिए यदि कोई साथी है तो वह है उसका अपना अकेलापन। जो जितनी जल्दी इस अकेलेपन की कद्र करके इसकी रक्षा करता है वह उतना ही सफल होता है जीवन की साधना में। सब सहारों की तरफ से दूसरों के सहयोग सहायता की आशा छोड़कर अपने आप पर भरोसा करें अपने अकेले को जीवन का आधार बनायें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118