आगामी माघ का अति महत्वपूर्ण शिक्षण शिविर

December 1964

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साधना एवं सम शिक्षा के लिए अनुपम अवसर

आश्विन के चान्द्रायण व्रत शिविर की सफलता को आशातीत कहा जा सकता है। उसमें सम्मिलित होने वाले साधकों का यह एक महीने का समय कितना सार्थक हुआ इसका पता उनके द्वारा भेजे गये पत्रों से चलता है। घर जाकर उनमें क्या सुधार एवं परिवर्तन हुआ इसका जो विवरण उन लोगों ने भेजा है उससे विदित होता है कि इस एक महीने के सुअवसर को वे अपने जीवन का एक अनुपम सौभाग्य मानते हैं। जो शिक्षा एवं प्रेरणा लेकर वे गये हैं वह सुनने मात्र की नहीं रही वरन् अन्तःकरण में उतरती चली गई और उसने शिविर में सम्मिलित होने वालों की जीवन पद्धति में असाधारण हेर-फेर उपस्थित कर दिया। इस परिवर्तन से उनकी अनेकों समस्यायें सुलझी हैं और उज्ज्वल भविष्य का पथ प्रशस्त हुआ है।

चान्द्रायण व्रत का अध्यात्मिक महत्व शास्त्रकारों ने बहुत ही उच्च श्रेणी का बताया है। कलियुग की उसे एक मात्र तपश्चर्या कहा गया है। सोने को तपाकर जिस प्रकार उसका मलीनता शुद्ध की जाती है। ईंट को पकाकर जैसे उसे सुदृढ़ बनाया जाता है। अन्न को पकाकर जैसे रसायन बनते हैं उसी प्रकार चान्द्रायण व्रत की अग्नि में पकाने पर मनुष्य शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकृतियों से छुटकारा पाकर अपने उज्ज्वल स्वरूप में पहुँचने का लाभ प्राप्त करता है। आत्मा पर चढ़े हुये मल आवरण एवं विक्षेपों के समाधान करने वाली, इस जीवन में बन पड़े पापों का प्रायश्चित कराकर आँतरिक पवित्रता का प्रकाश उत्पन्न करने वाली यह एक अनुपम साधना है। शास्त्रों में इसे

आत्मकल्याण की साधनाओं में सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है।

गायत्री उपासना आदि भजन साधनाओं को सफलता में सबसे बड़ी बाधा आत्मिक मलीनता की ही होती है। चान्द्रायणव्रत का आश्रय लेने पर अन्य उपासनाओं की सफलता वैसे ही अधिक संभावित हो जाती है जैसे खेत को भली प्रकार जोतने के बाद बोये गये बीज के उगने का विश्वास रहता है। जो लोग लम्बे समय में अपनी उपासना करते रहे हैं और आवश्यक लाभ न मिलने की शिकायत करते रहते हैं उन्हें चान्द्रायणव्रत के साथ वह साधना करने के उपराँत वैसी निराशा का कोई कारण नहीं रहता। गायत्री तपोभूमि जैसे पुण्य तीर्थ में रहकर की हुई गायत्री उपासना सोने में सुगन्ध का काम करती है फिर उसके साथ चान्द्रायणव्रत का समन्वय हो जाने पर तो उसे शुद्ध स्वर्ण के रत्नजटित आभूषण की तुलना दी जा सकती है। ऐसी साधना किसी के लिए भी सन्तोष-जनक सिद्ध हो सकती है।

कई प्रकार की साधना उपासनाओं और व्रत तप साधनों के माहात्म्य धर्म ग्रन्थों में लिखे मिलते हैं। इनकी ओर हमारा उतना ध्यान नहीं जा पाता था पर अज्ञात वास से लौटने के बाद तपोभूमि में आने वाले साधकों की शारीरिक चिकित्सा में थोड़ी अभिरुचि लेनी जब शुरू की और प्राकृतिक चिकित्सा के संदर्भ में कुछ रोगियों को चान्द्रायणव्रत कराये तो उसके प्रतिफल को देखकर यह विश्वास बहुत बढ़ा कि यह तपश्चर्या आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं शारीरिक दृष्टि से भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। आध्यात्मिक लोगों के विषय में तो अप्रत्यक्ष होने के कारण उन्हें संदेहास्पद भी कहा जा सकता है पर शारीरिक लाभ तो पूर्ण प्रत्यक्ष होने के कारण उनमें किसी प्रकार के सन्देह की भी गुंजाइश नहीं है। शरीर-शोधन की उसे एक अनुपम पद्धति कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

लगातार बहुत दिन विचार करने और कई तरह के प्रयोग करने के पश्चात् पिछले तीन वर्षों से हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा है कि पेट के रोगों में चान्द्रायणव्रत को एक प्रकार से कल्प-चिकित्सा का रूप भी दिया जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्तों से इसका पूरा-पूरा ताल-मेल खाता है। यों प्राकृतिक चिकित्सालयों में आमतौर से पेट के रोगियों को चार-छः महीने रहना पड़ता है। पर चान्द्रायणव्रत चिकित्सा से एक महीने की निर्धारित अवधि में इतना लाभ मिल जाता है कि उससे काम चलाऊ स्थिति प्राप्त हो जाय और यदि वह बताये हुए नियम साधनों से रहना आरम्भ कर दे तो कुछ ही दिनों में अपनी कब्ज सम्बन्धी उदर-व्यथाओं से स्थायी छुटकारा प्राप्त कर ले। इतने स्वल्प समय में इतने कम खर्च की सफल उदर चिकित्सा, शायद ही कोई दूसरी हो सके।

यह प्रसिद्ध है कि समस्त रोगों की जड़ पेट में रहती है। खाया भोजन जब पचता नहीं तो उससे उचित मात्रा में शुद्ध रक्त भी नहीं बनता। रक्त की कमी और अशुद्धता शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न प्रकार की दुर्बलता एवं रुग्णता उत्पन्न करती है। रोगों के नाम, रूप और लक्षण अनेक होते हुए भी वस्तुतः उनका मूल एक ही होता है। पेट में बिना पचा अन्न जब सड़ता है तो वह वायु-विकारों से लेकर विष-वृद्धि तक के ऐसे संकट उत्पन्न करता है जिसके विश्लेषण में इतना बड़ा चिकित्सा शास्त्र बनकर खड़ा हो गया है। यदि कब्ज पर काबू प्राप्त कर लिया जाय, पाचन यन्त्र ठीक काम करने लगे तो अन्य बीमारियों पर सहज ही विजय प्राप्त की जा सकती है। चान्द्रायणव्रत इसी आवश्यकता को पूरा करता है।

शास्त्रीय पद्धति के अतिरिक्त हमने चाँद्रायणव्रत में आरोग्य-शास्त्र सम्मत अन्य प्रक्रियाओं को भी सम्मिलित कर दिया है। जिससे वह और भी अधिक विज्ञान सम्पन्न बन गई है। ‘कृच्छ्र’ चाँद्रायणव्रत केवल समर्थ और बलवान् व्यक्ति ही कर सकते हैं पर ‘मृदु’ चान्द्रायणव्रत जो इन शिविरों में कराया जाता है वह इतना सरल है कि छोटे बालकों से लेकर गर्भिणी स्त्रियों एवं वृद्ध पुरुषों के सभी दुर्बल प्रकृति के लोग बड़ी आसानी से हँसते-खेलते उसे पूरा कर लेते हैं।

मनोविकारों के शोधन की महत्वपूर्ण प्रक्रिया इस तपश्चर्या से पूर्ण होती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के तूफानी प्रवाह रुकते हैं। दुर्बुद्धि और दुर्भावना पर नियन्त्रण करने की क्षमता उपलब्ध होती है। साथ ही निराशा, चिन्ता, आशंका, कायरता, आत्महीनता, अस्तव्यस्तता जैसे मनोविकारों के समाधान का अवसर मिलता है। आलस्य, कटुभाषण, उत्तेजना, आवेश, इन्द्रिय व्यसन, लिप्सा, इन्द्रिय लोलुपता, असंयम जैसे गुण, कर्म, स्वभाव में घुसे हुए विकारों को परास्त करने योग्य आत्मबल बढ़ जाता है। इस दृष्टि से चान्द्रायणव्रत—एक प्रकार की मानसिक चिकित्सा -भी कहा जा सकता है।

साधना, तपश्चर्या एवं चिकित्सा की दृष्टि से चान्द्रायणव्रत-साधना का अपना विशेष महत्व है। उसे शरीर, मन और आत्मा को निर्मल बनाने का एक प्रभावशाली उपाय कहा जा सकता है। तपोभूमि में चलने वाले शिविरों में जीवन विद्या के प्रशिक्षण की जो व्यवस्था की गई है, वह इस व्रत साधना के महत्व को दूना चौगुना कर देती है। मोटर चलाने वाले उसकी मशीन तथा गतिविधियों के बारे में आवश्यक जानकारी सीखते हैं, पर कितने खेद की बात है कि मनुष्य शरीर जैसे बहुमूल्य यन्त्र को ठीक तरह प्रयोग करने की विद्या से प्रायः अनभिज्ञ ही बने रहते हैं। अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में बढ़िया मोटर भी जिस प्रकार दुर्घटना-ग्रस्त होती रहती है, उसी प्रकार हम जीवन में भी पग-पग पर असफलताओं एवं व्यथाओं की दुर्घटना देखते—सहते रहते हैं। यदि हमें जीना होता तो शरीर और मन का ठीक उपयोग जानते होते। गुण, कर्म, स्वभाव को व्यवस्थित बना सके होते तो निश्चय ही स्थिति उससे बहुत भिन्न होती जैसी कि आज है।

छोटे-छोटे उद्योगों और यन्त्र चलाने की ट्रेनिंग प्राप्त करने के अनेक व्यवस्थित अव्यवस्थित शिक्षा माध्यम मौजूद हैं पर इसे एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जिन्दगी जीने की कला सीखने का कोई व्यवस्थित केन्द्र कहीं नहीं है। तपोभूमि में इस भारी कमी की पूर्ति के लिए जो अभिनव प्रयास आरम्भ किया गया है, उसे मानवीय आवश्यकताओं की एक अभूतपूर्व पूर्ति ही कहनी चाहिए। विगत जून के तथा उससे पीछे के कई शिक्षण-शिविरों में संजीवन विद्या सम्बन्धी अपनी जानकारी के आधार पर जो सिखाया गया है, जो सीखा गया है, वह आशातीत प्रतिफल उत्पन्न कर सका है। अब उस ज्ञान को और भी अधिक विकसित एवं व्यवस्थित किया जा रहा है। प्रशिक्षण की पद्धति में उत्तरोत्तर सुधार किया जा रहा है तो उसकी उपयोगिता भी बढ़ती चल रही है। जीवन-विकास के अवरोधों को मनुष्य समझ ले और उनका उचित हल मालूम कर ले तो प्रगति का पथ प्रशस्त हो जाता है और सामान्य स्थिति के व्यक्ति को भी असामान्य बनने का अवसर मिल जाता है। इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत परामर्श प्राप्त करना प्रायः कठिन होता है, क्योंकि सुलझे हुए अनुभवी मस्तिष्कों की सलाह कहीं-कहीं ही उपलब्ध हो सकती है। जीवन विद्या के शिविर इन आवश्यकताओं की कमी को सहज ही पूरी कर देते हैं। यही कारण है कि पिछले दिनों जो भी इन शिविरों में आया है, अपने भाग्य को सराहते हुए उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना लेकर गया है।

चान्द्रायणव्रत की तपश्चर्या एवं संजीवन विद्या की शिक्षा, दोनों का सम्मिश्रित स्वरूप जिन शिविरों में सम्मिलित रहता है उनका लाभ ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सौभाग्यशाली सदस्य प्राप्त कर रहे हैं। जो इन शिविरों में रहकर गये हैं, उनके परिवर्तित एवं विकसित जीवन-क्रम को देखकर अन्य अनेकों के मन में भी वैसी ही आकाँक्षा जग रही है। तपोभूमि में ठहरने एवं प्रवचनों के लिए स्वल्प स्थान होने के कारण आश्विन शिविर में 50 व्यक्तियों को आने की स्वीकृति दी गई थी पर वह रोकते-रोकते भी 75 हो गई और धीरे-धीरे वह संख्या 100 से ऊपर निकल गई। स्थान की कमी के कारण कठिनाई तो सभी को पड़ी, पर किसी प्रकार काम चल गया।

आश्विन के शिविर में आने वालों ने श्रमदान से नया प्रवचन कक्ष आरम्भ कर दिया था। वह किसी प्रकार धीरे-धीरे बनने की ओर खिसकता चलता है। 1000 ईंटें लगने में जमीन, चूना, लोहा, लकड़ी आदि का कुल खर्च 100) आता है। सो दो-चार व्यक्तियों ने वह भी भेजा है। यह सहयोग दूसरों ने भी दिया तो प्रवचन-कक्ष जिसे ‘गीता विद्यालय’ नाम दे दिया गया है, कुछ समय में बन कर तैयार हो जायगा और तब 100 शिक्षार्थियों की व्यवस्था एक समय में भी रहने लगेगी।

गत अंक में शिविरों के कार्यक्रम में परिवर्तन की सूचना छपी थी। लगातार हर महीने शिविर चलाने की बात तो आवश्यक है क्योंकि ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के 30 हजार सदस्यों को अगले 7 वर्ष में इस शिक्षा एवं तपश्चर्या का लाभ देने एक महीने अपने सान्निध्य में रखने की हमारी अभिलाषा है। उसकी पूर्ति लगातार हर महीने शिविर चलाकर ही की जा सकती है। पर इन दिनों समुचित व्यवस्था न बन पड़ने के कारण उस क्रम में हेर-फेर करने को विवश होना पड़ा है। अब अगला शिविर माघ में होगा। ता. 17 जनवरी 65 से आरम्भ होकर उसकी समाप्ति 15 फरवरी को होगी।

इस माघ शिविर में गीता प्रशिक्षण की योजना भी सम्मिलित है। धर्म प्रचारकों का गीता के प्रेमियों को शिविर अलग से लगाये जाने की योजना थी सो अब बदल कर माघ से इकट्ठी ही कर दी है। जीवन विद्या की शिक्षा गीता के माध्यम से ही दी जाएंगी। 30 दिनों में गीता के 700 श्लोकों का मर्म समझाया जायगा और वह सब योजनायें भी समझाई जायेंगी जिनके आधार पर गीता सप्ताह को व्यापक योजना के अनुसार मोह ग्रस्त भारतीय समाज को पुनः धनुर्धारी अर्जुन की तरह किस प्रकार कर्मयोद्धा के रूप में परिणत किया जा सके। भारतीय समाज को पाँचजन्य बजाते हुए गाँडीव पर प्रत्यंचा टंकारते हुए नव निर्माण के संग्राम में आगे बढ़ाना ही होगा। उसकी सामर्थ्य और प्रेरणा उसे गीता से ही मिलती है। सो हमें गीता सप्ताहों को योजनानुसार लोक शिक्षण का अभियान भी आरम्भ करना होगा। इसके लिये कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण करना ही ठहरा। यह आवश्यकता भी इस बार माघ में ही पूरी कर रहे हैं। गीता शिक्षार्थियों को, षोडश संस्कार, पर्व, त्यौहार, गायत्री, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठान कराने का उनके द्वारा लोक शिक्षण करने की शैली का ज्ञान कराया जाना है सो भी इन्हीं शिविरों से होगा।

माघ शिविर में आने वाले (1) चाँद्रायणव्रत (2) संजीवन विद्या (3) गीता प्रचारक प्रशिक्षण इन तीनों लाभों को उठा सकते हैं। जिनमें चान्द्रायणव्रत न बन पड़े वे शेष दो लाभ ले सकते हैं। जिन्हें आना हो उन्हें दिसम्बर मास में स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए। और 14 जनवरी की शाम तक मथुरा पहुँच जाना चाहिए।

पिछले शिविर में सम्मिलित भोजन व्यवस्था का प्रयोग किया गया था जो उतना सफल नहीं रहा। अब की बार अपना-अपना या अपने-अपने गुणों का मिल जुलकर भोजन बनाने का प्रयोग चलाया जायगा। भोजन बनाने की कला जानना भी जीवन विद्या का एक अंग है सो भी सब को सीखना चाहिए। इस बार ऐसी ही व्यवस्था सोची गई है। इससे यह लाभ भी है कि विभिन्न व्यक्तियों की शारीरिक या मानसिक स्थिति के अनुसार भोजन क्रम सुझाया जा सकेगा। दूध कल्प, छाछ कल्प, दही कल्प, शाक कल्प, फल कल्प, अन्न कल्प जैसे विशिष्ट उपचार बनाये जा सकेंगे। लोग अपनी रुचि के अनुसार सस्ता या महंगा भोजन कर सकेंगे। स्वयं बना लेने से पकाने वाले की मजूरी बच जायगी। बनाने में थोड़ा समय लगेगा, एवं झंझट रहेगा। पर इसके बदले सुविधायें अनेक हैं। अतएव आने वाले यथा संभव भोजन पकाने खाने के काम चलाऊ बर्तन अपने साथ लेते आवें। यों जो न ला सकेंगे उनकी व्यवस्था यहाँ से भी की जा सकती है पर अच्छा यही है कि अपनी वस्तुयें स्वयं लेकर चलें। जाड़े की ऋतु रहने से बिस्तर भी पूरा ही लेकर आना चाहिए।

माघ मास धार्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ महीना माना जाता है। उस समय इस प्रकार की शिक्षा साधना का कुछ विशेष महत्व भी है। इसलिये जिन्हें सुविधा हो वे इस अवसर पर मथुरा आ सकते हैं। इसके बाद 10-10 दिन के तीन शिविर ज्येष्ठ में भी होंगे। माघ से ज्येष्ठ के बीच में कोई शिविर नहीं है। लगातार हर महीने शिविर चलाने की व्यवस्था तो संभवतः अगले वर्ष से ही बन सकेगी।

गीता प्रशिक्षण के उद्देश्य से आने वाले यदि माघ से बैसाख तक 4 महीने ठहर सकेंगे तो उन्हें कर्मकाँड, भाषण, संगीत का व्यावहारिक अनुभव भी हो जायगा, वे अपने हाथ से उन क्रियाओं को कर सकेंगे। एक महीने में तो सुनने का ही अवसर मिल सकता है। स्वयं कथा कहना, भाषण शैली का निखार, कथा कीर्तन के योग्य संगीत बजाना, यज्ञ, संस्कार, एवं पर्वों के आयोजन स्वयं करा सकने का अभ्यास, मंत्रों को याद करना आदि बातें समय साध्य हैं। इनके लिए कम-से-कम तीन महीने अभ्यास के लिए भी होने चाहिएं। इसलिए जिन्हें धर्म प्रचार में विशेष अभिरुचि हो उन्हें आगे भी तीन महीने ठहरने की तैयारी करके आना चाहिए।


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